Bhimrao Ambedkar Birth Anniversary: दलितों के साथ-साथ महिलाओं की स्थिति में सुधार के भी पक्षधर थे भीमराव आंबेडकर
Bhimrao Ambedkar birth anniversary: भीमराव रामजी आंबेडकर अपनी दलित प्रतिबद्धता एवं दलित उत्थान के प्रयासों के कारण इतने चर्चित हैं कि उनकी अन्य उपलब्धियां इसकी आंच से धूमिल हो जाती हैं. उनके जीवनीकार धनंजय कीर ने भी इनके सामाजिक योगदान पर ही अधिक बल दिया है.
प्रो मुजतबा हुसैन
Bhimrao Ambedkar birth anniversary: गांधी ने, जिनसे भीमराव की कभी नहीं पटी, उनका अधिक संतुलित मूल्यांकन किया. गांधी ने कहा, भीमराव जितने मेधावी, जितने परिश्रमी और जितने निष्ठावान थे, उन्हें जीवन में सभी सांसारिक सुख अर्थात संपत्ति, प्रतिष्ठा और वैभव प्राप्त हो सकता था. भीमराव ने इनका परित्याग किया. उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन वंचितों, महिलाओं के उद्धार एवं देश के नवनिर्माण में लगा दिया.
भीम का जीवन संघर्ष
भीमराव की विचार यात्रा का अधिक समुचित विवेचन संभवत: उनकी जीवन यात्रा एवं कार्य यात्रा के एक संक्षिप्त विवरण के पश्चात् अधिक सुसंगत रूप से किया जा सकता है. भीमराव का जन्म एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में सेना के सूबेदार पिता, रामजी मालोजी सकपाल एवं उनकी घर सम्हालने वाली पत्नी, भीमा बाई सकपाल के घर में 14 अप्रैल 1891 को छावनी शहर मउ (अब मध्य प्रदेश) में हुआ.
भीमराव आंबेडकर की शिक्षा
आरंभ में मउ ही पढ़े. बाद में सतारा में पढ़ने लगे. उनका परिवार 1897 में बम्बई आ गया. यहां के एलफिंस्टन हाईस्कूल से उन्होंने मैट्रिक पास किया और फिर प्रतिष्ठित एलफिंस्टन कॉलेज से अच्छे अंकों के साथ बीए पास किया. वे मेधावी थे. तमाम तिरस्कारों और उत्पीड़न के बावजूद पढ़ाई में दिल से लगे रहे. इस पढ़ाई में बड़ौदा के प्रगतिशील शासक ने उनकी खूब मदद किया. बीए के बाद उन्हीं की नौकरी में लग गये. बड़ौदा के शासक ने 1913 में भीमराव को एक छात्रवृत्ति प्रदान कर आगे की पढ़ाई के लिये अमेरिका भेज दिया. उन्होंने न्यूयॉर्क के कोलंबिया विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र भी पढ़ा और समाजशास्त्र भी पढ़ा. एमए के शोध प्रबंध के लिये जाति के संबंध में लिखा. 1916 में भीमराव ने अमेरिकी समाज शास्त्र परिषद में जाति व्यवस्था के संबंध में व्याख्यान दिया. यही आगे चलकर एक पुस्तिका के रूप में प्रकाशित भी हुआ. भीमराव ने अमेरिका से इंग्लैंड आकर लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में एडमिशन लिया. इसी बीच बड़ौदा से उनका बुलावा आ गया. उन्हें सेना सचिव का पद दिया गया. ये काम उन्हें रास नहीं आया. इसे छोड़ दिया.
सदाशयी साहू जी महाराज ने आंबेडकर को लंदन जाने में मदद की
बम्बई में उन्होंने ट्यूशन किया, नाइट कॉलेज में अंशकालिक शिक्षक के रूप में पढ़ाया. वे पुन: लंदन जाना चाहते थे. इसके लिये पैसे बचाने लगे. साथ-साथ सार्वजनिक जीवन में हिस्सा लेने लगे. 1920 में मूकनायक नामक साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया. इस काम से उनके साथ अनेक सामाजिक कार्यकर्ता जुड़ने लगे. अधिकांश दलित थे पर कुछ अन्य भी थे. लंदन जाने के लिये एक पारसी मित्र से कर्ज भी लिया. इसी बीच उनकी इच्छा की खबर सुनकर कोल्हापुर के सदाशयी साहू जी महाराज ने लंदन जाने में उनकी मदद की. लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में अनेक विषय पढ़ाये जाते थे. उन्होंने अर्थशास्त्र पढ़ा. रुपये के अर्थशास्त्र पर पीएचडी शोध प्रबंध लिखा. साथ-साथ कानून की पढ़ाई कर बार एट लॉ भी बन गये. बम्बई लौटे और बार जॉइन किया. वकालत चल निकली. वे सामाजिक कार्यों में जोरशोर से लगे.
1920 से 1930 के दशक में भीमराव सबसे सक्रिय रहे
1920 से 1930 का दशक भीमराव के सार्वजनिक जीवन में सबसे सक्रिय दशक था. दलित आंदोलन का सूत्रपात तो 1820 में ही पूर्वी बंगाल में नाम आंदोलन के रूप में हो गया था. कांग्रेस ने भी 1917 में ही अछूतों के उद्धार के लिये आंदोलन किया था. भीमराव की दलितों के प्रति प्रतिबद्धता अद्भुत थी. इसका मुकाबला न तो कांग्रेस के एमसी राजा और न ही बाबू जगजीवन राम कर सके. 1927 में भीमराव ने महाड़ शहर में दलितों के लिये निषिद्ध चवदार तालाब में सामूहिक रूप से पानी पिया. इस आंदोलन के क्रम में भीम ने अपने अनुयायियों को फ्रांसीसी क्रांति का पाठ पढ़ाया. इसी वर्ष अप्रैल में मराठी पाक्षिक ‘बहिष्कृत भारत’ का प्रकाशन आरंभ किया. दिसंबर 1927 में भीमराव ने मनुस्मृति का सामूहिक दहन किया. 1929 में पार्वती मंदिर एवं 1930 में कला राम मंदिर प्रवेश के लिए सत्याग्रह किया. 1927 में सामूहिक कार्यों में योगदान के लिए ब्रिटिश सरकार ने भीमराव को बम्बई विधान–परिषद में मनोनीत किया. यह अंग्रेजों की कुछ अंशों में फूटपरस्त नीति का परिचायक था. उन्होंने महात्मा फुले को भी बम्बई परिषद में नामित किया था. 1928 में जॉन साइमन के नेतृत्व में भारत के लिए नियमावली बनाने के खातिर एक सात सदस्यीय अंग्रेज समिति भारत आयी. कांग्रेस ने इसका भारतीय सदस्य नहीं होने के कारण बहिष्कार किया. भीमराव ने दलितों को विशेष सुविधा देने की मांग करते हुए समिति को प्रतिवेदन सौंपा. भीमराव अपने विचारों को प्रचारित करने के लिए 1930 में ‘जनता’ नामक साप्ताहिक का प्रकाशन आरंभ किया.
1931 के सम्मेलन में गांधी और आंबेडकर में ठन गयी थी
भारत के प्रशासन और नियंत्रण के लिए ब्रिटिश सरकार नियमावली बनाना चाहती थी. इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए, उन्होंने लंदन में गोलमेज यानी सभी पक्षों का सम्मेलन आयोजित किया. 1930, 1931 और 1932 में तीन बार सम्मेलन हुआ. आंबेडकर सभी में सम्मिलित हुए. कांग्रेस केवल एक बार 1931 में गांधी के नेतृत्व में सम्मिलित हुई. 1931 के सम्मेलन में गांधी और आंबेडकर में ठन गयी. गांधी ने कहा वे सभी भारतीयों के नेता, भीमराव ने कहा आप केवल सवर्णों के नेता हैं. इन सम्मेलनों की परिणति 1932 का सांप्रदायिक पंचाट था. दलितों संग मुस्लिम, ईसाई, सिख आदि के अलग-अलग चुनाव क्षेत्र बने. गांधी को हिंदू एकता की चिंता थी. अछूतों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र की भनक मिलते ही वे अनशन पर चले गये. उस समय गांधी पुणे के पास यर्वदा जेल में बंद थे. पूरे भारत में दलित विरोधी माहौल बन गया. भीमराव हिलने को तैयार नहीं; गांधी डिगने को तैयार नहीं. कस्तूरबा ने अपनी सुहाग की खैर चाही. भीमराव तैयार हो गये. पुणे की संधि पर सवर्णों की ओर से मदन मोहन मालवीय और दलितों की ओर से भीम राव ने हस्ताक्षर किया. इस संधि की शर्तें थीं; दलितों के लिए विशेष चुनाव क्षेत्र, उनके लिए नौकरी में आरक्षण और उनके लिए शिक्षा में सुविधाएं. गांधी ने कहा 15 वर्षों में वे दलितों के प्रति सभी अवमाननाओं को समाप्त कर देंगे. 15 वर्षों में देश तो आजाद हो गया; अवमाननाएं जस की तस बनी रहीं.
भीमराव ने चाहा जाति व्यवस्था जड़ मूल से समाप्त हो
नेहरू भी गांधी की तरह मानते थे जाति व्यवस्था में सभी बुराइयों के बावजूद हिंदू समाज को बांधे रखने की क्षमता है. भीमराव जाति व्यवस्था को दलितों के लिए सबसे शक्तिशाली काल कांटा मानते थे. भीमराव ने चाहा जाति व्यवस्था जड़ मूल से समाप्त हो. उन्होंने इस बात को समझ लिया; जाति व्यवस्था की आत्मा अपनी जाति में विवाह का नियम है. एक ही जाति के सदस्यों का आपसी सहयोग जाति व्यवस्था का शरीर है एवं जाति की राजनीतिक भूमिका इसका जीवन सार है. इसीलिए भीम राव ने कहा जाति व्यवस्था को समाप्त करने का एकमात्र सार्थक उपाय जातियों में अंतर्जातीय विवाह है. गांधी ने इस बात का बड़ा विरोध किया. 1935 में लाहौर में सामाजिक कार्यकर्ता भाई परमानंद ने एक जातपात तोड़ो सम्मेलन आयोजित करने का मन बनाया. भीमराव को अध्यक्ष के रूप में आमंत्रित किया. गांधी ने इस सम्मेलन के विचार का विरोध किया. सम्मेलन स्थगित हो गया. भीमराव नाराज हो गये. इस सम्मेलन के लिए तैयार अपने प्रतिवेदन को 1936 में भीमराव ने ‘एनीहिलेशन ऑफ कास्ट’ नाम से प्रकाशित किया. भीमराव ने कांग्रेस के प्रथम अध्यक्ष उमेश चंद्र बनर्जी के शब्दों को दोहराते हुए लिखा, उमेश ने कहा था राजनीतिक सुधार, सामाजिक सुधार के लिए रुक नहीं सकते हैं. आंबेडकर ने कहा सवर्ण नेताओं की मंशा समाज सुधार नहीं सत्ता प्राप्त करना है.
इसी बीच भारत सरकार अधिनियम 1935 के अधीन चुनावों की घोषणा हो गयी. भीमराव ने 1936 में इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी का गठन किया. 1937 के चुनाव में इस पार्टी को 11 आरक्षित सीटें और तीन अनारक्षित सीटों पर कामयाबी मिली. इस चुनाव के बाद कांग्रेस और लीग में भारत का प्रस्तावित संघ कैसा हो इस पर विवाद होने लगा. भीमराव ने एक समाधान के रूप में 1939 में ‘फेडरेशन वर्सेस फ्रीडम’ लिखा. 1940 में ब्रिटिश सरकार ने आंबेडकर को वायसराय के कार्यकारी परिषद में श्रम सदस्य या श्रम मंत्री बनाया. पाकिस्तान का मसला गरमा रहा था. भीम राव ने 1943 में ‘थॉट्स ऑफ पाकिस्तान’ लिखा, इसी वर्ष उन्होंने ‘रानाडे, गांधी और जिन्ना’ नाम की किताब लिखी.
1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में वे एकदम ही शरीक नहीं हुए. उन्हें उम्मीद थी कि आजाद भारत में अंग्रेज अस्पृश्यों को विशेष सुविधा देंगे. गांधी से वे नाराज थे. 1945 में उन्होंने ‘मिस्टर गांधी एंड इमेनशिपेशन ऑफ अनटचेबलस’ लिखा. एक तरफ आजादी का संघर्ष, दूसरी तरफ अंग्रेजों के उकसावे पर पाकिस्तान के लिये जिन्ना की जिद एवं भीमराव की दलित चिंता ने उनके लिये कशमकश की स्थिति पैदा कर दी. 1945 में उन्होंने ‘पाकिस्तान एंड पार्टीशन ऑफ इंडिया’ लिखा. 1947 में भीमराव ने अपनी पुस्तक ‘स्टेट एंड माइनॉरिटीज’ में भारत का एक संविधान ही लिख दिया.
1946 में ही एक संविधान सभा गठित हुई. 1946-1947 तक आंबेडकर बंगाल से इसके सदस्य रहे. देश आजाद हुआ. गांधी ने नेहरू और पटेल से कहा – इस सभा में हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, सिख सभी हैं. अस्पृश्य नहीं हैं. भीमराव से अपने तमाम विरोधों के बावजूद गांधी उन्हें संविधान सभा का सदस्य बनाने पर अड़ गये. कांग्रेस ने उन्हें बम्बई से निर्वाचित करवाया, वे कानून मंत्री बने. संविधान लिखने के लिए जो प्रारूप समिति बनी, उन्हें उसका अध्यक्ष बनाया गया. आंबेडकर ने 1951 में मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया, तब तक संविधान बन भी गया और लागू भी हो गया.
इन तमाम गतिविधियों के बीच आंबेडकर का लेखन कार्य चलता रहा. उन्होंने अपने लिए एक लेखक सहायक नियुक्त कर लिया. 1948 में भीमराव ने ‘हू वेयर दि शुद्रा’ लिखा. इसी वर्ष ‘महाराष्ट्र एज लिंग्विस्टिक प्रोविंस’ लिखा. फिर ‘द अनटचेबलस’ लिखा. 1952 में ‘बुद्ध एंड मार्क्स’ लिखा. 1937 में ही उन्होंने कह दिया था कि मैं हिंदू पैदा हुआ हूं, हिंदू मरूंगा नहीं”. गांधी उन्हें मनाने के लिए बार-बार उनसे मिले. 1956 में अंतत: अपने मृत्यु से छ: सप्ताह पहले नागपुर में अपने छ: लाख अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म अपना लिया. नागपुर इसी कारण से दीक्षा भूमि कहलायी. उनकी बाकी पुस्तकें जैसे ‘बुद्ध एंड हिज धम्म’, ‘रिडल्स इन हिंदूइज्म’, ‘व्हाट कांग्रेस एंड गांधी हैड डन विथ अनटचेबलस’ नामक पुस्तकें उनकी मृत्यु के बाद ही प्रकाशित हुईं.
इस विवरण से हम सारांश रूप में कह सकते हैं भीमराव एक विराट व्यक्तित्व के मालिक थे. उन्होंने सामाजिक क्षेत्र में न केवल दलित सुधार को अपना जीवन लक्ष्य बना लिया बल्कि महिला सुधार की जबरदस्त वकालत की. आंबेडकर ने कहा यदि आप किसी समाज की स्थिति को जानना चाहते हैं तो सबसे पहले उस समाज की स्त्रियों की स्थिति को जानिए. भीमराव ने संविधान में एक कलम से तमाम वयस्क महिलाओं को मताधिकार का प्रस्ताव किया. यह ध्यातव्य है कि उस समय तक विश्व के नब्बे प्रतिशत देशों में महिलाओं को मताधिकार नहीं था. मुसलमानों के बारे में भीमराव ने कहा कुछ ही मुसलमान भारत से पाकिस्तान गये है. अधिकांश यहीं रह गये. उन सबों को नागरिकों का सभी अधिकार देना होगा. आदिवासियों के संबंध में उन्होंने कहा ये ही देश के मूल निवासी है. भारत के संसाधनों पर सबसे पहला अधिकार इन्हीं का है.
आंबेडकर पूंजीवाद के समर्थक थे, साम्यवादी एवं समाजवादी राज्य नियंत्रण उन्हें पसंद नहीं था. वे प्रत्येक व्यक्ति को अपनी पसंद और अपनी योग्यता के अनुसार अपना व्यवसाय चुनने का अधिकार देना चाहते थे. उन्होंने कहा वैज्ञानिक आधार पर भारत का तेजी से औद्योगिक विकास होना चाहिए. गांधी के विपरीत वे बड़े-बड़े कारखाने और व्यापक व्यापार के पक्षधर थे. अमेरिकी प्रवास का उनपर अधिक प्रभाव था. इंग्लैंड के सामाजिक जनवाद से वे अछूते रह गए. वास्तव में भीमराव नहीं चाहते थे कि सदियों से वंचित दलित समाजवादी संयम का शिकार बन जाएं.
राजनीति में वे लोकतंत्र के पक्षधर थे, रामचंद्र गुहा ने उन्हें चतुर लोकतंत्रवादी कहा है. वे गणतंत्र के पुजारी थे, जन्म के आधार पर किसी भी प्रकार की विशेष सुविधा नहीं देना चाहते थे. भीमराव आंबेडकर की भारत को उनकी सबसे बड़ी देन उसका लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, लोकपक्षी, गणतांत्रिक संविधान है. भारत का संविधान बहुआयामी है; यह एक आदर्श है, एक कसौटी है, सकारात्मक सामाजिक परिवर्तन का दिशानिर्देश है और सबसे बड़ी बात सामाजिक कल्याण और लोकहित का दस्तावेज है. इसके अनेक स्रोत हैं. रामचंद्र गुहा के अनुसार इसके असली रूपाकार भीमराव आंबेडकर ही हैं. उनका यही योगदान उन्हें भारत का एक महान राष्ट्र नायक बनाता है.
(लेखक झारखंड के पूर्वी सिंहभूम जिले में नरसिंहगढ़ में पैदा हुए. स्कूली शिक्षा नेतरहाट में मिली. तत्पश्चात् पटना विश्वविद्यालय के विद्यार्थी और शिक्षक रहे. संप्रति लेखन कार्य में लगे हैं. उनके द्वारा लिखित समाजशास्त्रीय विचार, सोसाइटी इन इंडिया आदि पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं.)