राष्ट्रीय स्वाभिमान से कभी समझौता नहीं किया बंकिम ने

बंकिम के सभी भारतीय भाषाओं के शीर्षस्थ उपन्यासकार बनने और प्रसिद्धि का शिखर छूने की कथा भी कुछ कम दिलचस्प नहीं है.

By कृष्ण प्रताप सिंह | June 26, 2024 10:25 AM
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वर्ष 1838 में 26 जून को पश्चिम बंगाल के उत्तरी चौबीस परगना जिले के कांठलपाड़ा गांव के एक समृद्ध बंगाली परिवार में दुर्गादेवी व यादवचंद्र की सबसे छोटी संतान के रूप में जन्मे बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय को आम तौर पर उनके अमर गीत ‘वंदेमातरम’ के लिए जाना जाता है. इस गीत को न केवल हमारे राष्ट्रीय गान का गौरव प्राप्त है, बल्कि स्वतंत्रता की लड़ाई के दौरान क्रांतिकारियों ने इसका उद्घोष करते हुए स्वतंत्रता की वेदी पर अपने प्राणों की बलि भी दी है.

बंकिम के सभी भारतीय भाषाओं के शीर्षस्थ उपन्यासकार बनने और प्रसिद्धि का शिखर छूने की कथा भी कुछ कम दिलचस्प नहीं है. न उनकी कवि प्रतिभा कुछ कम विलक्षण है, न उनके द्वारा निजी व साहित्यिक जीवन में निभायी गयी ईमानदारी व खुद्दारी. मेदिनीपुर में शुरुआती स्कूली शिक्षा के बाद उन्होंने हुगली के मोहसिन कॉलेज और उसके बाद कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में पढ़ाई की तथा 1857 में इसी कालेज से बीए करने वाले पहले भारतीय बने. वर्ष 1869 में उन्होंने कानून की डिग्री और डिप्टी मजिस्ट्रेट पद पर नियुक्ति पायी. कुछ वर्ष तत्कालीन बंगाल सरकार में सचिव के पद पर भी काम किया. उस दौर में अधिकांश बड़े सरकारी पदों पर अंग्रेज ही नियुक्त होते थे और स्वाभिमानी बंकिम का उनसे प्रायः टकराव हो जाता था.

वे कोलकाता में कार्यरत थे, तो एक दिन ऐतिहासिक ईडन गार्डन में अंग्रेज कमिश्नर मिनरो अचानक उनसे टकरा गया. वे उसे नजरअंदाज कर आगे बढ़ गये, तो उसने इसे उनकी गुस्ताखी समझ न केवल उनका तबादला करा दिया, पदोन्नति की राह भी रोक दी. वर्ष 1891 में सेवानिवृत्त होने तक उन्होंने इस नौकरी में और भी बहुत कुछ झेला. परंतु वे उन सब को लेकर नहीं, इसे लेकर दुखी रहते थे कि यह नौकरी जब तक रही, उनके स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय होने के रास्ते में बड़ी बाधा बनी रही.

नौकरी के दौरान उन्होंने अपने राष्ट्रीय स्वाभिमान व स्वभाषा प्रेम से कभी समझौता नहीं किया. जब वे युवक ही थे, उनके एक मित्र ने उन्हें अंग्रेजी में पत्र भेजा तो उन्होंने पत्र पढ़ा ही नहीं. यह लिखकर लौटा दिया कि अंग्रेजी न तुम्हारी मातृभाषा है, न मेरी. उन्होंने अपने उपन्यासों में तो गोरे सत्ताधीशों पर तीखे व्यंग्य बाण चलाये ही, 1872 में ‘बंग दर्शन नामक मासिक पत्रिका प्रकाशित की, तब भी वही आलोचनात्मक रवैया बरकरार रखा. खुद्दारी तो उनके व्यक्तित्व में छुटपन से ही भरी थी. इसके चलते एक बार उन्होंने तय कर लिया कि अपने स्कूल की फीस और पुस्तकों की कीमत की अदायगी अपनी मेहनत की कमाई से ही भरेंगे, तो स्कूल टाइम के बाद एक माली के यहां सिंचाई के काम में उसका हाथ बंटाने लगे. स्कूल के प्रधानाध्यापक को जब पता चला तो उन्होंने पूछा कि यदि उन्हें पैसों की इतनी ही दिक्कत है तो वे फीस माफ करने की अर्जी क्यों नहीं देते? उनका उत्तर था, ‘जब मैं अपनी मेहनत से पैसे जुटा सकता हूं, तो फीस माफ क्यों करवाऊं?’

वे बर्दवान (वर्धमान) में मजिस्ट्रेट थे तो उनके सामने एक ऐसा मामला आया जिसमें कलकत्ता (कोलकाता) में अपने बीमार बेटे के पास जा रहे एक गरीब को सिपाही द्वारा यह कहकर पकड़ लाया गया था कि उसने रास्ते में रात को जहां आश्रय लिया, वहां किसी का संदूक लेकर भागने की कोशिश की. जबकि सच्चाई इसके विपरीत थी, क्योंकि गरीब ने सिपाही को संदूक लेकर भागते देखा तो उसका पीछा कर लिया था. अपनी पोल खुलने से डरे सिपाही ने पहले तो उसे संदूक से जो कुछ निकले, उसमें से आधा देने का प्रस्ताव किया, फिर उसके राजी न होने पर उसे जकड़ लिया. अनंतर, शोर मचाकर ग्रामीणों को बुलाया और उनके सामने उसे ही चोर ठहरा दिया. बंकिम को इसका पता चला तो उन्होंने निरपराध गरीब को बचाने की जुगत शुरू की. मामले की सुनवाई के वक्त उसके साथ सिपाही को भी आदेश दिया कि वे तीन कोस की दूरी पर मार डाले गये एक व्यक्ति का बंधा हुआ शव अपने कंधों पर ढोकर कोर्ट तक ले आएं. हट्टे-कट्टे सिपाही को तो कोई समस्या नहीं हुई, परंतु निर्बल गरीब शव के बोझ से थक कर रोने लगा. सिपाही ने कहा कि अब रोते क्यों हो? जब कह रहा था कि संदूक का माल मिल-बांटकर हजम कर लिया जाए, तो तुम्हें ईमानदारी का भूत सवार था. अब वह तुम्हारे जेल की रोटी तोड़ने पर ही उतरेगा.’ पर जैसे ही दोनों कोर्ट पहुंचे और शव को अपने कंधों से उतारा, बंकिम ने बिना देर किये उसके बंधन खुलवाये, फिर कहा कि वह खड़े होकर अपनी गवाही दे. दरअसल, उन्होंने सारा नाटक सच्चाई के पक्ष में सबूत जुटाने के लिए रचा था, जिसमें उनका एक विश्वासपात्र व्यक्ति शव की भूमिका निभा रहा था.

बंकिम के साथ नियति ने बड़ी नासइंसाफी की. उन्हें सिर्फ 55 वर्ष की उम्र दी और आठ अप्रैल, 1894 को कोलकाता में मौत को दबे पांव उनके पास भेजकर उन्हें हमसे छीन लिया.

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