बैंकिंग व्यवस्था से डिगता भरोसा

उम्मीद है कि भारतीय रिजर्व बैंक और सरकार की कार्रवाई यस बैंक को बचा लेगी. सार्वजनिक कंपनियों द्वारा बैंक में इक्विटी फंड निवेश किया जा रहा है, जो करदाताओं के पैसे ही हैं.

By अजीत रानाडे | March 17, 2020 6:38 AM
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अजीत रानाडे

सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टीट्यूशन

editor@thebillionpress.org

यस बैंक में संकट के बाद जो सबसे उल्लेखनीय चीज देखने में आयी, वह राज्य सरकारों द्वारा अपने जमा खातों का सार्वजनिक बैंकों में स्थानांतरण थी. रिजर्व बैंक ने राज्य सरकारों को लिखा है कि उन्हें इस तरह के घबराहट भरे कदम उठाने से बचना चाहिए, क्योंकि निजी बैंक भी सुरक्षित हैं. पर, मुद्दे की बात यह है कि उस संस्थान में लोगों का भरोसा होना ही चाहिए, जिसमें वे अपने मेहनत की गाढ़ी कमाई जमा करते हैं. किसी बैंकर का बुनियादी काम कर्ज देना है. ये कर्ज उस निधि से दिये जाते हैं, जिनका लगभग नब्बे प्रतिशत हिस्सा लोगों द्वारा जमा किया हुआ होता है.

उसका केवल दस प्रतिशत ही बैंक का अपना पैसा अथवा उसके प्रवर्तकों की शेयर पूंजी होता है. यही वजह है कि बैंकिंग व्यवसाय लाइसेंस के आधार पर ही चल सकता है और उन्हें काफी विनियमों के अंतर्गत काम करना होता है. विनियामक की यह जिम्मेदारी रिजर्व बैंक उठाता है, जिसे कई तरह के अधिकार प्राप्त हैं. यदि बैंक प्रबंधन धोखाधड़ी में लिप्त होते हुए विनियामक से सही स्थिति छुपाता है, तो गड़बड़ी भांपने में कई बार काफी देर हो जाती है. दूसरी ओर, यह भी सही है कि चूंकि वह विनियामक है, इसलिए रिजर्व बैंक को ऐसी कुशलता विकसित करनी ही चाहिए कि वह समय रहते गड़बड़ियों की पहचान कर सुधार की कार्रवाई कर सके.

यस बैंक के धराशायी होने के पहले पंजाब एंड महाराष्ट्र को-ऑपरेटिव बैंक (पीएमसी) का मामला भी सामने आ चुका है, जिसने कर्ज देने की अपनी निधि का तीन-चौथाई से भी अधिक हिस्सा केवल एक ही पक्ष को दिया हुआ था. ऐसे में सवाल यह उठता है कि यह तथ्य ऑडिटरों, स्वतंत्र निदेशकों एवं विनियामक से कैसे छुपा रहा? को-ऑपरेटिव बैंकों के साथ एक दोहरी समस्या यह होती है कि रिजर्व बैंक तथा राज्य सरकार के रूप में उनके दो विनियामक होते हैं, जो प्रायः एक-दूसरे को भरोसे में नहीं लेते. इसके अलावा, को-ऑपरेटिव बैंकों के ऊंचे स्तर पर हमेशा कोई-न-कोई राजनीतिक संरक्षण काम करता रहता है. फिर भी, कुछ को-ऑपरेटिव बैंकों को छोड़कर शेष सभी कुशलतापूर्वक काम कर रहे हैं. यह जरूर है कि यदि उन्हें किसी एक विनियामक के अंतर्गत लाया जाये और उनमें से कुछ बड़े बैंकों को लघु वित्तीय बैंकों का लाइसेंस मिल जाये, तो ऐसे खतरों में काफी सुधार आ जायेगा.

यस बैंक की परेशानियां सालभर से भी अधिक समय से सामने थीं. इसके स्टॉक की कीमतें 2018 के बाद 88 प्रतिशत नीचे जा चुकी थीं. रेटिंग एजेंसियों ने भी बता दिया था कि बैंक की एक-तिहाई से भी अधिक पूंजी खराब कर्जों में फंस चुकी है. कई जमाकर्ताओं ने जमा निकासी भी की थी.

फिर क्यों पहले ही कार्रवाई नहीं हुई? रिजर्व बैंक की दुविधा भी समझी जा सकती है. पिछले वर्ष इसने यस बैंक के अध्यक्ष का कार्यकाल बढ़ाने से इंकार कर दिया था. उसे उम्मीद थी कि बैंक सुधार के उपाय करेगा. यदि फंसे कर्ज को पुनर्संरचित नहीं किया जाता, तो नियमों के अनुसार मामले को अनिवार्य रूप से दिवालिया अदालत में ले जाना होता. मगर सर्वोच्च न्यायालय के एक आदेश के बाद इस नियम को बदलना पड़ा और अब यह बैंकों तथा उसके ग्राहकों पर निर्भर है कि वे फंसे कर्ज का निपटारा करें.

इस बीच यह बैंक थोक जमा राशि इकट्ठा करता रहा. एक दिलचस्प मामला ‘सतत बॉन्डों’ (पर्पेचुअल बॉन्ड्स) के द्वारा 10 हजार करोड़ की पूंजी जुटाना था, जिसमें मूलधन को कभी लौटाना नहीं होता, केवल उनके ब्याज लगातार देने होते हैं. फिर भी, मंदिर ट्रस्टों, राज्य सरकारों तथा विश्वविद्यालयों ने इनमें निवेश किया.

क्या उन्हें भ्रमित किया गया अथवा गलत ढंग से बॉन्ड बेचे गये, क्योंकि निवेशक किस तरह यह यकीन कर सकते हैं कि बैंक अनंत काल तक अस्तित्व में रहेगा? उम्मीद है कि रिजर्व बैंक और सरकार की कार्रवाई यस बैंक को बचा लेगी. सार्वजनिक कंपनियों द्वारा बैंक में इक्विटी फंड निवेश किया जा रहा है, जो करदाताओं के पैसे ही हैं. एक बार फिर किस्सा वही है कि ‘मुनाफा तो निजी होता है, मगर घाटे का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाता है.’ पर इस मामले में हमें आक्रोशित भीड़ जैसी मानसिकता से भी बचना चाहिए.

जब घाटे सही में व्यावसायिक स्थितियों की वजह हों, तो करदाताओं के पैसों के इस्तेमाल के अलावा कोई चारा नहीं होता. एक बड़े बैंक की विफलता पूरी प्रणाली में आतंक तथा चरमराहट की स्थिति पैदा कर सकती है. यही वजह है कि 2008 में अमेरिकी सरकार ने विशाल राजकोषीय राशि बैंकिंग प्रणाली को स्थिर रखने में लगा दी थी. इनमें ज्यादातर सरकारी निवेश लाभप्रद ही साबित हुए और वे सरकार को वापस भी हो गये. आशा यही है कि स्टेट बैंक तथा जीवन बीमा निगम द्वारा यस बैंक में लगायी गयी पूंजी अंततः फायदेमंद ही साबित होगी.

बैंकिंग प्रणाली में घबराहट और आतंकित होने की संभावनाएं बनी रहती हैं. विनियामक के लिए यह फैसला करना मुश्किल होता है कि कब और किस हद तक दखल दिया जाये. उसे ऐसी समझ भी नहीं रखनी चाहिए कि किसी धोखाधड़ी से पैदा विफलता की स्थिति में भी वह बैंक को बचायेगा. इस नाजुक संतुलन के हित में उसे समुचित नीतियां तय करनी चाहिए. (ये लेखक के निजी विचार हैं)

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