Birth Anniversary : आचार्य विनोबा भावे के जन्मदिन पर पढ़ें, कृष्ण प्रताप सिंह का यह विशेष आलेख

Birth Anniversary : वर्ष 1895 में, 11 सितंबर को महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र के गागोदा गांव के एक धर्मपरायण चितपावन ब्राह्मण परिवार में विनोबा भावे का जन्म हुआ.

By कृष्ण प्रताप सिंह | September 10, 2024 11:04 PM

Birth Anniversary : भूदान आंदोलन के प्रणेता, राष्ट्रीय शिक्षक और महात्मा गांधी के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी कहलाने वाले विलक्षण सत्यान्वेषी आचार्य विनोबा भावे के जीवन में कर्म, ज्ञान और भक्ति का ऐसा अद्भुत संगम था कि बहुत से लोग उन्हें संसार का आध्यात्मिक गुरु तो कहते ही हैं, संसारभर में समतामूलक और शोषणमुक्त व्यवस्था का स्वप्नद्रष्टा भी मानते हैं. ‘जय जगत’ कहकर अभिवादन का उनका आह्वान भी उनकी यही छवि गढ़ता है. वर्ष 1895 में, 11 सितंबर को महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र के गागोदा गांव के एक धर्मपरायण चितपावन ब्राह्मण परिवार में उनका जन्म हुआ, तो शायद ही किसी ने सोचा हो कि एक दिन उनके जीवन की दिशा इतनी बदल जायेगी कि सत्य के अनुसंधान के लिए संन्यासी बनते-बनते वे महात्मा गांधी के सान्निध्य में जाकर न सिर्फ अप्रतिम सत्याग्रही, बल्कि सामुदायिक जीवन में लिप्त होकर उनके सत्य व अहिंसा के प्रयोगों के अभिन्न सहचर हो जायेंगे.

महात्मा गांधी ने दिया था विनोबा भावे नाम

माता-पिता ने उनका नाम विनायक रखा था, जो उस वक्त की परंपरा के अनुसार, उसमें पिता नरहरि भावे का नाम जुड़ने के बाद विनायक नरहरि भावे हो गया था. परंतु माता रुक्मिणी बाई को उन्हें विन्या कहना ज्यादा अच्छा लगता था. विनोबा नाम तो उन्हें बहुत बाद में महात्मा गांधी ने दिया, जब वे उनके संपर्क में आये. इस संपर्क में आने की भी एक अनूठी कथा है. पच्चीस मार्च, 1916 को जब वे इंटर की परीक्षा देने मुंबई जा रहे थे, तो उनकी संन्यासी बनने की साध ने ऐसा जोर मारा कि सूरत में ट्रेन से उतरकर हिमालय की ओर चल पड़े. परंतु जब काशी पहुंचे, तो काशी हिंदू विश्वविद्यालय में एक जलसे में महात्मा गांधी को देखा तो राह बदल ली और उन्हीं के होकर रह गये. अनंतर, अंग्रेजों द्वारा देश को जबरन दूसरे विश्वयुद्ध में धकेलने के विरुद्ध व्यक्तिगत सत्याग्रह के महात्मा के आह्वान पर 17 अक्तूबर, 1940 को ‘प्रथम सत्याग्रही’ बने. आम तौर पर उन्हें उनकी विलक्षण स्मृति, विशद अध्ययन और तीन बड़ी देश सेवाओं के लिए जाना जाता है. ये तीन सेवाएं उन्होंने स्वतंत्रता सेनानी, भूदान आंदोलन के सूत्रधार और ‘सर्वोदय’ व ‘स्वराज’ के व्याख्याकार के रूप में कीं. इसलिए उनके व्यक्तित्व की विराटता को प्रायः बड़े-बड़े प्रसंगों में ही देखा जाता है, परंतु उसे छोटे-छोटे प्रसंगों में देखना भी कुछ कम प्रेरणादायक नहीं है.

भाषाओं के प्रति था सम्मान

एक बार महाराष्ट्र के पवनार स्थित आश्रम में सरदार वल्लभभाई पटेल उत्तर प्रदेश से गये रसोइये के ‘कच्ची रसोई’ या ‘पक्की रसोई’ के सवाल को ठीक से नहीं समझ पाये, तो उन्होंने उन्हें समझाया था कि इस बहुभाषी-बहुधर्मी देश में यात्राओं के दौरान अलग-अलग क्षेत्रों में जाने पर वहां की भाषाओं व बोलियों को ठीक से सुनना व समझना बहुत जरूरी है. खास तौर पर सेवकों द्वारा अपने अंचल की भाषा या बोली में पूछी गयी बात को ठीक से सुन-समझकर उत्तर देना. अन्यथा नासमझी में अनर्थ तो हो ही जाता है, सेवाएं व स्नेह प्राप्त करने में भी दिक्कतें आती हैं. इस प्रसंग में गौरतलब है कि अहिंदी भाषी होने के बावजूद विनोबा कहा करते थे कि मैं दुनिया की सभी भाषाओं का सम्मान करता हूं, पर मेरे देश में हिंदी का सम्मान न हो, यह मुझसे सहन नहीं होता. वे देवनागरी की भी विश्वलिपि जैसी प्रतिष्ठा चाहते थे. ‘भूदान यज्ञ’ के दौर में वे दिन में दो बार प्रवचन करते और हर प्रवचन में नयी-नयी बातें कहते थे. एक दिन किसी ने उनसे पूछ लिया कि लंबे समय से प्रवचन करते आने के बावजूद वे अपने प्रवचनों को नीरस होने से कैसे बचाये हुए हैं, हर रोज उनमें नवीनता कैसे लाते हैं? इस पर उनका उत्तर था- पैदल चलता हूं, तो धरती का स्पर्श होता और प्रकृति से निकट का संबंध जुड़ता है. इससे मन को नित नयी स्फूर्ति तो मिलती ही है, नयी-नयी बातें भी सूझती हैं.

विवादों से कोसों दूर रहे

वे किसी भी काम की शुरुआत में देर न करने और शुरू करने के बाद उसे पूरा करके ही छोड़ने पर जोर देते थे. कहते थे कि जिसने ज्ञान को आचरण में उतार लिया, उसने ईश्वर को ही मूर्तिमान कर लिया. उनका यह भी मानना था कि सच्चा बलवान वह है, जिसने अपने मन पर पूरी तरह से नियंत्रण कर लिया हो. प्रसंगवश, एक अपवाद को छोड़कर विनोबा अपने समूचे जीवन में कभी किसी विवाद में नहीं पडे़. उनके जीवन की एकमात्र विडंबना यह है कि उन्होंने 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा नागरिकों की स्वतंत्रता का अपहरण कर देश पर थोपी गयी इमरजेंसी को ‘अनुशासन पर्व’ बता दिया था. उन्होंने 15 नवंबर, 1982 को अंतिम सांस ली. वर्ष 1958 में उन्हें पहला रमन मैग्सेसे पुरस्कार दिया गया, जबकि 1983 में मरणोपरांत देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से विभूषित किया गया था.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

Next Article

Exit mobile version