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Death anniversary : मलिका-ए-गजल बेगम अख्तर का हिंदुस्तान के लिए अनूठा प्रेम

Begum Akhtar : फैजाबाद के उस भदरसा कस्बे में भी, जहां बेगम अख्तर का जन्म हुआ था, अब उनके कद्रदान नहीं ही हैं. फैजाबाद स्थित उनकी आलीशान कोठी में भी उनकी याद दिलाने वाला कुछ नहीं. जब वह 12-13 वर्ष की ही थी, उसकी मां मुश्तरी बाई उसे अच्छी संगीत शिक्षा दिलाने के लिए बिहार के गया ले गयी.

Begum Akhtar : गजल की उस मलिका के यूं तो कई नाम थे- बचपन का ‘बिब्बी’, छुटपन का ‘अख्तरी’, बुलंदियों का ‘अख्तरीबाई फैजाबादी’ और निकाह के बाद का ‘बेगम अख्तर’. परंतु गीत-संगीत की दुनिया में एक के बाद एक सीढ़ियां चढ़ती हुई वह जीते जी ही किंवदंती बन गयी, तो बस एक ही नाम से जानी जाने लगी थी- मल्लिका-ए-गजल. और तब बड़ी मुश्तरी बाई की इस बेटी के परिचय के लिए यह एक नाम ही काफी समझा जाने लगा था. मामूली पढ़ी-लिखी, नेक सीरत ज्यादा और खुले ख्यालों वाली गजल की यह रूह दादरा, ठुमरी और चैती की भी जान थी. साथ ही देश प्रेम से ओतप्रोत. इतनी कि 1947 में देश के बंटवारे के समय पाकिस्तान जाने को उद्यत अपने पति बैरिस्टर इश्तियाक अहमद अब्बासी का इरादा उसने यह कहकर बदलवा दिया था कि वह संगीत और हिंदुस्तान के बिना नहीं जी सकती.


बहरहाल, सांवली-सी गोल-मटोल बेगम अख्तर जितनी अच्छी गायिका थीं, उतनी ही अच्छी अभिनेत्री भी. जानकारों का कहना है कि भारत में गजल गायकी कुंदनलाल सहगल के साथ शुरू हुई थी और उसकी गंभीर, भावप्रवण और पुख्ता अदायगी की परंपरा बेगम अख्तर के साथ समाप्त हो गयी. जो भी हो, उनकी सबसे बड़ी तमन्ना आखिरी वक्त तक गाते रहने की थी और इसे पूरा करते हुए उन्होंने 1974 में अपनी मृत्यु से महज आठ दिन पहले कैफी आजमी की गजल गायी थी- ‘सुना करो मेरी जां उनसे उनके अफसाने, सब अजनबी हैं यहां कौन किसको पहचाने?’

यह गजल अब इस अर्थ में सही सिद्ध हो रही है कि वे उस फैजाबाद (जिसका नाम अब अयोध्या हो गया है) के बाशिंदों के लिए भी अजनबी होकर रह गयी हैं, जहां सात अक्तूबर, 1914 (कुछ लोगों के अनुसार 1910) को उनका जन्म हुआ था. उस लखनऊ के लोग भी अब उनसे ज्यादा ‘जान-पहचान’ नहीं रखते, जिसके ठाकुरगंज थाना क्षेत्र के बसंत बाग में उन्हें सुपुर्दे-खाक किया गया था. उनकी कब्र के इर्द-गिर्द के लोगों में से भी अधिकांश को नहीं मालूम कि उनके अंचल विशेष की धुनों को देश की सरहद के पार पहुंचाने वाली उपशास्त्रीय गायन की वह साम्राज्ञी अपनी मां मुश्तरी बाई की कब्र के बगल में चिरनिद्रा में सोई हुई है. भारत सरकार ने 1968 में इस साम्राज्ञी का सम्मान करने के लिए ‘पद्मभूषण’ दिया था.


फैजाबाद के उस भदरसा कस्बे में भी, जहां बेगम अख्तर का जन्म हुआ था, अब उनके कद्रदान नहीं ही हैं. फैजाबाद स्थित उनकी आलीशान कोठी में भी उनकी याद दिलाने वाला कुछ नहीं. जब वह 12-13 वर्ष की ही थी, उसकी मां मुश्तरी बाई उसे अच्छी संगीत शिक्षा दिलाने के लिए बिहार के गया ले गयी. गया से कलकत्ता, बंबई, लखनऊ और रामपुर जैसे संगीत के तत्कालीन केंद्रों में अनेक कद्रदान बनाने वाली अख्तरी बाई फैजाबादी ने 1961 में पाकिस्तान, 1963 में अफगानिस्तान और 1967 में तत्कालीन सोवियत संघ में अपने सुरों का जादू बिखेरा. फिर तो शोहरत के साथ दौलत भी खूब कमाई और 1945 में रामपुर के नवाब रजा अली खां का निकाह प्रस्ताव ठुकरा काकोरी के जमींदार घराने के बैरिस्टर इश्तियाक अहमद अब्बासी से परिजनों की नाराजगी के बावजूद शादी कर ली. लखनऊ में हैवलॉक रोड कालोनी के बेगम व बैरिस्टर अब्बासी के बंगले ‘आशियाना-ए-बेगम अख्तर’ में अब बेगम के रिश्तेदारों के परिवार रहते हैं, पर वे उनकी यादों को सलामत रखने की ओर से उदासीन हैं. पहले इस आशियाने में बेगम के साजो-सामान के साथ उनकी इस्तेमाल की हुई तमाम चीजें, चित्र और निशानियां मौजूद थीं. परंतु अब वे किसी हाल में हैं, हैं भी अथवा नहीं, केवल उनके रिश्तेदारों को ही पता है.


बेगम अख्तर की कोई संतान नहीं थी. सो, वे अपना सब कुछ रिश्तेदार शमीम बानो के पास छोड़ गयी थीं. उन्हें मालूम नहीं था कि बेरहम वक्त इतनी जल्दबाजी पर उतर जायेगा और अपनों तक के पास उनकी यादों को नहीं रहने देगा. लखनऊ का वह विद्यालय भी बेगानों की तरह बरताव करने लगेगा, जहां वे संगीत की तालीम दिया करती थीं. बेगम अख्तर ने कभी गाया था-‘ऐ मुहब्बत तेरे अंजाम पर रोना आया. कभी खुद पर कभी हालात पर रोना आया.’ पर आज जब वे नहीं हैं, तो रोना इस बात पर भी आता है कि सुरों की जिस जादूगरनी ने अपनी चार दशक लंबी साधना में कितने ही शायरों की रचनाओं को लोकप्रियता के चरम तक पहुंचाया और अपने गायन व अभिनय के लिए बेपनाह प्रशंसाएं बटोरीं, हम उसे उसके जाने के कुछ दशकों बाद ही भुला बैठे. ( ये लेखक के निजी विचार हैं)

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