धरती के लिए जैव-विविधता आवश्यक

उपलब्ध आंकड़े और अध्ययन तो यही इंगित करते हैं कि एक लाख से अधिक प्रजातियों को हमने खो दिया है. उससे भी बड़ी बात यह है कि दस लाख से अधिक प्रजातियों पर किसी-न-किसी प्रकार का खतरा मंडरा रहा है

By डॉ अनिल प्रकाश जोशी | December 22, 2022 7:48 AM
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कनाडा के मांट्रियल में आयोजित संयुक्त राष्ट्र जैव-विविधता सम्मेलन में वैश्विक जैव-विविधता कार्ययोजना पर सहमति स्वागतयोग्य एवं महत्वपूर्ण परिघटना है. इसके तहत चार लक्ष्य तथा 23 योजनाओं को निर्धारित किया गया है. इन्हें 2030 तक हासिल करने का संकल्प लिया गया है. हमारे लिए इस बात को समझना आवश्यक है कि पृथ्वी पर जीवन को पनपाने तथा आगे बढ़ाने में सबसे अधिक और अहम भूमिका जैव-विविधता की ही मानी जाती है. हमें यह भी जानकारी होनी चाहिए कि मनुष्य जीव शृंखला में बहुत बाद में आया तथा मांसाहारी जीव भी बाद में अस्तित्व में आये.

जीवन को लाने में आधारभूत भूमिका पेड़-पौधों ने निभायी है. समूचा जीवन चक्र पेड़-पौधों के इर्द-गिर्द ही घूमता था. मनुष्य भी कभी जंगलों में ही वास करता था. आज जब हम धरती पर जलवायु परिवर्तन, तापमान में बढ़ोतरी जैसी बेहद गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, तब यह बहुत जरूरी हो जाता है कि हम ठोस पहलकदमी करें. इस तथ्य से हम सब परिचित हैं कि जब से कथित औद्योगिक क्रांति आयी है, तब से उसने दुनिया के लगभग आधे जंगलों को लील लिया है.

धरती के बढ़ते तापमान तथा प्रकृति का जो लगातार दोहन किया जा रहा है, उससे हम बहुत बड़ी संख्या में विभिन्न प्रजातियों को नष्ट कर चुके हैं, वे चाहे छोटे पौधे हों, वृक्ष हों, या समुद्र में पाये जाने वाले तमाम तरह के जलचर हों. तो यह सब मसले इसी बात के चारों ओर घूमते हैं कि हमारी जैव-विविधता पर भारी संकट आ गया है. उपलब्ध आंकड़े और अध्ययन तो यही इंगित करते हैं कि एक लाख से अधिक प्रजातियों को हमने खो दिया है. उससे भी बड़ी बात यह है कि दस लाख से अधिक प्रजातियों पर किसी-न-किसी प्रकार का खतरा मंडरा रहा है.

यह भी जानकर आश्चर्य हो सकता है कि अभी तक हमारे पास जो जानकारी है, वह धरती पर वास कर रहे केवल एक-तिहाई जीवन की है. अभी तक तो यह शोध ही नहीं हो पाया है कि धरती पर कितने तरह के जीवन अस्तित्व में हैं. जब यह स्थिति है कि जिनकी जानकारी हमारे पास है, उनमें से हमने इतना बड़ा हिस्सा खो दिया है, तो बाकी कितने प्रकार के जीवन को खो दिया गया होगा, इसका आकलन लगा पाना संभव नहीं है. जब जानकारी ही नहीं होगी, तो पता भी नहीं चलेगा.

इसलिए जैव-विविधता पर बातचीत होना, इसके लिए समुचित कोष स्थापित करना और योजनाएं बनाना मुझे एक प्रभावी कदम लगता है. लेकिन इसी के साथ यह सवाल भी सामने रखा जाना चाहिए कि हमने पहले इसी से संदर्भित कितने तरह के संरक्षण उद्यान बनाये, अभ्यारण्य बने, कार्यक्रम लागू हुए, उन सबका क्या परिणाम रहा है. मनुष्य और जैव परिवेश के बारे में पहली बार दुनिया में सत्तर के दशक में बात उठी थी कि इस बारे में मनुष्य का क्या व्यवहार होना चाहिए.

यह संयुक्त राष्ट्र की एक बड़ी योजना थी. आज हमारे देश में भी और दुनिया में भी कई स्थानों पर जैविक हॉटस्पॉट हैं. इन सबके बावजूद भी अगर वैश्विक स्तर पर यह चिंता उभर रही है कि जैव-विविधता संकट में है, तो हमें अब तक के उपायों, संरक्षण के प्रयासों की कमियों की समीक्षा होनी चाहिए कि हम आखिर कहां चूके. इस बात की क्या गारंटी है कि इस बार भी हमसे चूक नहीं होगी? यह बड़ा गंभीर विषय है और इस पर गंभीर चर्चा की आवश्यकता है.

इस सम्मेलन में कृषि विस्तार का प्रश्न भी आया है. इस पर भी संतुलित विमर्श की आवश्यकता है. यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि खेती के विकास ने सबसे अधिक जैव-विविधता को लीला है. अपने देश में देखिए और कल्पना कर लें कि सब जगह वन ही तो थे. उनकी कटाई कर ही हमने खेती के लिए भूमि बनायी. यह निरंतर बढ़ता ही जा रहा है. विकासशील देशों के लिए खेती बहुत महत्वपूर्ण है, यह एक सच है.

लेकिन अगर वे इसके साथ जैव-विविधता के संरक्षण पर समुचित ध्यान देते हैं और उसके लिए प्रयास करते हैं, तो इसमें कोई समस्या नहीं है. पर यह सब वास्तविकता के धरातल पर कैसे उतरता है, वह एक प्रश्न है. कोई सुदूर गांव में कोई व्यक्ति खेती से जीवन यापन करता है, तो वह कब तक इंतजार करता रहेगा कि खेती के विकल्प के रूप में उसे राशि मिले या कोई वैकल्पिक व्यवस्था हो. हम अभी तक पंजाब और हरियाणा में पराली जलाने पर हम नियंत्रण नहीं कर पाये हैं.

अगर एक सप्ताह के भीतर खेत से पराली नहीं हटायी जाती है, तो किसान अगली फसल की खेती नहीं कर सकता. जहां तक जैव-विविधता के लिए कोष बनाने की बात है, तो याद किया जाना चाहिए कि कुछ दिन पहले मिस्र में आयोजित जलवायु सम्मेलन में प्राकृतिक आपदाओं से संबंधित कोष पर भी सहमति बनी है.

इस कोष से उन देशों को धन दिया जायेगा, जो जलवायु परिवर्तन से होने वाली आपदाओं से नुकसान सहते हैं. अंतरराष्ट्रीय बैठकों में सैद्धांतिक सहमति तो बन जाती है, पर हमें यह भी देखना चाहिए कि क्या दिल्ली के वायु प्रदूषण के समाधान के लिए न्यूयॉर्क में बैठक करने की आवश्यकता है या फिर स्थानीय स्तर पर विचार होना चाहिए. प्रकृति और पर्यावरण हर गांव, राज्य और देश का विषय है.

हम सबका जीवन हर तरह से प्रकृति से जुड़ा हुआ है और प्रकृति की बेहतरी में जैव-विविधता का बहुत बड़ा योगदान है. इसके संरक्षण के लिए हमारा सबसे पहला कदम यही होना चाहिए कि हम जैव-विविधता को लेकर गंभीर हों. वैश्विक तापमान में वृद्धि और जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याओं को रोकने में यह बहुत अहम सहायक सिद्ध होगी. हमारे देश में 21 प्रतिशत वनों का आंकड़ा बताया जाता है, पर यह वास्तव में इससे कम ही होगा.

मेरा अनुमान है कि प्राकृतिक वन 14 प्रतिशत के आसपास ही बचे हैं. बहुत सारी प्रजातियां यहां भी विलुप्त हुई हैं या विलुप्त होने की कगार पर हैं. हमारी वन नीति यह निर्दिष्ट करती है कि हर राज्य में 33 प्रतिशत क्षेत्र में वन होने चाहिए. हिमालयी क्षेत्र में 67 प्रतिशत वन होने का प्रावधान है. लेकिन वास्तविकता इससे बहुत दूर है. बिहार में सात प्रतिशत और पश्चिम बंगाल में 14 प्रतिशत वन हैं. मेरी समझ से उत्तर प्रदेश में यह आंकड़ा 5-6 प्रतिशत से अधिक नहीं होगा. वनों से ही जैव-विविधता जुड़ी हुई है. यह विविधता प्रकृति- हवा, मिट्टी, जंगल, पानी- का सामूहिक उत्पाद हैं.

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