जब भगत सिंह अदालत में हंसने लगे
वकील को समझ में नहीं आया कि इसके बाद वह क्या कहे, लेकिन भगत सिंह ने शहादत के दिन भी अपनी कही इस बात को याद रखा. अंग्रेज अचानक उन्हें 1931 की 24 मार्च की निर्धारित तिथि से एक दिन पहले 23 मार्च की शाम ही फांसी देने पर तुल गये.
भगत सिंह के 24 साल से भी छोटे जीवन में संघर्ष, जीवट और बहादुरी के इतने आयाम हैं कि तय करना मुश्किल हो जाता है कि बात कहां से शुरू की जाए. आइए, आज उनकी शहादत से पहले उनके विरुद्ध चली लंबी अदालती कार्रवाई के एक अपेक्षाकृत बहुत कम चर्चित प्रसंग से शुरू करें. ऐतिहासिक लाहौर षडयंत्र केस में जिरह कर रहे सरकारी वकील ने एक दिन कोई ऐसी बात कह दी, जो भगत सिंह की निगाह में मूर्खतापूर्ण भी थी और नागवार भी. उसे सुनकर वह बेसाख्ता हंसने लगे तो वकील की त्यौरियां चढ़ गयीं. उसने जज से कहा, ‘योर ऑनर, अभियुक्त का इस तरह हंसना मेरी ही नहीं अदालत की और आपकी भी तौहीन है.’ इस पर जज साहब तो तत्काल कुछ नहीं बोले, लेकिन भगत सिंह ने कहा, ‘वकील साहब, मैं तमाम जिंदगी हंसता रहा हूं और आगे भी हंसता रहूंगा. फांसी के तख्ते पर भी मैं आपको हंसता हुआ ही मिलूंगा. इस वक्त तो आप मेरे हंसने पर जज साहब से शिकायत कर रहे हैं, तब किससे करेंगे?’
वकील को समझ में नहीं आया कि इसके बाद वह क्या कहे, लेकिन भगत सिंह ने शहादत के दिन भी अपनी कही इस बात को याद रखा. अंग्रेज अचानक उन्हें 1931 की 24 मार्च की निर्धारित तिथि से एक दिन पहले 23 मार्च की शाम ही फांसी देने पर तुल गये.अपने बनाए नियम-कायदों को सूली पर लटकाते हुए उन्हें अपनी कालकोठरी से फांसीघर की ओर चलने को कहा. उस वक्त वह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे, जो उन्हें बहुत अनुरोध करने पर अपने वकील प्राणनाथ मेहता की मार्फत एक दिन पहले ही मिल पाई थी. उन्होंने किंचित भी विचलित हुए बिना कहा, ‘ठहरो, अभी एक क्रांतिकारी की दूसरे से मुलाकात हो रही है.’ फिर हंसते हुए सुखदेव व राजगुरु के बीच जाकर अपने दोनों हाथ उन दोनों के क्रमशः दाहिने व बायें हाथों में डाल दिये और ‘इंकलाब जिंदाबाद’ और ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’ के नारे लगाने लगे. फिर मिलकर शायर लालचंद फलक की ये पंक्तियां गायीं: “दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फत, मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वफा आयेगी”.
शहादत से एक दिन पहले साथी कैदियों को लिखे अपने अंतिम पत्र में उन्होंने लिखा था कि उनका नाम हिंदुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है, और क्रांति के आदर्शों व बलिदानों से जोड़कर उन्हें बहुत ऊंचा कर दिया है. हालांकि उनके मन में देश व मानवता के लिए जितना करने की हसरत थी, वे उसका हजारवां हिस्सा भी नहीं कर पाये हैं, और जिंदा रहते तो शायद यह हसरत पूरी कर पाते. इसी पत्र में उन्होंने आगे लिखा था कि यह हसरत पूरी करने के सिवा उनके दिल में फांसी से बचकर जिंदा रहने का और कोई लालच कभी नहीं आया.
दरअसल, अपनी शहादत के निर्णायक असर को लेकर वे बहुत आश्वस्त थे. उन्हीं के शब्दों में: “मेरे दिलेराना ढंग से हंसते-हंसते फांसी चढ़ जाने की सूरत में हिंदुस्तानी माताएं अपने बच्चों के भगत सिंह बनने की आरजू किया करेंगी और देश की आजादी के लिए बलिदान होने वालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि साम्राज्यवाद की सारी शैतानी शक्तियों के लिए मिलकर भी इंकलाब को रोकना संभव नहीं होगा.”
इससे पहले असेंबली बम कांड में जनवरी, 1930 में अपने बयान में भगत सिंह ने कहा था कि पिस्तौल और बम इंकलाब नहीं लाते, बल्कि इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है और यही चीज थी, जो हम ऐसे बमों के धमाके से प्रकट करना चाहते थे, जो मानव जीवन के लिए कतई घातक नहीं थे. लेकिन उनके बचपन की एक घटना बताती है कि तब वे अंग्रेजों को देश से भगाने के लिए बंदूक बोने चल पड़े थे. दरअसल, उनके चाचा ने उन्हें बताया कि अंग्रेजों को भगाने के उपायों के लिए बंदूकें बड़े काम की चीज हैं, तो वे उनकी बंदूक उठा लाये और खेत में गड्ढा खोदकर उसे उसमें ‘बोने’ लगे, ताकि वह उगे तो उसमें ढेर सारी बंदूकें फलें और उनकी मदद से अंग्रेजों को भगाया जा सके. नादानी के इस दौर के बाद सयाने होकर वे स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय हुए तो किसी ने उनको हतोत्साहित करते हुए कहा कि आजादी उतनी आसानी से तो नहीं ही मिलने वाली, जितनी आसानी से वे और उनके साथी क्रांतिकारी समझते हैं. इस पर उनका उत्तर था, ‘अभी आप हमें समझ नहीं पाये हैं. हम आजादी की प्राप्ति की राह आसान करने में ही लगे हैं और किसी भी कठिनाई से जूझने से मुंह नहीं मोड़ने वाले.’
(ये लेखक के निजी विचार हैं)