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मीडिया पर रोक अनुचित

किसी खबर के प्रकाशन पर रोक लगाने से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा जनता के जानने के अधिकार पर गंभीर प्रभाव पड़ता है.

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि अदालतों द्वारा किसी खबर के प्रकाशन पर रोक लगाने से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा जनता के जानने के अधिकार पर गंभीर प्रभाव पड़ता है. मीडिया संस्थानों का पक्ष सुने बिना या उनकी गैर-मौजूदगी में तो ऐसा बिल्कुल नहीं होना चाहिए. देश की प्रमुख अदालत ने यह भी कहा है कि विशेष मामलों में ही खबरों को छापने से रोका जाना चाहिए, अन्यथा सुनवाई के पूरे होने के बाद ऐसे फैसले किये जाने चाहिए. अदालत ने इन निर्देशों के साथ निचली अदालत के एक फैसले को निरस्त कर दिया, जिसे दिल्ली उच्च न्यायालय ने सही ठहराया था. इस प्रकरण में जी एंटरटेनमेंट कंपनी ने अंतरराष्ट्रीय मीडिया संस्थान ब्लूमबर्ग में छपे एक लेख को कथित तौर पर मानहानि बताते हुए उसे हटाने की अपील की थी. बड़ी कंपनियों द्वारा अखबारों, वेबसाइटों और पत्रिकाओं तथा सिविल सोसायटी समूहों पर आये दिन मानहानि करने का आरोप लगाकर मुकदमे किये जाते हैं या कानूनी कार्रवाई करने की चेतावनी देते हुए नोटिस भेजे जाते हैं. इस चलन पर भी सर्वोच्च न्यायालय ने चिंता जतायी है.

प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली तीन न्यायाधीशों की खंडपीठ ने रेखांकित किया कि अकूत संपत्ति और प्रभाव वाली कंपनियां ऐसे मुकदमों का रणनीतिक इस्तेमाल कर लोगों को जानने या जनहित के मामलों में भागीदारी करने से रोकना चाहती हैं. इस तरह के मुकदमों को लटकाया भी जाता है. अदालत ने बहुत लंबे समय तक लंबित मुकदमों की समस्या को रेखांकित करते हुए कहा कि मुकदमे की सुनवाई शुरू होने से पहले ही किसी लेख या खबर को हटाने का आदेश आरोपों को साबित होने से पहले ‘मौत की सजा’ देने जैसा है. खंडपीठ ने जजों को आगाह किया है कि मानहानि के मुकदमों में सुनवाई पूरी होने से पहले इस तरह का फैसला देना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जन भागीदारी को चोट पहुंचाना है. यह भी आम चलन बन गया है कि बड़ी कंपनियां मीडिया संस्थानों पर उनके मुख्यालय या कार्यस्थल से कहीं दूर किसी अन्य राज्य में मुकदमा दायर करती हैं. ऐसा भी होता है कि निचली अदालतें इन ताकतों के दबाव में आ जाती हैं. विभिन्न सरकारों द्वारा भी खबर दबाने या पत्रकारों पर झूठे मुकदमे की कोशिशें होती हैं. यदि किसी कंपनी या सरकार को प्रकाशित खबर से समस्या है, तो वह अपना पक्ष रख सकती है या दायर मुकदमे की सुनवाई पूरी होने का इंतजार कर सकती है. मीडिया पर शिकंजा कसना लोकतांत्रिक मूल्यों और संवैधानिक आदर्शों के विरुद्ध है. उम्मीद है कि देशभर की अदालतें सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश का समुचित अनुपालन करेंगी.

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