अयोध्या की दीपावली की बात ही कुछ और है

घी के दीयों वाले रूपकों में खोये कई महानुभाव चतुर्दिक भव्यता तलाशने लग जाते हैं और इस सादगी के सौंदर्य का दीदार ही नहीं कर पाते. यह समझने के लिए तो वैसे भी शौक-ए-दीदार चाहिए कि अयोध्या के हजारों मंदिरों के गर्भगृहों में मिट्टी के बने दीये ही क्यों जलाये जाते हैं

By कृष्ण प्रताप | November 10, 2023 9:45 AM
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दीपावली अपने मूल रूप में न सिर्फ किसानों के घर नयी फसल आने के उल्लास का पर्याय है, बल्कि सिद्धि व समृद्धि के पांच पर्वों का अनूठा गुच्छा भी है. तिस पर अयोध्या की बात करें (जिसके निवासियों ने कभी लंका पर विजय प्राप्त कर लौटे अपने आराध्य राम की अगवानी में घी के दीये जलाकर इसे मनाये जाने की परंपरा डाली), तो जैसे उसकी होली के रंग वैसे ही दीपावली के उजाले भी निराले हैं. अलबत्ता, इस निरालेपन को देखने के लिए इस सत्य से साक्षात्कार जरूरी है कि अपने अब तक के ज्ञात इतिहास में अयोध्या देश के अन्य अंचलों के अलावा अवध, बिहार और झारखंड के सदियों से गरीबी व गैर-बराबरी से अभिशापित तबकों के धर्म-कर्म की नगरी भी रही है. इसीलिए, उसकी परंपरागत दीपावली में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो दीन-दुखियों की वंचनाओं का तिरस्कार करता या उन्हें चिढ़ाता और वैभव या भव्यता का अभिषेक करता नजर आये.

उसकी दीपमालिकाओं का सौंदर्य भी उनकी जगर-मगर में कम, सादगी में अधिक दिखाई देता है और घोषणा-सा करता रहता है कि उसका दीपावली मनाकर भगवान राम की अगवानी करना प्रजा के तौर पर उनके सामने बिछ जाना भर नहीं है. पर यहां एक पेंच है. घी के दीयों वाले रूपकों में खोये कई महानुभाव चतुर्दिक भव्यता तलाशने लग जाते हैं और इस सादगी के सौंदर्य का दीदार ही नहीं कर पाते. यह समझने के लिए तो वैसे भी शौक-ए-दीदार चाहिए कि अयोध्या के हजारों मंदिरों के गर्भगृहों में मिट्टी के बने दीये ही क्यों जलाये जाते हैं और क्यों आम लोग ये दीये जलाने भी उनके गर्भगृहों में नहीं जा सकते?

दरअसल, गर्भगृहों में पहले मुख्य पुजारी अपने आराध्यों को नहला-धुलाकर नयी पोशाकें पहनाते, सजाते-धजाते और पूजा-अर्चना करके दीये जलाते हैं, उनके बाहर साधु-संत. मंदिरों की दीपावली में पुजारियों और साधु-संतों द्वारा आरोपित बंदिश की परंपरा जैसे ही बाहर गृहस्थ समाजों में पहुंचती है, अपना अर्थ खो देती है. वहां दीये जलाये कम, दान अधिक किये जाते हैं और इस दीपदान में किसी भी स्तर पर कोई भेदभाव नहीं बरता जाता. कोई न कोई दीया उस घूर गड्ढे के नाम भी किया जाता है, जिसमें वर्षभर घर-गृहस्थी के उच्छिष्टों और ढोरों के गोबर आदि को सड़ाया जाता है.

अयोध्या में इस मुकाम तक पहुंचकर दीपावली किसी को भी अंधेरे में न रहने देने और हर किसी को उजाले से नहलाने के नाम हो जाती रही है. इसलिए खेत-खलिहानों, कोठारों, हलों-जुआठों के साथ गायों-बैलों के बांधे जाने की जगहों, खूंटों, सानी-पानी की नांदों और चरनियों पर भी दीपदान किये जाते रहे हैं. बुजर्गों की मानें, तो इन सर्वसमावेशी दीपदानों में जगर-मगर की अति की कतई कोई जगह नहीं होती थी. तब बच्चे कुम्हारों के बनाये खिलौनों से खेलते थे. बड़ों द्वारा अपने घरों के बाहर सुदर्शन घरौंदे बनाये जाते थे. दरअसल, गोस्वामी तुलसीदास ने अपने वक्त की अयोध्या और उसके आसपास के क्षेत्रों के जिन जीविकाविहीन लोगों की बेबसी को ‘बारे ते ललात बिललात द्वार-द्वार दीन, जानत हौं चारि फल चार ही चनक को’ जैसे शब्दों में अभिव्यक्त किया और तफसील से बताया है कि वे कैसे अपनी दीपावली को भव्यता की गोद में ले ही नहीं जा सकते थे.

इसलिए उन्होंने सादगी और समतल का वह रास्ता चुना था, जो बिना हर्रै और फिटकरी के उनकी दीपावली का रंग चोखा कर सके. कभी गरीबी की जाई यातनाओं, तो कभी जमींदारों व सामंतों के अत्याचारों के कारण अनेक लोग अपने रहने की जगहों से भागकर अयोध्या आते और साधु बन जाते रहे हैं. यह साधु बन जाना तब उनके निकट धर्मसत्ता द्वारा प्रदान की जाने वाली सामाजिक सुरक्षा का वायस हुआ करता था. तब से अब तक अयोध्या में इस लिहाज से कुछ नहीं बदला है कि वह उन दिनों भी बिहार व झारखंड के दलित-पिछड़े, पीड़ित व वंचित धर्मानुयायियों का ही ठौर हुआ करती थी और आज भी है. अवध के उन गरीब धर्मप्राणजनों का भी, जो अपनी गरीबी के कारण गया-जगन्नाथ या गंगासागर की यात्रा के सपने पूरे नहीं कर सकते. भूख से विकल अनेक लोगों के निकट अयोध्या आकर साधु बन जाने पर पेट की आग बुझने से हासिल होने वाला संतोष अभी भी कुछ कम उजला नहीं होता. इतना उजला होता है कि मान्यता हो गयी है कि भगवान राम की अनुकंपा से अयोध्या में कोई भी भूखा नहीं सोता.

भोले-भाले ग्रामीणों के साथ ज्यादातर संभ्रांत नागरिकों की आकांक्षाएं भी तब इतनी ही हुआ करती थीं कि साईं इतना दीजिए जामे कुटुम समाय. उन्हें इससे आगे किसी महंगे भोग-विलास की अभिलाषा आमतौर पर नहीं ही सताती थी. दरअसल, वह ऐसे ‘संतोष-धन’ का वक्त था, जिसमें धर्मप्राण प्रजाजन अपनी सारी चिंताएं उन राम के हवाले करके चैन पा लेते थे, जिनके लिए कभी उनके पुरखों ने घी के दीये जलाये थे. उनके निकट वे उन जैसे सारे निर्बलों के बल थे. आइए, मनायें कि आगे भी वे निर्बलों का बल ही बने रहें.

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