भिक्षु जगदीश काश्यप के मन में मनुष्य मात्र के लिए असीम करुणा होना उनके जीवन का स्थाई भाव था. उनमें उक्ति और कृति के सुंदर समन्वय के दर्शन होते थे. अंतःकरण पर अंकित उनकी यादें काल की गति के साथ भी बिसर नहीं पायेंगी. प्रख्यात कलाकार/मूर्तिकार उपेंद्र महारथी, भिक्षु जगदीश काश्यप को कुछ इसी तरह याद करते हैं. बिहार के माध्यम से पूरे विश्व में बौद्ध व श्रमण परंपरा को नयी गति देने वाले जगदीश काश्यप का जन्म 2 मई, 1908 को रांची में हुआ था.
उनके पिता का नाम श्यामनारायण लाल, मां का बतासो देवी व पितामह का भिखारी लाल था. उनका पैतृक निवास गया जिले के खिदिर सराय का रोनिया गांव था. उन्होंने रांची से मैट्रिक उत्तीर्ण करने के बाद पटना विश्वविद्यालय से एफए, बीए व एमए किया. बाद में काशी हिंदू विश्वविद्यालय से दो अन्य विषयों में एमए किया. वे महर्षि दयानंद सरस्वती के विचारों से प्रभावित थे और आर्य समाज में उनकी रुचि थी. इस कारण वे आर्य समाज की सभाओं में भाग लेने लगे तथा उपदेशक बन गये.
पर श्रीलंका में उनका परिचय राहुल सांकृत्यायन से हुआ. सांकृत्यायन के संपर्क में आने के बाद उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया. जगदीश नारायण अब जगदीश काश्यप बन चुके थे. वहां से वे वापस अपने भाई के पास दरभंगा आये, फिर सारनाथ में रहने लगे. सनातनी से आर्य समाज, फिर बौद्ध दर्शन की ओर जाना उनकी जीवन यात्रा थी.
वे हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, पाली आदि भाषाओं के मर्मज्ञ थे. स्वराज्य प्राप्ति के बाद जब भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद के साथ वे बर्मा गये, तो अपने साथ बोध गया के पवित्र पीपल वृक्ष की शाखा भी लेते गये थे. वर्ष 1940 में काश्यप जी की नियुक्ति काशी हिंदू विश्वविद्यालय में पाली के प्राध्यापक के रूप में हुई. वर्ष 1951 की बात है, तब बिहार के शिक्षा मंत्री बद्रीनाथ वर्मा तथा शिक्षा सचिव प्रख्यात नाटककार जगदीश चंद्र माथुर थे.
माथुर साहब, काश्यप जी व अन्य महापुरुषों के प्रयत्न से यहां पाली संस्थान की स्थापना हुई जिसके निदेशक भिक्षु जगदीश काश्यप बनाये गये. उनके निदेशकत्व काल में ही डॉ राजेंद्र प्रसाद के हाथों ‘नव नालंदा महाविहार’ का शिलान्यास हुआ. इस महाविहार के भवन का उद्घाटन तत्कालीन राष्ट्रपति डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन के हाथों संपन्न हुआ. ह्वेन सांग मेमोरियल भवन भी भिक्षु जी की दृष्टि का ही परिणाम है. भिक्षु जी ह्वेन सांग के देहावशेष को प्राप्त करने चीन गये और वहां से अवशेष को नालंदा लेकर आये.
त्रिपिटक व पाली के प्रकाशित ग्रंथों को देवनागरी में रूपांतरित करने का महत् प्रयत्न काश्यप जी ने किया था. इन ग्रंथों के मुद्रण व प्रकाशन कार्य के लिए उन्होंने पाली संस्थान के निदेशक पद को त्याग दिया और स्थाई रूप से वाराणसी में रहने लगे. वाराणसी प्रवास के दौरान काश्यप जी ने संस्कृत विश्वविद्यालय, काशी में पाली विभाग के अध्यक्ष पद को सुशोभित किया.
ग्रंथों के देवनागरी रूपांतरण, संपादन, मुद्रण आदि के लिए उन्होंने घोर परिश्रम किया. पर अस्वस्थता के कारण वे अपने भाई के पास दरभंगा चले आये. अत: अपनी योजनाओं को समय से पूरा नहीं कर पाये. स्वास्थ्य में सुधार होते ही वे नालंदा आकर रहने लगे. पर यहां फिर से उनका स्वास्थ्य अपेक्षित रूप से गिरने लगा. जापान के बौद्ध गुरु फुजई गुरुजी के आदेश से उनके शिष्य काश्यप जी को राजगीर ले गये, वहां उनकी चिकित्सा सेवा की व्यवस्था की गयी. अंततः 28 जनवरी, 1976 को भिक्षु जगदीश काश्यप को निर्वाण की प्राप्ति हुई.
काश्यप जी उच्च कोटि के विद्वान व वक्ता थे. इस कारण पूरे विश्व में उनका मान था. उन्होंने पाली त्रिपिटक का 41खंडों में संपादन किया. उनकी प्रसिद्ध पुस्तकें हैं- पाली महाव्याकरण, खुद्धक निकाय का हिंदी अनुवाद (11 खंड), संयुक्त निकाय का हिंदी अनुवाद, पाश्चात्य तर्क शास्त्र, मिलिन्ह प्रश्न का हिंदी अनुवाद, बुद्धिज्म फॉर एवरीबॉडी (अंग्रेजी) आदि. वे स्वभाव से संत थे. जहां जाते थे उसी के हो जाते थे.
उन्होंने अनेक असहाय व्यक्तियों की सहायता की. उन्हें जरा भी अहंकार नहीं था. वे सबसे साधारण व्यक्ति की तरह मिलते, उनका सुख-दुख पूछते थे. जबकि फूजई गुरुजी से वे शून्यवाद पर गहन विवेचन करते थे. बिहार के राज्यपाल डॉ जाकिर हुसैन जब उनसे भेंट करने उनके मंदिर आये थे, तो वे चटाई पर बैठ पांडुलिपि देख रहे थे. डॉ जाकिर हुसैन भी चटाई पर बैठ उनसे बातें करने लगे. आकाशवाणी पटना के चतुर्भुज जी ने उन्हें कुछ इसी तरह याद किया है. नव नालंदा महाविहार के पूर्व निदेशक डॉ नथमल टाटिया ने उनको याद करते हुए लिखा है- ‘वे सचमुच बोधिसत्व थे.’