अनूठी सामाजिक क्रांति के अगुवा थे बिंदेश्वर पाठक
डॉक्टर पाठक ने जिस तरह की सामाजिक क्रांति की, वह अनूठी है. वे समाजशास्त्र के अध्यवसायी थे, यही वजह है कि उन्होंने सामाजिक ढांचे में ऐसा हस्तक्षेप किया
वर्ष 2012 की गर्मियों का एक दिन, द्वारका में भगवान कान्हा की आरती के बाद मंदिर के पुजारी ने कान्हा की प्रिय नन्हीं-नन्हीं बांसुरी कुछ श्रद्धालुओं में बांटी. एक बांसुरी वहां मौजूद रहे उस व्यक्तित्व को भी मिली, जिसे दुनिया शौचालय क्रांति के अगुवा के रूप में जानती थी. उन्हें ऐसा महसूस हुआ जैसे कान्हा की उन पर कृपा है और वे उनसे कुछ विशेष करवाना चाहते हैं. कुछ दिन बाद जब वे दिल्ली लौटे, तो कान्हा के धाम वृंदावन के लिए उनके पास सर्वोच्च न्यायालय का पैगाम पड़ा था.
वृंदावन की विधवाओं की देखभाल के लिए देश की सबसे बड़ी अदालत ने उनसे सहायता की अपेक्षा की. विधवाओं की दुर्दशा से जुड़ी एक याचिका पर सुनवाई कर रही अदालत की अपेक्षा को उस व्यक्तित्व ने लपकने में देर नहीं लगायी और विधवाओं की देखभाल में तत्काल जुट गये.
संयोग देखिए, उस व्यक्तित्व को कान्हा ने उसी दिन अपने पास बुला लिया, जिस दिन समूचा देश आजादी के सतहत्तरवें जश्न के उमंग में सराबोर था. सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक बिंदेश्वर पाठक भी दिल्ली स्थित अपने मुख्यालय में पूरे उत्साह से झंडारोहण कर रहे थे. इसी बीच उनके दिल ने काम करना बंद कर दिया. उन्हें आनन-फानन में एम्स ले जाया गया, पर वे अनंत यात्रा पर निकल चुके थे.
दो अप्रैल, 1943 को बिहार के वैशाली जिले के रायपुर बघेल गांव में जन्मे बिंदेश्वर पाठक की चाहत अपराध विज्ञान का व्याख्याता बनने की थी. परंतु नियति को उनके जरिये कुछ विशिष्ट कराना था. नियति का ही खेल रहा कि सागर विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर की पढ़ाई के लिए जाते समय उन्हें हाजीपुर स्टेशन पर उनके एक रिश्तेदार ने ट्रेन से उतार लिया.
उन्हीं की सिफारिश पर उन्हें 1968 में बिहार गांधी शताब्दी समिति में नौकरी मिली. शुरू में उन्हें यहां अनुवादक का दायित्व मिला. बाद में अछूतोद्धार और मैला मुक्ति की दिशा में काम करने के लिए धकेल दिया गया.
पर इस कार्य को भी उन्होंने सहज रूप से स्वीकार किया. हाथ से मैला ढोने की प्रथा से वे बचपन से ही परिचित थे. गांवों की महिलाओं की शौच समस्या का भान भी उन्हें था. इसकी वजह से उनके अंतर्मन में कहीं न कहीं सामाजिक क्रांति का विचार चलता रहा. उनकी इस सोच को मजबूती मिली विश्व स्वास्थ्य संगठन की पुस्तिका ‘एक्स्क्रीटा डिस्पोजल इन रूरल एरियाज एंड स्मॉल कम्युनिटीज’ से. पुस्तिका से मिले विचारों के आधार पर उन्होंने शौचालय का मॉडल बनाया और नाम दिया ‘सुलभ.’
डॉक्टर पाठक को बिहार सरकार से कुछ अनुदान भी मिला, लेकिन परियोजना जब तक लागू होती, तब तक या तो अधिकारी बदल जाते या अनुदान रोक दिया जाता. इसी बीच उन्हें 1973 में, बिहार के आरा में प्रोजेक्ट मिला. उन्होंने शौचालय बनाया. इसी वर्ष सुलभ संस्थान की नींव रखी गयी. पटना में रिजर्व बैंक के सामने शौचालय बनाने का काम मिला, वह मॉडल सफल रहा. इसके बाद डॉक्टर पाठक ने पीछे मुड़कर नहीं देखा.
सुलभ शौचालय के जरिये वे हिंदू वर्ण व्यवस्था में ठीक विपरीत छोर पर बैठे दो जातियों- ब्राह्मण और दलित- को एक साथ लेकर आये. उन्होंने इस सामाजिक क्रांति के जरिये जहां महिलाओं और कमजोर समुदायों को शौचालय की सहूलियत मुहैया करायी, वहीं सार्वजनिक शौचालयों के रख-रखाव और देखभाल के लिए ब्राह्मणों और दलितों को एक साथ नौकरियां दीं. हाथ से मैला ढोने की कुप्रथा के खिलाफ ही बिंदेश्वर पाठक ने सामाजिक क्रांति की अगुवाई नहीं की, इस पेशे से मुक्त हुए लोगों के लिए रोजगार के साधन भी मुहैया कराये. इतना ही नहीं, 2008 के दिसंबर में, राजस्थान के अलवर में उन्होंने दलित समुदाय के लोगों के लिए सार्वजनिक रूप से मंदिर प्रवेश का आयोजन किया.
बिंदेश्वर पाठक ने जिंदगी की शुरुआत संघर्षों के साथ की थी. इस संघर्ष को उन्होंने ताजिंदगी याद रखा. जब भी उनके सामने कोई भूखा, कमजोर और जरूरतमंद पहुंचा, उन्होंने उसकी हर संभव सहायता की. सामाजिक क्रांति के अगुवा रहे बिंदेश्वर पाठक अध्यवसायी और विद्वत्त पूजक भी थे. उन्होंने न जाने कितने लेखकों, कलाकारों की सहायता की. अछूतोद्धार, विधवाओं की मदद और शौचालय क्रांति की दिशा में किये उनके कार्यों की ही वजह से सुलभ इंटरनेशनल को अंतरराष्ट्रीय गांधी शांति सम्मान से नवाजा गया था.
डॉक्टर पाठक ने जिस तरह की सामाजिक क्रांति की, वह अनूठी है. वे समाजशास्त्र के अध्यवसायी थे, संभवत: यही वजह है कि उन्होंने सामाजिक ढांचे में ऐसा हस्तक्षेप किया, जिसका नतीजा सहयोग और सामाजिक सद्भाव रहा. डॉक्टर पाठक भले ही हमारे बीच नहीं हैं, परंतु सुलभ शौचालयों की शृंखलाएं उनके सामाजिक योगदान की याद दिलाती रहेंगी.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)