हाल में ब्राजील की राजनीति ने दुनिया को हिला कर रख दिया और अनुमान के विपरीत एक बार फिर देश की कमान लूला डी सिल्वा के हाथ में चली गयी. लूला की जीत के लिए जो अहम मुद्दा बना, वह ब्राजील की विशाल जैविक संपदा संरक्षण का था. भारत में भी विशाल जैविक संपदा और विविधता है. इसके लगातार क्षरण को रोकने तथा इसे संरक्षित करने के लिए न तो सरकार गंभीर दिख रही है और न ही समाज संवेदनशील प्रतीत होता है.
हमारी राजनीतिक स्थिति भी ऐसी नहीं है, जो जैव संपदा संरक्षण चुनावी मुद्दा बन सके. दुनिया के लगभग 10 प्रतिशत भूभाग पर वन एवं दुर्गम क्षेत्रों में निवास करने वाले जनजातीय समुदाय हैं. इन समुदायों की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक स्थिति लगभग एक जैसी है. हमारे देश की जनसंख्या का लगभग नौ प्रतिशत भाग आदिवासियों का है. उनके उन्नयन और विकास की कई योजनाओं के बावजूद उन्हें जिस गति से मुख्यधारा में जोड़ा जाना चाहिए, वह गति अभी तक नहीं आ पायी है.
इसका सबसे बड़ा कारण आदिवासियों की सांस्कृतिक, क्षेत्रीय, पारंपरिक संस्थागत अध्ययन के बिना योजनाएं बनाना और उन्हें पूरा करने के लिए बाहरी भौतिक या मानव संसाधनों का उपयोग करना है. अधिकतर योजनाओं की असफलता से आदिवासियों में भी सत्ता व मुख्यधारा में शामिल समाज के प्रति आक्रोश बढ़ा और इसका प्रस्फुटन कहीं माओवादी समस्या के रूप में, तो कहीं ईसाई मिशनरियों के धर्मांतरण के माध्यम से हुआ है.
लंबे समय तक आदिवासी क्षेत्रों में काम करने के बाद जो अनुभव हुआ है, उसमें से एक तो यह है कि आदिवासियों को खुद की बदौलत, खुद की भाषा और सांस्कृतिक स्वरूप में विकसित होने के लिए माहौल बनाने की जरूरत है. आदिवासियों का पलायन को रोकने के लिए आदिवासी समाज को वन क्षेत्र में अधिकार देना होगा. हालांकि सरकार ने वन अधिकार अधिनियम बनाकर इन्हें अधिकार देने की प्रक्रिया प्रारंभ की है, लेकिन उसकी गति बेहद धीमी है और इसमें लाल फीताशाही हावी है.
अनुसूचित जनजातियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों (जो पीढ़ियों से निवास कर रहे है, पर उनके अधिकारों को अभिलिखित नहीं किया जा सका है) को वन भूमि पर अधिकार देने के लिए एक संवैधानिक नियम बनाया गया है. यह 2006 में पारित किया गया, जो 31 दिसंबर, 2007 से लागू हुआ एवं भारतीय संविधान का अंग हो गया. उक्त अधिनियम के तहत नियम 2008 में जारी किये गये.
विभिन्न राज्यों एवं स्वयंसेवी संगठनों के सुझाव प्राप्त होने पर इस अधिनियम के क्रियान्वयन में आ रही कठिनाइयों को दूर करने एवं उसे प्रभावी ढंग से लागू करने के उद्देश्य से भारत सरकार ने नियमों में कुछ संशोधन करते हुए संशोधित नियम सितंबर, 2012 में जारी किया था. इसमें भी कई विसंगतियां हैं. इस अधिनियम को संवैधानिक रूप से लागू किये जाने के बजाय उसको व्यावहारिक रूप में लागू करने की प्रतिबद्धता की जरूरत है.
भारतीय संसद में वन अधिकार कानून तो पारित कर दिया गया, लेकिन आज भी कई राज्यों में यह कानून सफेद हाथी बन कर रह गया है. हिमाचल प्रदेश जैसे जनजातीय बहुल राज्य में इस कानून की प्रक्रिया ठप पड़ी हुई है. झारखंड में वन अधिकार पट्टा आवंटन की स्थिति बेहद कमजोर है तथा अधिकतर आदिवासियों को उनके दावों से बहुत कम जमीन मिल रही है. सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक, राज्य के करीब 15 हजार जंगल वाले गांवों में लगभग ढाई करोड़ से अधिक की आबादी रहती है.
यहां सामुदायिक और निजी करीब 19 लाख हेक्टेयर वन भूमि पर दावों की संभाव्यता है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक झारखंड में 60 हजार व्यक्तिगत व दो हजार सामुदायिक पट्टों का वितरण हुआ है, जबकि 49 हजार दावा पत्र विभाग के पास लंबित हैं. इस मामले में छत्तीसगढ़ ने थोड़ी गंभीरता दिखायी है. महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु आदि राज्यों में भी वन अधिकार पट्टे के वितरण की स्थिति बेहद कमजोर है. इस कारण वनों की कटाई जोरों पर है और अवैध अतिक्रमण बढ़ता जा रहा है.
यदि वनों के संरक्षण के प्रति सरकार जवाबदेह है, तो खुले मन से आदिवासियों और वनवासियों को वन अधिकार पट्टा उपलब्ध करा देना चाहिए. यह केवल पर्यावरण के हित में ही नहीं है, बल्कि इससे जनजातीय समाज को कई प्रकार का संरक्षण प्राप्त होगा. जो बाहर की योजनाएं जनजातीय समाज पर थोपी जाती हैं, उसके स्थान पर उनके खुद के संसाधन और स्थानीय सोच को महत्व दिया जाना चाहिए.
साथ ही, स्थानीय तकनीक व कौशल को युगानुकूल बना कर उसे योजनाओं में शामिल किया जाना चाहिए. इससे न केवल जनजातीय समाज मुख्यधारा के साथ जुड़़ेगा, अपितु पर्यावरण संरक्षण के लिए रक्षक प्रहरियों का एक दल भी खड़ा हो जायेगा. वन संपदा व जैव विविधता के संरक्षण के लिए एक सशक्त कानून के साथ इसे लागू करने की प्रतिबद्धता भी आवश्यक है. सामाजिक सरोकार व स्थानीय स्वशासन के पहलू की अनदेखी इस अधिनियम के लागू करने में कमजोर कड़ी साबित हो रही है.