गंभीर अपराधों में न मिले जमानत
पुलिस को सरकार से थोड़ा अलग होकर काम करना चाहिए, वरना पुलिस उनके हाथ का एक प्रकार से मोहरा बन जाती है. राजनीतिक ताकत से मामलों को प्रभावित करने की कोशिश की जाती है, जिससे समस्या सुलझने के बजाय और गंभीर होती जाती है.
संजय पारिख, वरिष्ठ अधिवक्ता, सर्वोच्च न्यायालय
delhi@prabhatkhabar.in
किसी गंभीर मामले में जमानत देने से पहले कोर्ट उसके विविध पक्षों पर बारीकी से विचार करता है. वह देखता है कि कहीं इससे समाज में कोई भय तो नहीं है. उस व्यक्ति के खिलाफ दर्ज मामले की वजह क्या है. ऐसे तमाम बिंदुओं पर विचार किया जाता है. अगर किसी आरोपी के खिलाफ कई सारे मामले दर्ज हैं या ऐसा प्रतीत होता है कि वह व्यक्ति भाग जायेगा या कोर्ट को लगता है कि वह गवाहों को तोड़ने की कोशिश करेगा, तो ऐसे मामलों में आरोपी की जमानत नहीं होती है. जहां तक विकास दुबे जैसे मामलों की बात है कि उसमें मालूम नहीं है कि पुलिस ने उस मामले को किस तरह से कोर्ट में पेश किया.
वकील की तरफ से क्या कहा गया. अगर उसकी खिलाफत की जाती, तो आरोपी की जमानत ही नहीं होती. यह भी नहीं मालूम है कि नीचे के कोर्ट से जमानत हो गयी, तो वह किस आधार पर की गयी और उसे आगे कैसे प्रस्तुत किया गया. इससे स्पष्ट है कि सरकार की कहीं न कहीं खामी रही है, जिससे ऐसे मामलों में प्रभावी कार्रवाई नहीं हो पायी. जहां पर सरकार को किसी के जमानत का विरोध करना होता है, तो वह सुप्रीम कोर्ट तक आकर यह बात करती है कि नहीं, संबंधित व्यक्ति को जमानत पर नहीं छोड़ना चाहिए. यह जिम्मेदारी स्टेट की थी, जिसे उसने सही तरीके से पूरी नहीं की.
गंभीर आपराधिक मामलों में जमानत नहीं मिलनी चाहिए. अगर किसी अपराधी को जमानत मिल गयी, तो जिस ट्रायल कोर्ट ने इस मामले में जमानत दी, उसकी कार्यवाही पर भी प्रश्नचिह्न लगना चाहिए. उच्च न्यायालय या वहां संबंधित सुपरिंटेडेंट जिसे यह शक्ति प्राप्त होती है, उसे इस विषय में प्रश्न पूछना चाहिए कि इस मामले में जमानत किस आधार पर दी गयी. वहां से न्यायालय और ट्रायल कोर्ट की जिम्मेदारी बनती है कि ऐसे मामलों में जमानत न दी जाये.
सबसे बड़ी जिम्मेदारी राज्य की बनती है कि वह इस मामले को कोर्ट में किस तरह से ले जाता है. दूसरी बात, अगर जमानत हो गयी, तो उन्होंने मामले की निगरानी क्यों नहीं की. प्रोसिक्यूशन ने विरोध करने के लिए ऐसे कौन से कागजात पेश किये थे. अगर उन्होंने कोई विरोध ही नहीं किया, तो साबित हो जायेगा कि अपराधी का कहीं न कहीं प्रभाव अधिक है.
ऐसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने अभी निर्देश नहीं दिया है. बड़ी याचिका में उसका फैसला अभी आना बाकी है. हाल-फिलहाल में तीन-चार लोगों की एनकाउंटर में मौत हुई है. वह मामला चर्चा में है. हालांकि, उससे पहले एनकाउंटर में होनेवाली मौतों के 100 से अधिक मामले हैं. वर्ष 2017 से एनकाउंटर के कई मामले सामने हैं, जिन पर अभी सुनवाई होनी है. इस मामलों को आगे बढ़ाये जाने के बाद स्थिति कुछ स्पष्ट हो जायेगी. यह भी नहीं कोई दावा कर सकता है कि स्थिति बदलेगी भी या नहीं.
अगर सर्वोच्च न्यायालय इस बात का संज्ञान लेता है कि राज्यों में होनेवाले अपराधों से सरकारें किस प्रकार निपट रही हैं, तो उस पर निर्देश जारी कर सकता है. क्योंकि शक्ति से निपटने और पुलिस की प्रभावी कार्रवाई से निपटने, दोनों ही अलग-अलग तरह की बातें हैं. एनकाउंटर करना तो बिल्कुल अलग तरह की बात है. पुलिस को सरकार से थोड़ा अलग होकर काम करना चाहिए, वरना पुलिस उनके हाथ का एक प्रकार से मोहरा बन जाती है.
राजनीतिक ताकत से मामलों को प्रभावित करने की कोशिश की जाती है, जिससे समस्या सुलझने के बजाय और गंभीर होती जाती है. इसीलिए, वर्षों से पुलिस सुधार की बात की जा रही है. सुधार की अभी बहुत जरूरत है. सुप्रीम कोर्ट पुलिस रिफॉर्म की बात करता है. कोर्ट पुलिस को निर्देश देता है कि एनकाउंटर के मामलों में किस तरह से कार्रवाई की जायेगी. अगर पुलिस ने बचाव के अधिकार का इस्तेमाल करके अपराधी को मारा है, तो उस पर भी कोर्ट संज्ञान लेता है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा ऐसे मामलों के लिए बाकायदा दिशा-निर्देश तय किये गये हैं. पुलिस इन निर्देशों का उल्लंघन नहीं कर सकती है.
उत्तर प्रदेश की बात करें, तो वहां कानून-व्यवस्था की स्थिति ठीक नहीं है, क्योंकि लॉ एंड ऑर्डर का मतलब होता है- कानून के हिसाब से आप सख्ती रखें, यह नहीं कि शांति बनाने के लिए आपको जहां लगे कि यह व्यक्ति अशांति फैला सकता है, उसे बिना ट्रायल के ही निपटा दें. यह कोई राज्य नहीं कर सकता. यह कानून और व्यवस्था दोनों के खिलाफ है. अगर सुप्रीम कोर्ट इस मामले में सख्ती से कार्यवाही करता है, तो तय है कि चीजें पहले से जरूर सुधरेंगी.
विकास दुबे मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कागजात तलब किये हैं. अब उसे देखने के बाद यह स्पष्ट हो पायेगा कि गलती किसकी है. यहां आप बिना देखें गलती स्टेट की बता सकते हैं. अगर वह दुर्दांत अपराधी था कि इन लोगों को उसके जमानत के खिलाफ अर्जी देनी चाहिए थी. इस तरह के मामलों से निपटने के लिए, जहां-जहां अपराधी जमानत पर छूट गये हैं, वहां संज्ञान लेते हुए सरकार को अलग-अलग अदालतों में उनकी जमानत के खिलाफ में अर्जी देनी पड़ेगी. ऐसे मामलों में किसी भी प्रकार की लापरवाही समाज और सरकार दोनों के लिए गंभीर रूप से चिंताजनक हो सकती है.
(बातचीत पर आधारित)