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शहादत का जज्बा और गोरों की क्रूरता का चरम

शहादत से एक दिन पहले भगत सिंह ने अपने साथियों को पत्र में यही लिखा था कि उनके दिल में फांसी से बचने का कोई लालच नहीं और अंतिम परीक्षा का बेताबी से इंतजार है.

वर्ष 1907 में आज ही के दिन अविभाजित पंजाब के लायलपुर जिले के बंगा गांव में जन्मे शहीद-ए-आजम भगत सिंह को 23 मार्च, 1931 को लाहौर सेंट्रल जेल में जो शहादत हासिल हुई, निसंदेह, वह उनका चुनाव थी. इसी शहादत के लिए उन्होंने देश की राजधानी स्थित सेंट्रल असेंबली में 8 अप्रैल, 1929 के हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के धमाके के ऑपरेशन को बटुकेश्वर दत्त के साथ खुद अंजाम दिया था.

यह जानते हुए भी कि पकड़े जाने के बाद गोरे सत्ताधीश, जो पुलिस अधिकारी जॉन पी सांडर्स की हत्या से खार खाये बैठे थे, उन्हें फांसी के फंदे तक पहुंचा कर ही दम लेंगे, धमाके के बाद उन्होंने भागने की कोशिश नहीं की थी और ‘इंकलाब जिंदाबाद’ के नारे लगाते हुए गिरफ्तारी के लिए खड़े रहे थे.

भगत सिंह ने राजगुरु व सुखदेव के साथ मिल कर जब 17 दिसंबर, 1928 को लाहौर में सांडर्स की हत्या की थी, तब उस दिन उनके निशाने पर सांडर्स नहीं, बल्कि उसका सीनियर जेम्स ए स्कॉट था. स्कॉट को मार कर वे 30 अक्तूबर, 1928 को निकले साइमन कमीशन विरोधी जुलूस पर हुए उस लाठीचार्ज का बदला लेना चाहते थे, जिसमें आयी चोट के कारण देश को लाला लाजपत राय को गंवाना पड़ा था, लेकिन जब वे घात में थे,

स्कॉट की जगह सांडर्स बाहर निकला और पहचान के धोखे में शिकार हो गया. बहरहाल, अदालत में ट्रायल शुरू हुआ, तो उन्होंने अपने बचाव की कोई कोशिश नहीं की. पंजाब के तत्कालीन कांग्रेसी नेता भीमसेन सच्चर ने उनसे बचाव के प्रयास न करने की वजह पूछी, तो उनका जवाब था- इंकलाबियों को तो मरना ही होता है, क्योंकि उनके मरने से ही उनका अभियान मजबूत होता है.

शहादत से एक दिन पहले अपने साथियों को पत्र में भी उन्होंने यही लिखा था कि उनके दिल में फांसी से बचने का कोई लालच नहीं और अंतिम परीक्षा का बेताबी से इंतजार है, लेकिन ‘अंतिम परीक्षा’ के उनके इस दृढ़ इंतजार की देशवासियों में संभावित प्रतिक्रिया ने गोरे शासकों को इतना डरा दिया कि उन्होंने हड़बड़ी में उनकी अंतिम इच्छा तक नहीं पूरी होने दी और 24 मार्च, 1931 को सुबह छह बजे के लिए तय फांसी 23 मार्च, 1931 की शाम ही दे डाली.

भगत सिंह शहादत से पहले जेल के सफाई कर्मचारी बेबे के घर का बना खाना खाना चाहते थे, लेकिन अचानक बारह घंटे पहले फांसी दिये जाने के कारण बेबे ऐसा नहीं कर पाये. गोरे सत्ताधीशों द्वारा उनकी इच्छा का यह एकमात्र अनादर नहीं था. भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव को सांडर्स की हत्या के लिए फांसी की सजा सुनायी गयी, जबकि सेंट्रल असेंबली में धमाके के मामले में भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त को उम्रकैद की सजा सुनायी गयी थी.

सांडर्स मामले में उन पर तत्कालीन ब्रिटिश सम्राट जॉर्ज पंचम के विरुद्ध युद्ध छेड़ने का आरोप लगाया गया था. वर्ष 1931 की 20 मार्च को भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु ने पंजाब के तत्कालीन गवर्नर से प्रार्थना की थी कि चूंकि वे सम्राट के खिलाफ युद्ध के दोषी हैं, सो उनसे युद्धबंदियों जैसा व्यवहार किया जाए और उन्हें फांसी पर लटकाने के बजाय गोली से उड़ाने के लिए एक सैनिक टोली भेज दी जाए.

उन्होंने गवर्नर को लिखा था कि उन्हें गर्व है कि उन्होंने इस युद्ध में प्रत्यक्ष रूप से भाग लिया, लेकिन इस युद्ध को न तो उन्होंने प्रारंभ किया है, न यह उनके जीवन के साथ समाप्त ही होगा. उल्टे यह तब तक चलता रहेगा, जब तक शक्तिशाली व्यक्तियों का भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर एकाधिकार खत्म नहीं हो जाता.

उन्हीं के शब्दों में कहें, तो गवर्नर से उनकी यह प्रार्थना स्वीकार कर यह भी सिद्ध करते नहीं बना कि उन्हें अपनी सरकार द्वारा संचालित न्यायालय के निर्णय में पूरा विश्वास है. इसके बाद लाहौर सेंट्रल जेल के अधिकारियों ने भगत सिंह की इस इच्छा का भी सम्मान नहीं ही किया था कि वे शहादत से पहले उन्हें अपनी प्रिय पुस्तक ‘रिवोल्यूशनरी लेनिन’ का कम से कम एक अध्याय पढ़ लेने दें. भगत सिंह ने यह पुस्तक अपने वकील प्राणनाथ मेहता से बहुत आग्रह करके मंगवायी थी.

देश जानता है कि गोरों ने उनके पार्थिव शरीर का भी जी भरकर अपमान किया. फिर जनरोष से डर कर जेल के पिछवाड़े से बोरियों में भर कर फिरोजपुर की ओर ले गये और मिट्टी के तेल से जलाने की कोशिश की. वहां भी जनरोष से सामना हुआ, तो अधजले टुकड़ों को सतलज में फेंक कर भाग गये.

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