केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्री ने उच्च न्यायालयों से फास्ट ट्रैक अदालतों की तादाद बढ़ाने का आग्रह किया है. मौजूदा फास्ट ट्रैक और फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्टों के कामकाज की समीक्षा के आधार पर यह आग्रह किया गया है. उल्लेखनीय है कि महिलाओं के खिलाफ बलात्कार तथा बच्चों के विरुद्ध होने वाले यौनिक अपराधों की त्वरित सुनवाई सुनिश्चित करने के लिए ऐसी अदालतों का गठन हुआ है, जिसका खर्च केंद्र सरकार वहन करती है.
समीक्षा में पाया गया है कि विशेष न्यायालयों के बावजूद लंबित मामलों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. इतना ही नहीं, जो धन सरकार द्वारा आवंटित किया जाता है, उसका भी पूरी तरह इस्तेमाल नहीं हो रहा है. राज्य सरकार द्वारा गठित किये जाने वाले 1800 फास्ट ट्रैक अदालतों के लिए 14वें वित्त आयोग ने केंद्र सरकार के योगदान को बढ़ाने की अनुशंसा की थी.
अभी देश के 24 राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों में कुल 896 ऐसी अदालतें कार्यरत हैं, जिनमें 13.18 लाख से अधिक मामले लंबित हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार, 2021 में बच्चों के विरुद्ध हुए अपराध के 53,874 मामले पोक्सो एक्ट के तहत दर्ज हुए थे. यह संख्या बच्चों के खिलाफ हुए कुल अपराधों का 36.1 फीसदी है. बच्चों के विरुद्ध हर तरह के अपराधों का संज्ञान लें, तो 2011 और 2021 की एक दशक की अवधि में इनमें 351 फीसदी की चिंताजनक बढ़त हुई है.
इसी तरह महिलाओं के विरुद्ध अपराधों की तादाद भी बेहद चिंताजनक है. ब्यूरो की रिपोर्ट बताती है कि 2021 में हमारे देश में हर दिन 86 बलात्कार के मामले सामने आये तथा हर घंटे महिलाओं के खिलाफ 49 अपराध दर्ज हुए. यदि ऐसे गंभीर अपराधों का निपटारा जल्दी नहीं होता है, तो न केवल फास्ट ट्रैक अदालतों के गठन का उद्देश्य असफल होता है, बल्कि अपराधियों का हौसला भी बढ़ता है. देश के सभी अदालतों में मंजूर पदों से कम जज कार्यरत हैं.
स्थिति यह है कि उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के पदों को भरने में होने वाली देरी के लिए सर्वोच्च न्यायालय और केंद्र सरकार एक-दूसरे को दोष देते रहते हैं. अक्सर इस बहस में भर्ती प्रक्रिया को लेकर भी तनातनी चलती है. ऐसे में यह अचरज की बात नहीं है कि 4.83 करोड़ से अधिक मामले लंबित है. इस कारण बड़ी संख्या में आरोपी जेलों में भी बंद रहते हैं तथा उन्हें न जमानत मिलती है, न वे बरी होते हैं और न ही उन्हें सजा दी जाती है. कई मामले तो ऐसे हैं कि पांच-दस साल से निचली अदालतों में ही उनकी सुनवाई पूरी नहीं हो सकी है. ऐसी स्थिति में सामान्य अदालतों से बच्चों और महिलाओं को समुचित न्याय मिल पाना बेहद मुश्किल है.