भारतीय भाषाओं के प्रति नजरिया

संविधान निर्माताओं को भावी भारत की इस चुनौती का भान था. यही वजह रही कि संविधान के अनुच्छेद 348 के ही भाग दो में विशेष प्रावधान किया गया.

By उमेश चतुर्वेदी | May 4, 2022 8:05 AM
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नयी आर्थिकी और नव-संस्कृति ने दुनिया को देखने, समझने और विकसित करने के लिए नया नजरिया प्रस्तुत किया है. चूंकि, यह नव-आर्थिकी की बुनियाद विलायती धरती है, लिहाजा वह अपने साथ अपनी भाषा का भी विस्तार कर रही है. भारत जैसे देशों में विकास की समानांतर व्यवस्था में अंग्रेजी की उपस्थिति और उसका विस्तार कटु सत्य है.

भारतीय भाषाओं का अस्मिताबोध भी लगातार बढ़ रहा है. भारतीय भाषाएं अपने इलाकों की उपराष्ट्रीयताओं की अभिव्यक्ति ही नहीं, अस्तित्व बोध की भी वाहक रही हैं. इन अर्थों में राजनीतिक ताकत भी रही हैं. इसके बावजूद कम से कम सर्वोच्च अदालती कार्यवाही के लिए वे अंग्रेजी के सामने एक तरह से उपेक्षित ही रही हैं.

कभी हिंदी के बहाने, तो कभी स्थानीय भाषाबोध की वजह से उच्च न्यायपालिका में भारतीय भाषाओं और हिंदी के प्रयोग की मांग उठती रही है, लेकिन ऐसी मांगें अनदेखेपन की डस्टबिन के हवाले होती रही हैं. अब न्यायतंत्र की जिम्मेदार हस्तियों का नजरिया बदलने लगा है. मद्रास हाईकोर्ट के नये प्रशासनिक भवन के शिलान्यास के वक्त प्रधान न्यायाधीश एनवी रमन्ना का यह कहना कि मंत्र जाप जैसी कानूनी प्रक्रिया नहीं होनी चाहिए, दरअसल भारतीय भाषाओं के प्रति उच्च न्यायपालिका के बदलते नजरिये का प्रतीक है.

न्यायतंत्र का नजरिया बदलने की वजह है संविधान का अनुच्छेद 348, जिसके भाग-एक के अनुसार जब तक संसद कानून नहीं बनाती, तब तक सुप्रीम कोर्ट और हाइकोर्ट की पूरी कार्यवाही अंग्रेजी में ही होगी. एनवी रमन्ना ने दरअसल इसी कार्यवाही का जिक्र किया है. सनातन समुदाय के जन्म, मरण, मुंडन-जनेऊ, विवाह आदि सभी संस्कारों में पुरोहित का मंत्रपाठ अनिवार्य व्यवस्था है. जिस तरह इन मंत्रों को ज्यादातर लोग नहीं समझते, उच्च न्यायपालिका की कार्यवाही को ज्यादातर फरियादी या वादी नहीं समझ पाते. भाषा वहां दिक्कत बन कर उठ खड़ी होती है.

एनवी रमन्ना को इन्हीं अर्थों में उच्च न्यायपालिका का कर्म मंत्रोच्चार जैसा ही लगता है. उच्च न्यायपालिका की भाषा अंग्रेजी होने की वजह से यह सच है कि ज्यादातर लोग नहीं समझ पाते कि उनके मुकदमे की पैरवी करते हुए उनके वकील ने क्या तर्क रखा या विरोधी वकील ने किस बिना पर उनके तर्क को खारिज किया या जज ने उनके बयान या मुकदमे पर क्या टिप्पणी की है? वकील के जरिये ही पता चल पाता है कि मुवक्किल को मुकदमे से स्थगन आदेश मिला है या हार हुई है या वह जीत गया है.

गांधी जी ने जब भाषा पर विचार किया था, तो उन्होंने स्वाधीन भारत में अपनी भाषा में न सिर्फ शासन, बल्कि न्याय की भी बात की थी. निश्चित तौर पर, उनकी भाषा हिंदी थी, लेकिन हिंदी पर, विशेष कर तमिलनाडु राज्य से उठे सवालों और उसे उकसाने वाली राजनीति की वजह से, हिंदी को उसका स्थान नहीं मिल पाया. उच्च न्यायपालिका में लोक या राज्य की भाषा के व्यवहार की मांग ठंडी नहीं पड़ी.

संविधान निर्माताओं को भावी भारत की इस चुनौती का भान था. यही वजह रही कि संविधान के अनुच्छेद 348 के ही भाग-दो में विशेष प्रावधान किया गया. इसके मुताबिक, राज्य का राज्यपाल, राष्ट्रपति की सहमति से अपने राज्य के आधिकारिक उद्देश्य के लिए इस्तेमाल की जाने वाली हिंदी या अन्य भाषा के उपयोग को हाइकोर्ट की कार्यवाही के लिए अधिकृत कर सकता है.

राजभाषा अधिनियम, 1963 भी ऐसी ही बात करता है. इस कानून की धारा-7 में प्रावधान है कि अंग्रेजी भाषा के अलावा किसी राज्य की हिंदी या आधिकारिक भाषा के उपयोग को राज्य के राज्यपाल द्वारा भारत के राष्ट्रपति की सहमति से अधिकृत किया जा सकता है. इसी प्रावधान के तहत राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार के उच्च न्यायालयों में कार्यवाही, निर्णय और आदेश के लिए हिंदी के उपयोग को भी अधिकृत किया गया है. बाद में बने झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड के हाइकोर्ट के लिए भी हिंदी अधिकृत है.

सशक्तीकरण की अवधारणा के चलते अब समाज के तमाम वर्गों में चेतना बढ़ी है. सोशल मीडिया की नकारात्मकता को परे रख दें, तो उसने भी लोक को चेतन और अपने अधिकारों के प्रति जागरूक बनाने में योगदान दिया है. यही वजह है कि उच्च न्यायपालिका में अंग्रेजी की अनिवार्यता पर कभी प्रत्यक्ष तो कभी परोक्ष सवाल उठते हैं. इसका भान राजनीति को भी है और राष्ट्रपति को भी.

शायद यही वजह है कि इलाहाबाद हाइकोर्ट के एक कार्यक्रम में सितंबर 2021 में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने कहा था, ‘सभी को समय से न्याय मिले, न्याय व्यवस्था कम खर्चीली हो, सामान्य आदमी की समझ में आने वाली भाषा में निर्णय लेने की व्यवस्था हो और खास कर महिलाओं और कमजोर वर्ग के लोगों को न्याय मिले, यह हम सबकी जिम्मेदारी है.’

राष्ट्रपति सामान्य आदमी की समझ में आने वाली भाषा की बात कर रहे हैं, तो प्रधान न्यायाधीश जिसे मंत्रोच्चार कह रहे हैं. प्रकारांतर से दोनों न्याय तंत्र में भारतीय भाषाओं के प्रवेश की ही वकालत कर रहे हैं. दोनों ही उदाहरण न्यायतंत्र में लोक की पहुंच के प्रति सकारात्मक नजरिये का ही प्रतीक हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि इस नजरिये के नतीजे न्याय के आकांक्षी विशाल आमजन को सशक्त बनायेंगे.

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