प्रभु चावला, एडिटोरियल डायरेक्टर, द न्यू इंडियन एक्सप्रेस
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यह एक मित्र के लिए शोकगीत नहीं है. यह संबंधों का खट्टा-मीठा उत्सव है. लोग त्याज्य होते हैं, पर व्यक्ति नहीं. जो व्यक्ति अपने व्यक्तिव और अदृश्य असाधारणता से संस्थाओं को आकार देते हैं, वे स्वयं संस्थान बन जाते हैं. ऐसी ही एक उपस्थिति अहमद पटेल थे, जो सबसे पुराने राजनीतिक दल के रणनीतिकार थे, प्रधानमंत्रियों और कांग्रेस प्रमुखों के मार्गदर्शक और मित्र थे तथा ऐसे संधिकार थे, जो राजनीतिक हदबंदी से परे जाकर दूसरों को समझा-बुझा सकते थे. भारतीय राजनीति के इस नये दौर में केवल व्यक्ति ही हैं, जो विमर्श और दिशा को अधिकारपूर्वक नियंत्रित कर सकते हैं. विचारधाराएं लेन-देन की वस्तु हैं. व्यक्ति ही जोड़नेवाले, प्रभावित करनेवाले, समन्वयक और मध्यस्थ हैं.
पटेल एक ऐसे विशिष्ट व्यक्ति थे. उनका 71 वर्ष की आयु में असमय निधन का राष्ट्रीय प्रभाव न केवल कांग्रेस पर, बल्कि संपूर्ण राजनीतिक आख्यान पर होगा. वे कई विशिष्टताओं से भरे एक फकीर थे- समर्पित, मितभाषी, परिश्रमी, किंतु मुस्कुराहट के साथ रहस्यात्मक भी. वे संकोची कांग्रेसियों में सबसे अधिक दिखते रहते थे. अब जब कांग्रेस ने अपने अतीत और वर्तमान तथा बुजुर्ग और युवा के बीच की विश्वसनीय कड़ी को खो दिया है, बिखरे हुए राष्ट्रीय विपक्ष को आपस में और कांग्रेस के साथ जुड़ने में बड़ी मुश्किल होगी. अहमद पटेल विचार भी थे और विचारक भी, जो पहले की कांग्रेस को परिभाषित करते थे, जहां सौम्य शत्रुता क्षणिक थी.
दो बार की बड़ी हार के बावजूद अपनी पार्टी को प्रासंगिक बनाये रखने के पीछे की वे शक्ति थे, वह अदृश्य हाथ, जो अपने बहुत दिखनेवाले मुख्य प्रतीकों की राजनीतिक प्रासंगिकता सुनिश्चित करते थे. ऐसे समय में जब 1969 में इंदिरा गांधी के सामने हुए विद्रोह के बाद पहली बार नेतृत्वकारी परिवार को आंतरिक विद्रोह का सामना करना पड़ रहा है, पटेल ने इस असंतोष को मौखिक विरोध तक सीमित रखा और इस गुस्से को तख्तापलट में बदलने नहीं दिया. उनके जाने के बाद परिवार को वैसा समर्पित दूत नहीं मिलेगा, जो उनके संदेश को उनके अनुयायियों तक पहुंचा सके. अहमद पटेल वह पुजारी थे, जो ईश्वरों के आशीर्वाद को उनके भक्तों को बिना अपना मंत्र मिलाये पहुंचाता था.
एक सौ तीस साल की कांग्रेस अब राजनीतिक दमे से थक चुकी है. पटेल इसकी एकमात्र दवाई थे. बिहार चुनाव में पार्टी की बेहद निराशाजनक प्रदर्शन के बाद गांधी परिवार की चुनावी क्षमता सवालों के घेरे में हैं. कांग्रेसियों का बड़ा बहुमत मानता है कि परिवार अपराजेय मोदी को पछाड़ नहीं सकता है. उन्हें लगता है कि न केवल परिवार देश के सामने वैकल्पिक एजेंडा देने में विफल रहा है, बल्कि उसने मामूली समर्थन और बिना विश्वसनीयता के नेताओं को बढ़ावा देकर संगठन को भी निराश किया है.
अहमद भाई के निधन के बाद कांग्रेस ने राष्ट्रीय विपक्ष का स्वर होने के अपने दावेदारी को खो दिया है. केवल वही थे, जो घमंडी और तुनकमिजाज विपक्षी नेताओं के साथ बैठकें कर सकते थे और सोनिया गांधी को चिंतामुक्त रख सकते थे. गांधी परिवार और पार्टी के कद्दावर नेताओं के बीच की सहजीविता भी कमजोर होती जा रही है. राहुल गांधी 16 साल से राजनीति में हैं और उनके हाथ में बिना उत्तरदायित्व के ढेर सारी शक्ति है. कांग्रेस में पहले कभी भी सत्ता के दो केंद्र नहीं होते थे.
साल 1998 में पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद से सोनिया गांधी हिचकोले खाते संगठन को चलाने के लिए अपने बच्चों और पटेल पर निर्भर रही हैं. वर्ष 2004 में एनडीए के सत्ता से हटाने के बाद उनके पास बड़ी ताकत आ गयी. उसी समय राहुल गांधी सांसद बने और फिर पार्टी के महासचिव. अपने पिता राजीव गांधी के उलट, जिन्होंने पार्टी में पेशेवर लोगों को लाने के साथ अपनी माता के विश्वासपात्रों के साथ भी संबंध कायम रखा था, राहुल गांधी ने एक सुरक्षित स्थान से संचालन करने का चयन किया, जहां पुराने कांग्रेसी योद्धाओं की पहुंच नहीं थी. अभी पार्टी अपने से ही जूझ रही है. सोनिया गांधी अस्वस्थ हैं और राहुल गांधी से अपेक्षा है कि वे न केवल कांग्रेस का अभिन्न हिस्सा होंगे, बल्कि पार्टी को नया नारा और रणनीति भी देंगे.
इसके अलावा गठबंधन की राजनीति के दौर में उन्हें दूसरी पार्टियों से संपर्क साधने में भी अपनी दक्षता का प्रदर्शन करना है. दुर्भाग्य से उन्होंने अपने दल या विपक्ष के वरिष्ठ नेताओं से संबंध बनाने की प्रवृत्ति नहीं दिखायी है. वैकल्पिक राष्ट्रीय राजनेता के रूप में राहुल गांधी के उभार की अक्षमता का संभवत: कारण कांग्रेस का अपना वातावरण है. वास्तविक नेता त्याग और नयेपन से बनाते हैं, जैसे आक्रामक सामंजस्य के द्वारा इंदिरा गांधी और सोनिया गांधी ने प्रतिष्ठा, अधिकार और संभाव्यता को पाया था. इंदिरा गांधी ने सांगठनिक क्षमता दिखायी और नयी पार्टी बनाकर वैकल्पिक संगठन खड़ा कर दिया. प्रधानमंत्री होना उनका घातक हथियार था. कांग्रेस इंदिरा गांधी बन गयी. उनकी हत्या के बाद दंगों और दुख की पृष्ठभूमि में राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने.
वे भले दूसरा चुनाव हार गये, किंतु वे अपनी पार्टी और विपक्ष को साथ लेकर चल सके क्योंकि वे पूर्व प्रधानमंत्री थे, कोई सामान्य गांधी नहीं. परिवार ने पार्टी और सत्ता को नरसिम्हा राव के दौर में खो दिया, जो पार्टी पर पकड़ नहीं रख सके. सीधे नियंत्रण लेने की जगह सोनिया गांधी और उनके समर्थकों ने सीताराम केसरी को आंतरिक अध्यक्ष बना दिया, जो 1998 में हाटा दिये गये और सोनिया गांधी ने उनकी जगह ली. तब से 2004 तक वे विरोधियों को जोड़ने में लगी रहीं और वे किसी को भी साथ लेने के लिए तैयार थीं. उन्होंने एक गैर-भाजपा सरकार बनायी, पर प्रधानमंत्री पद त्यागकर वे सत्तारूढ़ गठबंधन की सबसे मान्य नेता बन गयीं. वे प्रधानमंत्री से भी ताकतवर हो गयीं क्योंकि उन्होंने एक असाधारण त्याग किया था.
लेकिन राहुल गांधी में ऐसे गुण नहीं हैं. उनके समर्थक मानते हैं कि उन्होंने मंत्री या प्रधानमंत्री न बनाकर भूल की थी, जब मनमोहन सिंह ने उनके लिए पद छोड़ने की पेशकश की थी. समर्थकों का मानना है कि ऐसा करने से उनके व्यक्तित्व को एक आभा मिल जाती. साल 2014 में कांग्रेस की हार निश्चित थी, लेकिन पूर्व प्रधानमंत्री के रूप में, पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में नहीं, राहुल गांधी विभाजक नहीं, बल्कि जोड़नेवाले व्यक्ति होते. उन्होंने पटेल जैसे नेता को दरकिनार किया और वरिष्ठ चेहरों को नजरअंदाज किया. अब जब देश को एक स्वस्थ विपक्ष की आवश्यकता ही, तब कांग्रेस में कोई ऐसा नहीं है, जो पार्टी नेताओं को एक साथ ला सके. अहमद पटेल का जाना उद्देश्य को पूर्ण समर्पित व्यक्ति का जाना है.
(ये लेखक के निजी विचार है)
Posted by : Pritish sahay