शशांक, पूर्व विदेश सचिव
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जिस तरह से चीन की विस्तारवादी नीतियां रही हैं, उससे कई पड़ोसी देशों के साथ टकराव की स्थिति बनी है. भारत में भी चीन के विस्तारवाद को रोकने के लिए जनता में एक आम सहमति बनी है. आम जनता चाहती है कि चीन के खिलाफ भारत स्वयं को मजबूत करे. राजनीतिक विरोधी पार्टियां खासकर राष्ट्रीय दल भी इस बात को मानते हैं कि चीन के खिलाफ भारत को सख्त रुख अपनाना चाहिए. सभी चाहते हैं कि भारतीय सेना चीन के हर दुस्साहस का मुंहतोड़ जवाब दे. भारत ने पहले अमेरिका के साथ कुछ समझौते किये थे. उसमें बेका समझौता (बेसिक एक्सचेंज एंड कोऑपरेशन एग्रीमेंट) एक अहम कड़ी है. क्षेत्रीय हालातों के मद्देनजर ऐसे समझौते की बहुत जरूरत थी. यह बहुत ही उचित समय पर हुआ है, क्योंकि चीन जिस अाक्रामकता से अपने प्रभाव को बढ़ा रहा था, उसके जवाब में यह आवश्यक हो गया था. इससे भारत को अपनी तैयारी बेहतर करने में मदद मिलेगी.
दूसरा, अब चीन को समझ में आ जायेगा कि विस्तारवाद की नीतियों से वह कामयाब नहीं हो सकता. पड़ोसी देशों खासकर पाकिस्तान, नेपाल को वे हमारे खिलाफ भड़का रहे हैं. पाकिस्तान में तो हमारी जमीन पर वे अवैध तरीके से दाखिल हो गये. चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर और कई बांध वगैहरा बनाना शुरू कर दिया था. वैधानिक तौर पर वह हमारी जमीन है. इसके अलावा श्रीलंका, अफगानिस्तान, ईरान, म्यांमार समेत कई हमारे पड़ोसी देशों में चीन बढ़त बनाने में लगा हुआ है. उन्होंने भूटान को धमकाने की कोशिश की. डोकलाम में जमीन हड़पने की कोशिश की, तो भारत ने सख्त विरोध दर्ज कराया. करीब 70-75 दिनों तक गतिरोध बना रहा. वहीं, नेपाल जैसे देश चीनी पाले में चले गये.
हालांकि, नेपाल के रुख में परिवर्तन आया है. उन्हें अब पता चल गया है कि चीन उनका सगा नहीं है. बेका समझौता भारत के साथ-साथ एशिया के अन्य देशों के लिए भी जरूरी है. भारत-अमेरिका रणनीतिक साझेदारी सभी के हित में है. क्वाड के अंतर्गत जो सैन्य अभ्यास हो रहे हैं, उससे एशिया में शांति बनी रहेगी. एक बात सबसे अहम है कि अगर अमेरिका वाकई में भारत के हितों को आगे बढ़ाना चाहता है, तो उसे हमारे पड़ोसी देशों के साथ थोड़ा सहूलियत बरतने की जरूरत है. ईरान और म्यांमार में उनके अपने प्रतिबंध लगे रहते हैं, जिससे भारत को बहुत नुकसान होता है और वहां चीन घुसता चला जाता है.
हमने ईरान और अफगानिस्तान के साथ त्रिपक्षीय साझेदारी बनायी थी. लेकिन, वहां अपनी ढांचागत सुविधाओं जैसे रेल आदि का विस्तार नहीं कर सकते. चाबहार बंदरगाह पर तो उन्होंने हमें छूट दे दी है, लेकिन बाकी अन्य स्थानों के लिए सहूलियत नहीं है. हमने तेल, गैस की आपूर्ति बंद कर दी, तो ईरान अब वहां हमें हटाकर चीन को बुलाना चाहता है. चीन ने ईरान में 400 बिलियन डॉलर के निवेश की घोषणा की है. पड़ोसी देशों में पाकिस्तान ही हमारा दुश्मन नहीं है, बल्कि अन्य देशों को भी चीन हमारे खिलाफ खड़ा करने में लगा हुआ है. अमेरिका हमारे साथ दोस्ती कर रहा है, लेकिन हमारे पड़ोसी देशों में वह हमारी ही स्थिति को कमजोर कर रहा है.
भारत-अमेरिका समझौते पर आयी पाकिस्तान की प्रतिक्रिया पर हमें ध्यान देने की जरूरत नहीं है. उनका मकसद ही केवल दुश्मनी बढ़ाना और आतंकवाद को फैलाना है. उसने तो यह भी कह दिया कि अमेरिका उसे खराब हथियार दे रहा था, चीन अब अच्छे हथियार दे रहा है. भारत को भी कुछ दिनों बाद समझ में आ जायेगा. पाकिस्तान के नेताओं ने कहा कि अमेरिका उनका बुद्धू बनाता रहा. हालांकि, पाकिस्तान का अपना एजेंडा है. एशिया के अन्य देशों- ताइवान, जापान, दक्षिण कोरिया के साथ चीन का विवाद है. दक्षिण चीन सागर में चीन के रुख पर कई देशों ने विरोध जताया है. वह हांगकांग और ताइवान के मसले पर दबाव बनाने की कोशिश करता रहा है.
अगर भारत अमेरिका के साथ आगे बढ़ता है, तो इन देशों का भी मनोबल बढ़ेगा. हमें उनके साथ अपने रिश्ते मजबूत करने में मदद मिलेगी. चीन हिंद महासागर में अपने अड्डे बनाने में लगा हुआ है. पाकिस्तान, श्रीलंका, जिबूति के अलावा वह बांग्लादेश, म्यांमार, मालदीव, सेशेल्स, मॉरीशस तथा कई अफ्रीकी देशों में तेजी से बढ़ रहा है. हिंद महासागर में चीन को रोकने के लिए जरूरी है कि अमेरिका और जापान जैसे देश भारत के साथ आगे आयें, ताकि भारत अपनी प्रभावी भूमिका निभा सके.
हिंद महासागर में भारत की स्थिति काफी मजबूत है. लेकिन, भारत की निवेश और प्रौद्योगिकी क्षमता बहुत सीमित हैं. इसका फायदा चीन उठा लेता है. लेकिन, अगर अमेरिका और जापान भारत के साथ मिलकर चलें, तो हमारे पास क्षमता है कि हम यहां नेतृत्व कर सकें. हमारे डॉक्टर, इंजीनियर, एक्सपर्ट, आइटी के लोग तकनीकी सहयोग और सक्रिय भूमिका अदा कर सकते हैं. अन्य देश भी जब भारत के साथ आयेंगे, तो चीन को आसानी से रोका जा सकेगा.
बेका समझौता लागू होने के बाद स्थिति काफी मजबूत होगी, लेकिन इसे लागू करने की प्रक्रिया अभी जटिल है. भारत में मंजूरी की प्रक्रिया आसान है, लेकिन अमेरिका में सीनेट से मंजूर कराना होता है. वहां कांग्रेस में जाने के बाद हो सकता है कि कुछ शर्तें लगा दी जायें. अब यह निर्भर करता है कि उसे मंजूरी किस तरह से मिलती है. अभी वहां चुनाव हो रहे हैं. भारत को संभलकर चलना है कि समझौता तो हो गया है, लेकिन अमेरिका उसे लागू किस तरह से करता है.
वह भारत के हित में होगा या विरोध में, यह देखनेवाली बात होगी. क्योंकि, कई बार बाइडेन और कमला हैरिस सीएए और धारा-370 आदि के खिलाफ बोलते रहे हैं. ऐसे में हो सकता है कि इसे लेकर भी मतभेद उभरें. चुनाव के बाद देखना होगा कि आगे की राह क्या होती है. अगर अमेरिका भारत के साथ िद्वपक्षीय साझेदारी को मजबूत करेगा, तो एशिया में भारत प्रभावी भूमिका निभा सकेगा और अन्य देशों के साथ ताल-मेल बेहतर हो सकेगा.
(बातचीत पर आधारित)
Postedd by: Pritish sahay