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अदृश्य जातियों की पहचान जरूरी

शायद ही कोई ऐसा गांव होगा, जहां अति पिछड़ी जातियां निवास न करती हों, लेकिन ये सभी जातियां इतनी कम और बिखरी हुई हैं कि कोई भी दल इनकी समस्याओं को सुनना नहीं चाहता है.

पंकज चौरसिया

शोधार्ती, जामिया मिलिया इस्लामिया

बिहार सरकार के जातिगत सर्वे के आंकड़े सार्वजनिक करने से पूरे देश की सियासत गरमा गयी है, तथा राजनीति सामाजिक न्याय के मुद्दों पर आकर टिक गयी है, क्योंकि अगले वर्ष लोकसभा चुनाव होने वाले हैं. इन आंकड़ों ने बिहार की राजनीति में आनुपातिक आरक्षण की मांग को बढ़ावा दिया है. अभी इन आंकड़ों के आधार पर ज्यादा कुछ कहना समझदारी नहीं है, लेकिन यह तय हो गया है कि बिहार और संपूर्ण देश की नजरें अत्यंत पिछड़े समूहों के वोट पर आकर टिक गयी है. इसकी वजह यह है कि सर्वे की रिपोर्ट के लिहाज से, बिहार में सबसे बड़ी आबादी अत्यंत पिछड़े वर्ग की है, जो कुल आबादी के करीब 36 फीसदी से अधिक हैं. इससे बिहार की सामाजिक बनावट की स्थिति का तो पता चल रहा है, लेकिन संपूर्ण देश में अतिपिछड़ों की सामाजिक स्थिति कैसी है, यह भी पता चलना चाहिए. लिहाजा, नीतीश कुमार ने जातिगत जनगणना के लिए केंद्र सरकार पर दबाव बनाने का काम कर दिया है.

बिहार की कुल आबादी में अत्यंत पिछड़े वर्ग का अनुपात बढ़ गया है, जिससे कई तरह के सामाजिक-राजनीतिक घटनाक्रम की जांच की जानी चाहिए. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि यह वर्ग सबसे अधिक गरीब है. इस वर्ग में अधिकांश जातियों के लोग विभिन्न कुटीर उद्योगों, सेवाओं व दस्तकारियों, बागवानी करने, मछली पकड़ने, मिट्टी के बर्तन बनाने, घरेलू कार्य, पानी भरने और पानी पिलाने, जूठे बर्तन साफ करने, हाथ-पैरों की मालिश करने और बाल काटने आदि कार्यों से जुड़े हुए हैं. इनकी स्थिति वैश्वीकरण के बाद और भी खराब हो गयी है. गरीबी के कारण शिक्षा की जागरूकता की कमी रही, जिससे इनका सामाजिक-आर्थिक व शैक्षिक विकास बाधित हुआ है.

वर्ष 1980 में मंडल रिपोर्ट को राष्ट्रपति को सौंपे हुए 43 वर्ष हो चुके हैं, लेकिन आयोग के एकमात्र दलित सदस्य एलआर नाइक ने इसकी सिफारिशों पर हस्ताक्षर करने से क्यों इनकार कर दिया, इस पर चर्चा बाकी है. रिपोर्ट प्रस्तुत करते समय आयोग के अध्यक्ष बीपी मंडल ने राष्ट्रपति को पत्र लिखकर बताया कि नाइक के असहमति नोट पर आयोग आम सहमति क्यों नहीं बना सका. यह असहमति नोट रिपोर्ट के शुरुआती भाग का हिस्सा है. वीपी सिंह ने जब मंडल रिपोर्ट को लागू किया, तब भी रिपोर्ट के पहले पन्ने को नजरअंदाज कर दिया गया. मंडल विवाद के दौरान कांग्रेस ने भी रिपोर्ट पर कोई खास बहस नहीं की, जबकि कांग्रेस के थिंक टैंक को नाइक के असहमति नोट के बारे में पता था. यदि कांग्रेस ने तब बहस की होती, तो शायद मोदी सरकार को जस्टिस रोहिणी कमीशन का गठन नहीं करना पड़ता, और राहुल गांधी को ‘जिसकी जितनी आबादी, उतना हक’ का नारा नहीं देना पड़ता.

नाइक ने असहमति नोट में लिखा था कि ओबीसी दो बड़े सामाजिक समूहों से बना एक वर्ग है- जमींदार ओबीसी, जिन्हें उन्होंने मध्यवर्ती पिछड़ा वर्ग बताया, और कारीगर ओबीसी, जिन्हें उन्होंने दलित पिछड़ा वर्ग बताया. उनका मानना था कि ओबीसी के अंदर एक कृषक वर्ग है और दूसरा वर्ग उन जातियों का है जो कारीगरी और बागवानी करके अपना जीवन यापन करती हैं. ये जातियां अधिकतर भूमिहीन हैं. वैश्वीकरण के बाद इनके हुनर और कौशल पर वज्रपात हुआ है. कुल मिलाकर मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने से किसान जातियां तो समृद्ध हुईं, लेकिन कारीगर, सेवादार, हुनरमंद और बागवानी करने वाली जातियों की स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया.

इस स्थिति को देखते हुए 12 राज्यों ने ओबीसी आरक्षण को दो या दो से अधिक भागों में बांटने का काम किया. बिहार में सबसे पहले कर्पूरी ठाकुर ने वर्ष 1977-78 में मुंगेरी लाल कमीशन की रिपोर्ट लागू करते हुए आरक्षण को दो भागों में बांट दिया. वर्गीकरण के कारण ही मुख्य रूप से बिहार और तमिलनाडु में अत्यंत पिछड़ी जातियों की राजनीतिक और शैक्षणिक स्थिति में सकारात्मक बदलाव देखा गया. ये अत्यंत पिछड़ी जातियां सामाजिक-शैक्षणिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से बेहद कमजोर हैं व संख्या के आधार पर छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटी हुई हैं. ऐसी स्थिति में अत्यंत पिछड़ी जातियों को आरक्षण का उचित लाभ मिलना बहुत कठिन है. नाइक के अनुसार, मध्यवर्ती पिछड़े (यादव, कुर्मी, जाट, कोइरी, गुर्जर और अन्य) अपेक्षाकृत संपन्न हैं, जबकि सबसे पिछड़े वर्ग, आर्थिक व सामाजिक रूप से हाशिये पर हैं. इसलिए उन्होंने इन जातियों के हितों की रक्षा के लिए आरक्षण को विभाजित करने का सुझाव दिया.

उन्हें डर था कि उच्च ओबीसी के लोग आरक्षण पर एकाधिकार कर लेंगे. ठीक ऐसी ही सिफारिशें छेदी लाल साथी आयोग ने भी दी थी जिसका गठन अक्तूबर 1975 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री एचएन बहुगुणा ने किया था. इस आयोग ने पिछड़े वर्गों की तीन श्रेणियां बनायीं, और कुल 29.5 फीसदी आरक्षण की सिफारिश की. पहली श्रेणी में भूमिहीन और अकुशल मजदूरों को 17 प्रतिशत, दूसरी में कारीगरों और किसानों को 10 प्रतिशत आरक्षण और तीसरी श्रेणी में मुस्लिम पिछड़ी जातियों को 2.5 प्रतिशत आरक्षण देने का सुझाव दिया. लेकिन सरकार ने आयोग की सिफारिशों को लागू नहीं किया. ठीक इसी प्रकार, कर्नाटक सरकार ने 1980 में वेंकटस्वामी कमीशन बनाया. इसे लेकर कर्नाटक में काफी विवाद हुआ क्योंकि इसने रिपोर्ट में वोक्कालिगा और लिंगायत समुदाय को अन्य जातियों की अपेक्षा अधिक समृद्ध बताया, इसलिए इसकी अनुशंसाओं को लागू नहीं किया जा सका.

अब जरूरत है कि अति पिछड़ी जातियों की पहचान की जाए और उनकी सामाजिक-आर्थिक रिपोर्ट तैयार की जाए, ताकि पता चल सके कि उनकी समस्याएं किस प्रकार भिन्न हैं. उनके बारे में लोगों को बहुत कम जानकारी है. ये बिखरे हुए और पूरे भारत में फैले हुए हैं. शायद ही कोई ऐसा गांव होगा, जहां अति पिछड़ी जातियां निवास न करती हों, लेकिन ये सभी जातियां इतनी कम और बिखरी हुई हैं कि कोई भी राजनीतिक दल इनकी समस्याओं को सुनना नहीं चाहता है. समस्या इसलिए भी उत्पन्न हुई क्योंकि हर क्षेत्र में केवल कुछ ही लोगों को लाभ मिलता है और एक बड़ा समूह वंचित रह जाता है. इन समुदायों की संख्या सबसे अधिक है और ये सबसे अधिक वंचित हैं. इसलिए इनके लिए लोहिया के दिये विशेष अवसर के सिद्धांत को अपनाना होगा. इन जातियों के पेशे के आधार पर आरक्षण का वर्गीकरण करने से ही इन्हें मुख्यधारा का हिस्सा बनाया जा सकेगा.

(ये लेखकों के निजी विचार हैं.)

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