बांग्लादेश में संकट के पीछे कई ताकतें

Bangladesh Crisis : बांग्लादेश उर्दू थोपने के विरोध में बंगाली होने के अपने धर्मनिरपेक्ष और सांस्कृतिक पहचान के आधार पर पाकिस्तान से अलग हुआ था. बांग्लादेश स्वाधीनता संग्राम के नेता और देश के पहले राष्ट्रपिता शेख मुजीबुर्रहमान की पाकिस्तान-समर्थक इस्लामिक कट्टरपंथियों द्वारा हत्या के बाद वहां यह बहस केंद्र में आ गयी कि बांग्लादेश पहले बंगाली है या इस्लामिक.

By प्रो शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित | August 12, 2024 7:05 AM

Bangladesh Crisis : बांग्लादेश का हालिया संकट बाहरी हस्तक्षेप तथा चुनाव जीतने एवं लोकतांत्रिक बदलाव लाने में असफल रहे उसके आंतरिक सहयोगियों की भूमिका को इंगित करता है. अवामी लीग सरकार के नाटकीय पतन तथा शेख हसीना के देश छोड़ने से इस क्षेत्र में उथल-पुथल के लगातार जोखिम तथा बाहरी दखल और अंदुरुनी गड़बड़ी के खतरे का भी पता चलता है. क्या सड़क पर भीड़ और छात्रों के प्रदर्शन बिना बाहरी समर्थन के हो रहे हैं?

अमेरिका, चीन और यूरोपीय संघ जैसे ताकतवर दानदाता स्वतंत्र एवं लोकतांत्रिक नेतृत्व को पसंद नहीं करते हैं. उनकी तानाशाहों से खूब बनती है और वे अपने हितों को साधने के लिए धार्मिक अतिवाद, यहां तक कि आतंकियों को भी समर्थन देने के लिए तैयार रहते हैं. बांग्लादेश उर्दू थोपने के विरोध में बंगाली होने के अपने धर्मनिरपेक्ष और सांस्कृतिक पहचान के आधार पर पाकिस्तान से अलग हुआ था. बांग्लादेश स्वाधीनता संग्राम के नेता और देश के पहले राष्ट्रपिता शेख मुजीबुर्रहमान की पाकिस्तान-समर्थक इस्लामिक कट्टरपंथियों द्वारा हत्या के बाद वहां यह बहस केंद्र में आ गयी कि बांग्लादेश पहले बंगाली है या इस्लामिक.


अमेरिकी पत्रकार और अकादमिक गैरी जे बास की किताब ‘द ब्लड टेलीग्राम: निक्सन, किसिंजर, एंड ए फॉरगॉटन जेनोसाइड’ (2013) ढाका में तत्कालीन अमेरिकी वाणिज्य राजदूत आर्चर ब्लड द्वारा 1971 में भेजे गये एक टेलीग्राम पर आधारित है. उसमें बांग्लादेश जनसंहार पर अमेरिकी विदेश विभाग के रवैये पर असंतोष व्यक्त करते हुए लिखा गया था कि अमेरिकी सरकार लोकतंत्र के हनन और भयंकर दमन की निंदा करने में विफल रही, जिसे कई लोग नैतिक दिवालियापन मानेंगे. यह तार आज भी प्रासंगिक है.

अंतरराष्ट्रीय दानी एनजीओ की भूमिका पर संदेह स्वाभाविक है. जिस गठजोड़- पाकिस्तान का आइएसआइ, अमेरिका और चीन- पर 1971 के जनसंहार का दोष था, इस बार उसी पर शक हो रहा है. पाकिस्तानी सेना ने 25 मार्च, 1971 को पूर्वी पाकिस्तान में व्यापक दमन के साथ हिंदू और बंगाली विरोधी बांग्लादेश जनसंहार की शुरुआत की थी. अमेरिकी वाणिज्य दूतावास के लोग हिंसा को देखकर अचंभित रह गये थे और उन्होंने अमेरिकी सरकार से हस्तक्षेप करने का निवेदन किया. आर्चर ब्लड ने बाद में अपनी सरकार की प्रतिक्रिया को ‘भयावह चुप्पी’ की संज्ञा दी थी. उसके बाद ही रोष जताते हुए वह तार भेजा गया था. तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया क्योंकि वे चीन से कूटनीतिक संबंध बहाल करने के लिए पाकिस्तान की मदद लेने की कोशिश कर रहे थे.


विभिन्न मुद्दों, जो कई देशों में भी हैं, पर आंतरिक झंझट बांग्लादेश में शीघ्र ही बहुत ही उग्र और हिंसक हो गया, इसे देखते हुए बाहरी- सरकारी और गैर-सरकारी दोनों- हस्तक्षेप को लेकर चिंता स्वाभाविक है. अधिकतर विश्लेषण में सामान्य तर्क ही दिये जा रहे हैं और अक्सर विदेशी मिलीभगत की संभावना को परे रख दिया जा रहा है. लेकिन, जैसा कि भारतीय विदेश मंत्री डॉ एस जयशंकर ने उचित ही कहा है, किसी भी आयाम को मानना या नहीं मानना अभी जल्दबाजी होगी. कुछ रिपोर्टों में यह संकेत दिया जा रहा है कि चीन, अमेरिका या पाकिस्तान जैसे सरकारी कारकों की भूमिका हो सकती है. इसके साथ-साथ इस्लामिक आतंकी समूहों और अपने तरह के ‘लोकतंत्र’ को बढ़ावा देने वाले अंतरराष्ट्रीय संगठनों जैसे दूसरे तत्वों की भूमिका पर भी विचार करना जरूरी है.

ऐसी रिपोर्टों को इस्लाम विरोधी या अनुदार कहकर खारिज करना उसी तरह खतरनाक हो सकता है, जैसे बिल्ली को देखकर कबूतर इस उम्मीद में आंख बंद कर लेता है कि खतरा अपने-आप टल जायेगा. कुछ खबरों में पिनाकी भट्टाचार्य द्वारा हाल के महीनों में भारत विरोधी भावनाएं भड़काने के बारे में बताया गया है. इस व्यक्ति पर तबलीगी जमात का प्रभाव है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘पड़ोसी प्रथम’ की पहल अच्छा पड़ोस बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है. इसका प्रारंभ तब हुआ था, जब दक्षिण एशियाई के नेताओं को 2014 में प्रधानमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में आमंत्रित किया गया था. क्षेत्रीय संबंध केवल भारत के प्रयासों पर निर्भर नहीं कर सकते क्योंकि पड़ोसी देशों के घरेलू कारक भी अहम भूमिका निभाते हैं. ‘इंडिया आउट’ का एक चिंताजनक प्रचार चल पड़ा है, जिसे भारत के विरोधी संसाधन देते हैं.


बांग्लादेश के हिंदू अल्पसंख्यक अब उस कड़वी सच्चाई का सामना कर रहे हैं कि कथित ‘शांतिपूर्ण संक्रमण’ या ‘जनता की जीत’ का मामला बहुत जटिल है. पड़ोसी देशों के धार्मिक अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने के लाये गये नागरिकता संशोधन अधिनियम की वैश्विक आलोचना हालिया घटनाओं को देखते हुए अदूरदर्शी साबित हुई है. अब वे आलोचक चुप हैं क्योंकि ऐसी नीतिगत पहलों की दूरदर्शिता स्पष्ट दिख रही है. बांग्लादेश के मसले के पीछे हिंदू विरोध है या भारत को कमजोर करने की सोची-समझी रणनीति, इसे रेखांकित कर पाना कठिन है. पर यह तो स्पष्ट है भारत का आर्थिक, राजनीतिक और भू-राजनीतिक विकास इस क्षेत्र के साथ ठोस संबंधों पर निर्भर करेगा.

भारत के सामने अजीब स्थिति है- क्या उसे अपने पड़ोसियों के साथ गहरा जुड़ाव स्थापित करना चाहिए ताकि बांग्लादेश जैसी स्थिति पैदा न हो या फिर उसे दूर रहना चाहिए और उन देशों को अपने मसले स्वयं सुलझाने देना चाहिए? इन दोनों विकल्पों में खतरे भी बहुत हैं. गहरे जुड़ाव को ‘बिग ब्रदर’ के हस्तक्षेप के रूप में देखा जा सकता है, जिससे भारत विरोधी भावनाएं बढ़ सकती हैं. दूसरी तरफ, किनारे खड़े रहने से प्रभाव कम हो सकता है, भारत के लिए भी जोखिम बढ़ सकता है और अलग-थलग पड़ने का खतरा भी है.


कहा जा रहा है कि रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने बांग्लादेश के बारे में पिछले साल प्रधानमंत्री मोदी को आगाह किया था. दिसंबर, 2023 में रूसी विदेशी मंत्रालय की प्रवक्ता मारिया जखारोवा ने कहा था कि अगर शेख हसीना चुनाव के बाद सत्ता में आती हैं, तो अमेरिका उनकी सरकार गिराने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है. उनके कहने का अर्थ यह था कि कुछ साल पहले अरब देशों में हुए प्रदर्शनों की तरह बांग्लादेश में भी स्थिति पैदा की जा सकती है. तब छात्रों का ही इस्तेमाल किया गया था.
(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)

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