मेडिकल शिक्षा में प्रवेश पाने से लेकर भारी-भरकम फीस अदायगी तक अनेक बाधाएं हैं. अत्यधिक फीस के चलते बड़ी संख्या में छात्र निजी कॉलेजों की मेडिकल सीटों पर प्रवेश पाने से वंचित रह जाते हैं. निजी कॉलेजों द्वारा कैपिटेशन फीस वसूली को रोकने की कवायद दशकों से हो रही है, फिर भी यह चलन बना हुआ है. अनेक राज्यों में निजी कॉलेजों द्वारा कैपिटेशन फीस और मनमानी वसूली रोकने के लिए आवश्यक प्रावधान तो हैं, लेकिन उनका कोई प्रत्यक्ष असर नहीं दिखता. इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के हालिया निर्देश काबिले गौर हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने कॉलेजों की अवैध मांगों को रोकने हेतु एक पोर्टल बनाने का निर्देश दिया है, जो इलेक्ट्रॉनिक्स एवं आइटी मंत्रालय के अधीन नेशनल इन्फॉरमेटिक्स (एनआइसी) के नियमन में संचालित होगा. पोर्टल पर व्यक्तिगत गोपनीयता सुनिश्चित करने के साथ-साथ फीस के नाम पर धन उगाही की शिकायत दर्ज करायी जा सकेगी. मनमानी फीस वसूली पर रोक के लिए कर्नाटक, तमिलनाडु, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश आदि राज्यों में व्यवस्था बनायी गयी है, अब उसी के तहत ऐसे मामलों को अपराध माना जायेगा.
जस्टिस एल नागेश्वर राव और बीआर गवई की खंडपीठ ने कहा है कि राज्य सरकारों ने कैपिटेशन फीस वसूली को रोकने और उसे अपराध घोषित करने के लिए कानून तो बनाये हैं, फिर भी मेडिकल कॉलेजों में यह व्यवस्था बरकरार है. हालांकि, ऐसे राज्यों ने इस संबंध में शिकायत मिलने से इनकार किया है. सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में शिकायती पोर्टल की व्यवस्था बनने से लोगों का विश्वास बढ़ेगा. निजी मेडिकल कॉलेजों द्वारा अतिरिक्त फीस लेने से जुड़ी जानकारी भी लोगों को उपलब्ध हो सकेगी.
कॉलेजों के प्रबंधन को नकदी में फीस भुगतान स्वीकार करने से भी रोका गया है. निर्धारण समिति द्वारा तय सीमा से अधिक फीस वसूलने पर छात्र वेब पोर्टल पर शिकायत कर सकेंगे. प्रवेश प्रक्रिया के दौरान रिक्त हुई सीटों पर प्रवेश के लिए अनुशंसित छात्रों के नाम नीट परीक्षा में आवंटित रैंक के साथ सार्वजनिक करना होगा. इससे स्पष्ट होगा कि प्रवेश मेरिट के आधार पर हुआ है. बीते दो दशकों में कई बार अदालत की तरफ से निर्देश दिये गये कि वे कैपिटेशन शुल्क के लिए एक व्यवस्था बनाएं, ताकि कॉलेज मुनाफाखोरी का अड्डा न बनें.
पीए ईनामदार बनाम महाराष्ट्र राज्य (2005) मामले में सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि कैपिटेशन फीस का भुगतान कर किसी भी सीट को विनियोजित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती. इससे स्पष्ट है कि शिक्षा के वाणिज्यीकरण की कड़वी सच्चाई से अदालत अपनी आंखें नहीं बंद कर सकती. यह सुनिश्चित हो कि शिक्षा का सिद्धांत ‘लाभ के लिए’ नहीं है. हालांकि, शिक्षण संस्थान की संचालन लागत और अन्य खर्च को फीस में शामिल करना चाहिए. लेकिन, अत्यधिक खर्चों को इसमें शामिल करने या लाभ अर्जित करने की अनुमति नहीं होनी चाहिए, यह सिद्धांत के बिल्कुल खिलाफ है.