अमेरिका में 2008 का वित्तीय संकट आकर्षक दरों पर बड़े पैमाने पर आवास ऋण देने से पैदा हुई गिरवी समस्या का परिणाम था. ऐसे बहुत से लोगों, जो आम तौर पर ढेर सारा कर्ज नहीं ले पाते, को आसान ऋण मुहैया कराया जाने लगा, ताकि वे अपना घर होने का मध्यवर्गीय सपना पूरा कर सकें. जब अमेरिकी अर्थव्यवस्था गड़बड़ायी, तो बड़ी संख्या में लोगों की नौकरी चली गयी, जिसका सीधा असर आवास कारोबार पर पड़ा.
लोगों के पास किस्त चुकाने की क्षमता नहीं थी, तो बैंक उनके घर लेने लगे और जल्दी ही बिक्री का इंतजार कर रहे घरों की संख्या बहुत बढ़ गयी. लोग कर्ज के बोझ के साथ बेघर होने लगे, बैंकों पर दबाव बढ़ता गया और इसके असर से बड़े बैंक भी नहीं बच सके. साल 2008 में वित्तीय बाजार तहस-नहस हो गया. वे राष्ट्रपति बराक ओबामा के पहले कार्यकाल के शुरुआती दिन थे और उन्होंने संयम के साथ इस कठिन स्थिति का सामना करते हुए बड़े बैंकों को 800 अरब डॉलर दिया, जेनरल मोटर्स को मुश्किल से निकाला और अमेरिकी अर्थव्यवस्था में भरोसा बहाल किया.
किसी देश में बैंकिंग के जो कानून और विवेक लोगों और कंपनियों के लिए होते हैं, उनमें कानून संप्रभु देशों पर लागू नहीं होते, पर विवेक अवश्य प्रासंगिक होता है. आप कर्ज में डूबे किसी देश को उसी तरह नहीं उबार सकते, जैसा कि राष्ट्रपति ओबामा ने अमेरिकी कंपनियों और बैंकों के साथ किया था. आप अर्जेंटीना को खत्म नहीं कर सकते या ब्रिटेन और फ्रांस का जबर्दस्ती विलय नहीं कर सकते.
सिटी बैंक के प्रसिद्ध पूर्व प्रमुख वाल्टर रिस्टन, जिन्होंने दक्षिण अमेरिकी और अफ्रीकी देशों को ढेर सारा कर्ज बांट कर बैंक को लगभग डुबा ही दिया था, को जब बाद की मुश्किलों के बारे में आगाह किया गया, तो उन्होंने हंसते हुए कहा था- ‘देश नहीं डूबा करते.’ इसका अर्थ यह था कि कर्जों को अधिक ब्याज पर लगातार बनाये रखा जाता है. इस संदर्भ में श्रीलंका और पाकिस्तान की स्थिति को देखा जाए.
चीन कुछ हद तक पीछे हटने लगा है. कर्जदार उम्मीद लगाने लगे हैं. मलेशिया कम खर्च, कम ब्याज दर और अधिक स्थानीय भागीदारी के साथ रेल परियोजना की शर्तों में बदलाव कर चुका है. उल्लेखनीय है कि मूल समझौता पूर्व प्रधानमंत्री नजीब रजाक को अच्छा-खासा घूस देकर किया गया था. पाकिस्तान भी आर्थिक गलियारे को लेकर सवाल उठाने लगा है. उसने श्रीलंका के हम्बनटोटा से सबक लिया है.
बंदरगाह के पहले चरण के लिए चीन ने श्रीलंका को दो प्रतिशत की दर पर 307 मिलियन डॉलर दिया था. जब श्रीलंका ने आगे 757 मिलियन डॉलर कर्ज लिया, तो चीनियों ने ब्याज दर पांच प्रतिशत कर दिया, जो पहले कर्ज पर भी लागू हुआ. फंसा हुआ श्रीलंका किस्तें नहीं चुका सका, तो उसे चीन को औद्योगिक शहर बनाने के लिए 15 हजार एकड़ जमीन देनी पड़ी. उस शहर की मुद्रा चीनी येन होगी. हम्बनटोटा राजपक्षे परिवार का सपना था और महिंदा राजपक्षे उसे दूसरा कोलंबो बनाना चाहते थे.
यह कुछ वैसा ही था, जैसे मुलायम सिंह यादव सैफई को एक औद्योगिक शहर बनाना चाहते थे. वहां के हवाई अड्डे पर नीलगाय चरती हैं, जैसे हम्बनटोटा हवाई अड्डे पर किसान धान सुखाते हैं. बेल्ट-रोड परियोजना के पहले सम्मेलन में राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने घोषणा की थी कि इसके लिए चीन 55 अरब डॉलर देगा. यह राशि उन आंकड़ों से बहुत कम थी, जिनकी चर्चा गाहे-बगाहे होती थी. लॉलीपॉप के आकार को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर बताना चीन की आर्थिक कूटनीति का अभिन्न आयाम है.
इस परियोजना को वैश्विक वर्चस्व के लिए चीन का बड़ा दांव माना जाता है. इसके बारे में आशाएं और आशंकाएं निराधार हैं. इसका सीधा मामला पश्चिमी बैंकों में पड़े चीनी धन को वहां निवेश करना है, जहां अधिक मुनाफा मिले तथा चीनी अर्थव्यवस्था से अत्यधिक क्षमता का बोझ कुछ कम हो. अब बेल्ट-रोड परियोजना की आर्थिकी को समझा जाए. यह वह वास्तविकता है, जिसे अधिकतर टिप्पणीकार नहीं देख पाते या समझ पाते.
साल 2013 तक चीन के पास लगभग 3.5 ट्रिलियन डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार हो चुका था. उसका दावा है कि न्यू डेवलपमेंट बैंक, एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक और सिल्क रोड फंड के लिए निर्धारित पूंजी में इस भंडार का केवल सात प्रतिशत के आसपास ही खर्च होगा. चूंकि चीन द्वारा समर्थित ये संस्थान अनुदान की जगह उधार देंगे, तो इसका ब्याज अमेरिकी सरकार के बॉन्ड से मिलनेवाले मामूली रिटर्न की तुलना में बहुत अधिक होगा.
यह बहुत सीधा मामला है. चीन को अपने पैसे का मूल्य चाहिए और साथ ही मांग की कमी से जूझ रहे उसके उद्योगों को मदद मिल सके. और, इसके लिए उन्होंने विशिष्ट चीनी समाधान निकाला है. इसे अलग नजरिये से देखा जाए. लंबी समयावधि में बड़ी मुद्राओं के मुकाबले अमेरिकी डॉलर की कीमत में कमी आती जा रही है. ऐसे में बिना ब्याज के और डॉलर के घटते दाम के कारण अधिशेष के संग्रहण से जमा किया गया चीन का विशाल विदेशी मुद्रा भंडार धीरे-धीरे मूल्य के मामले में संकुचित होता जा रहा है.
चीन इसी समस्या का समाधान खोज रहा है. इसका एक रास्ता यह है कि इस पूंजी को अफ्रीका और एशिया के उन देशों में लगाया जाए, जिन्हें बहुत कम निवेश मिलता है, और इस तरह बहुत लंबे समय तक उनसे कमाई की जा सकती है. कुछ देशों में बहुत जल्दी ही नतीजे सामने आ गये हैं. श्रीलंका के विशालकाय हम्बनटोटा बंदरगाह में आज कोई जहाज नहीं ठहरता और उससे कोई खास कमाई भी नहीं होती.
कभी इस परियोजना ने भारत के ‘रणनीतिक चिंतकों’ को बेचैनी से भर दिया था. चीन अब श्रीलंका पर किस्तें चुकाने के लिए दबाव बना रहा है और इस प्रक्रिया में कर्ज के बदले वह कुछ अधिक ही उगाही करना चाहता है. इस परियोजना के निवेश का बड़ा हिस्सा सामानों और श्रम की आपूर्ति के जरिये चीन वापस ले चुका है.
इसीलिए एक मशहूर यूरोपीय टिप्पणीकार ने बेल्ट-रोड परियोजना को एक जाल कहा था, जिसमें फंसाने के लिए मक्खन का बड़ा टुकड़ा लगाया गया है. पाकिस्तानी अखबार ‘डॉन’ ने सवाल उठाया है कि सूखे और बंजर शिनजियांग तथा अशांत तुर्किस्तानी मुस्लिम बहुल काशगर से जुड़ कर पाकिस्तान को क्या हासिल होगा, जो पहले से ही मुश्किलों में घिरा है. एक बार मुझसे एक पाकिस्तानी वार्ताकार ने पूछा था कि पाकिस्तान को क्या आर्थिक लाभ होगा, तो मैंने जवाब दिया था कि व्यस्त सड़क पर पाकिस्तानी चाय व समोसा बेच सकेंगे.