विकास के वाहक बनें, बाधक नहीं
इक्कीसवीं सदी की दुनिया हिंसा, उपद्रव और अमानवीय दंड विधानों वाली नहीं, बल्कि वाद-विवाद-संवाद की दुनिया है.
मोदी सरकार के आठ साल तब पूरे हुए हैं, जब देश अपनी आजादी के 75 साल पूरे कर रहा है. पिछले साल स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर अपने संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि ‘देश आजादी के 75वें साल में प्रवेश कर रहा है और यहां से आजादी के 100 वर्षों तक का सफर भारत के सृजन का अमृतकाल है. सबका साथ-सबका विकास-सबका विश्वास और सबके प्रयास से इस लक्ष्य को हासिल करना है.’
नीतिगत पंगुता, नीतियों के निर्धारण में अंतर्विरोध, कामकाज में पारदर्शिता का अभाव, योजनाओं की क्रियान्वयन क्षमता में कमी, लाभार्थियों के लाभांश में रिसाव, सरकार पर जनता के भरोसे की कमी जैसी चुनौतियां मोदी सरकार के सामने नहीं हैं. देश इन चुनौतियों से आगे निकल चुका है. मिसाल के लिए, सरकार ने गरीब कल्याण के लिए भी कदम उठाये हैं, तो कारोबार जगत को ईज ऑफ डूइंग का वातावरण भी दिया है.
कोविड की चुनौती के बीच गरीबों को राशन भी दिया है और अपनी उत्पादन क्षमता से दुनिया को परिचित भी कराया है. भारत का देशव्यापी टीकाकरण एक उदाहरण की तरह है. पारदर्शी नीति होने की वजह से अनेक कार्य एक साथ बिना किसी आपसी टकराव के हो रहे हैं. अपने कार्यों को लेकर मोदी सरकार जनता से संवाद भी कर रही है.
स्वीकार करना होगा कि प्रधानमंत्री मोदी द्वारा अमृतकाल में अगले 25 वर्षों का यह विजन किसी सरकार का विजन नहीं हो सकता है, क्योंकि जब आजादी के 100 साल पूरे होंगे, तब सरकार का स्वरूप अलहदा होगा. इसलिए इसे सरकार का विजन कहने से ज्यादा उचित देश का विजन कहना होगा. ऐसे में विचार करना जरूरी है कि दूरगामी लक्ष्य की तरफ आगे बढ़ने की राह में आने वाली चुनौतियां क्या हैं?
क्या देश नयी छलांग लगाने के लिए जरूरी बदलावों के लिए तैयार है? इस समय देश के सामने तीन सबसे बड़ी चुनौतियां हैं- देश में आए दिन अस्थिरता पैदा करने की कोशिशों से निपटना, युगानुकूल सुधारों के प्रति रचनात्मक सहमति-असहमति के दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ने की कमी तथा सरकार के विरोध और देश के विरोध के बीच का फर्क स्पष्ट न होना. यह भी समझना होगा कि ये चुनौतियां किसी दल या सरकार के सामने तो अंशकालिक चुनौती की तरह हैं, लेकिन देश के लिए सर्वकालिक हैं. अत: इन्हें सरकार या किसी दल के लिए चुनौती मानने की भूल करने से बचने की जरूरत है.
जब 2019 में नरेंद्र मोदी बड़े बहुमत के साथ दोबारा जनादेश हासिल करके आये, तो उनसे असहमत वर्ग ने भी मान लिया कि जन विश्वास की कसौटी पर वह खरे हैं. ऐसे में 2019 के बाद विरोध और असहमति में संवाद की प्रवृत्ति कम हुई और हठधर्मिता अधिक दिखने लगी है. विरोध के लिए अस्थिरता और अशांति की हद तक जाने की कवायदें बढ़ी हैं. हमने देखा है कि कृषि कानूनों में सुधारों को लेकर हिंसक उपद्रव तक हुए, किंतु कोई प्रमाणिक तौर पर नहीं बता पाया कि कृषि सुधार से जुड़े सभी प्रावधान गलत कैसे हैं?
संभव है, कुछ लोग कुछ प्रावधानों से असहमत हो सकते हैं, लेकिन उस पर कोई चर्चा नहीं हुई. कानून वापस लेने की जिद पर हिंसा तक पहुंची हठधर्मिता ने विरोध की एक नयी प्रवृति को जन्म दिया. यह प्रवृत्ति सुधारों के साथ आगे बढ़ने में बाधक है. कुछ ऐसी ही स्थिति हालिया अग्निपथ योजना के बाद पैदा हुई. बिहार में जिस ढंग से हिंसक प्रदर्शन हुए और विरोधी दलों ने आग में घी डालने जैसे बयान दिये, वह देश के विकास के लिहाज से अच्छा संकेतक नहीं है.
राजनीतिक दल चुनावों में अपना घोषणापत्र लेकर जनादेश मांगने जाते हैं. जनादेश के बाद घोषणापत्र लागू करना उन दलों का अधिकार है. सरकार की नीतियों पर असहमत होने का अधिकार सभी को है, लेकिन इसका आधार दलगत भेद मात्र नहीं होना चाहिए. अस्थिरता, अशांति, असुरक्षा और अन्याय जैसी चीज आदर्श राज्य की कल्पना में नहीं आतीं. हमें सोचना होगा कि लोकतंत्र में विरोध की हमारी सीमा क्या है.
‘सर तन से जुदा’ जैसी मांगे और नारे किसी भी लोकतंत्र में स्वीकार नहीं हो सकते. हर असहमति पर वितंडा, पत्थरबाजी, हिंसा और उपद्रव अगले 25 साल की विकास यात्रा में सबसे बड़ा बाधक है. हमारी इस प्रवृत्ति का दुरुपयोग भारत के हितों के खिलाफ काम करने वाली बाहरी शक्तियां भी करने लगती हैं.
हाल में जिस ‘बयान’ को लेकर देश के अनेक हिस्सों में पत्थरबाजी हुई, उस बयान पर अंतरराष्ट्रीय आपत्ति कतर से आयी. आहत तबके ने भारत में उग्र तांडव किया, लेकिन कतर में जिन लोगों ने सड़कों पर प्रदर्शन किया, उन्हें देश से बाहर जाने का फरमान जारी कर दिया गया, अर्थात हमें अपने देशहित में समझना चाहिए कि कतर भी सड़कों पर प्रदर्शन अफोर्ड नहीं कर सकता है. इक्कीसवीं सदी की दुनिया हिंसा, उपद्रव और अमानवीय दंड विधानों वाली नहीं, बल्कि वाद-विवाद-संवाद की दुनिया है.
अत: भारत जब आजादी के 100 साल पूरा करेगा तो कहां होगा, यह निर्भर करता है कि देश इन चुनौतियों से पार पाने के लिए क्या सीख लेता है? अगले 25 वर्षों की परिकल्पना भले ही नरेंद्र मोदी ने की है, लेकिन इसे पूरा करने का काम देश को ही करना होगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)