बेमिसाल उस्ताद बिस्मिल्लाह खां
जिनके लिए संगीत, सुर और इबादत एक ही चीज थी, वे थे शहनाई नवाज भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां. वे मंदिरों में शहनाई बजाते थे
जिनके लिए संगीत, सुर और इबादत एक ही चीज थी, वे थे शहनाई नवाज भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां. वे मंदिरों में शहनाई बजाते थे, सरस्वती के उपासक थे और गंगा नदी से उन्हें बेपनाह लगाव था. पांच वक्त के नमाजी उस्ताद जकात देते थे और हज करने भी जाते थे.
मैं बहुत छोटा था, तब मेरे पिता डॉ शशि भूषण श्रीवास्तव भोजपुरी फिल्म ‘बाजे शहनाई हमार अंगना’ का मुहूर्त करवाने के लिए उन्हें डुमरांव लेकर आये थे. इस फिल्म के संगीत निर्देशक भी उस्ताद ही थे. बाद के दिनों में उनकी जीवनी ‘शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खां’ लिखने के दरम्यान कई बातों को जानने का मौका मिला.
उनकी शहनाई में एक ठुमरी अंदाज भरा हुआ था, जिसे मैं अच्छी तरह समझता था. समझने के पीछे यह भी वजह थी कि वे अक्सर संगीत की बारिकियों के बारे में मुझे समझाया करते थे. एक बार जब हमने जुगलबंदी के बारे में पूछा, तो उन्होंने कहा संगीत में जुगलबंदी एक दूसरे को सहारा और निवाला देने की तरह होती है,
जिससे सामने वाले की रूह खुलती है. उन्होंने शहनाई को भारत में ही नहीं, बल्कि भारत के बाहर भी एक विशिष्ट पहचान दिलाने में अपना जीवन समर्पित किया. बिस्मिल्लाह खां को 2001 में देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया था. बिहार के डुमरांव में 21 मार्च, 1916 को एक मुस्लिम परिवार में बालक कमरुद्दीन का जन्म हुआ था,
जो आगे चलकर विश्व प्रसिद्ध उस्ताद बिस्मिल्लाह खां बन गया. शहनाई की तालीम के लिए बालक कमरुद्दीन अपने बड़े भाई शम्मसुद्दीन के साथ महज 10 वर्ष की उम्र में मामू अली बख्श के शागिर्द बनकर वाराणसी चले गये तथा 14 वर्ष की उम्र में उन्हें पहली बार इलाहाबाद के संगीत परिषद में शहनाई वादन का मौका मिला. उसके बाद उस्ताद ने पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा.
दूरदर्शन और आकाशवाणी की सिग्नेचर ट्यून से लेकर 15 अगस्त 1947 को लाल किले के प्राचीर से शहनाई वादन कर उन्होंने इतिहास रच दिया. डुमरांव से जब कभी भी उस्ताद के पास मिलने के लिए जाता था, तो मैं कंडा (या सरकंडा), जो सोन नदी या फिर डुमरांव में मिलता था, लेकर जाता था. बड़े प्यार से अपने पास बुलाकर चूमने लगते थे. कहते थे- ‘मेरी मिट्टी आया है, मेरा घरवइया आया है.’
आंसू पोछते हुए कहते थे- ‘वह भी क्या जमाना था, डुमरांव के बांके बिहारी मंदिर में अब्बा शहनाई बजाने जाते, तो हम इस उम्मीद में जाते थे कि मोतीचूर के लड्डू मिलेंगे.’ भले ही हमने उस दौर को नहीं देखा था, मगर उनकी बातों में इतनी तारतम्यता होती थी कि उन्हीं की नजरों से सब कुछ दिख जाता था. अफसोस एक बात की रही कि दिल्ली के इंडिया गेट पर शहनाई वादन की अपनी आखिरी इच्छा लिये उस्ताद 21 अगस्त, 2006 को इस दुनिया से हमेशा के लिए कूच कर गये.