Birth Anniversary: चालीस से भी कम की उम्र में चालीस से ज्यादा कृतियां. कविकर्म के साथ समसामयिक विषयों पर तीन सौ से ज्यादा निबंध. हिंदी की खड़ी बोली, उसके नाटकों व रंगमंच वगैरह के उन्नयन में बहुविध सक्रियता. पीर, बावर्ची, भिश्ती व खर की भूमिकाएं निभाते हुए ‘ब्राह्मण’ नामक मासिक का संपादन. साथ ही, बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय व ईश्वरचंद्र विद्यासागर जैसे बांग्ला साहित्यकारों की रचनाओं का अनुवाद. हिंदी के भारतेंदु युग के ‘दूसरे चंद्र’ व ‘प्रति हरिश्चंद्र’ नामों से विभूषित और बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न साहित्यकार व संपादक स्मृतिशेष पंडित प्रताप नारायण मिश्र के खाते में और भी बहुत कुछ स्मरणीय है, खासकर उनका सादगी भरा फक्कड़पन और सजीवता भरा बांकपन. आचार्य रामचंद्र शुक्ल लिख गये हैं कि उन्होंने हिंदी गद्य साहित्य में वही काम किया, जो अंग्रेजी में एडीसन व स्टील ने.
वर्ष 1883 में महज 27 साल की उम्र में उन्होंने कानपुर से ‘ब्राह्मण’ नामक मासिक का प्रकाशन शुरू किया, तो जीवनभर उसके प्रकाशन की चुनौतियां झेलते रहे. इनमें एक चुनौती उसके नाम से (जिसके चलते कई लोग उसे एक जाति का प्रवक्ता मान बैठते थे) जुड़ी गलतफहमियां दूर करने और जनकल्याण के प्रति समर्पित पत्र की उसकी छवि बरकरार रखने की भी थी. यहां याद रखना चाहिए कि यह 1826 में हिंदी के पहले समाचारपत्र ‘उदंत मार्तण्ड’ के प्रकाशन के आधी सदी से भी ज्यादा बाद का समय था, लेकिन इस दौरान हिंदी पत्र-पत्रिकाओं के लिहाज से कुछ भी नहीं बदला था. उन्हें नियत तिथि पर निकालना उस वक्त भी इस कारण टेढ़ी खीर था कि फारसी, उर्दू व अंग्रेजी के प्रभुत्व के बीच पिसी जा रही हिंदी के प्रकाशनों को पाठक व ग्राहक मिलने दूभर थे. ‘ब्राह्मण’ भी इस संकट से परे नहीं रह पाया था. अपनी सहज-सरल भाषा और वैविध्यभरी सामग्री के बावजूद उसे पाठकों को अपनी ग्राहकी के नवीनीकरण और सहयोग राशि के भुगतान के लिए बार-बार याद दिलाना पड़ता था. कई बार तो इस शैली में गिड़गिड़ाना भी: चार महीने हो चुके, ‘ब्राह्मण’ की सुधि लेव/ गंगा माई जै करैं, हमें दक्षिणा देव/ जो बिनु मांगे दीजिए, दुहुं दिसि होय अनंद/ तुम निश्चिंत हो हम करै, मांगन की सौगंद.
प्रताप नारायण मिश्र की दृढ़ता कि उन्होंने अपने इस ध्येय से समझौता नहीं किया कि उन्हें ‘ब्राह्मण’ में ऐसा सरल, सुगम, सुबोध व उद्देश्यपूर्ण साहित्य ही देना है, जो हिंदीभाषियों की रुचियों का परिष्कार कर उन्हें उसके पठन-पाठन की ओर आकृष्ट करे. इसके लिए कई बार वे उसमें देशप्रेम, समाज सुधार, स्वतंत्रता संघर्ष, नैतिकता से जुड़ी सामग्री के अलावा व्यंग्य और वैचित्र्य से परिपूर्ण मनोरंजक सामग्री का प्रकाशन भी करते थे. एक बार तो उन्होंने ‘बेईमान’ पाठकों (ग्राहकों) को यह चेतावनी भी दी थी कि वे ‘ब्राह्मण’ में उनके नाम छाप देंगे. फिर उस पर अमल भी कर दिखाया था. अलवर के राजा ने ‘ब्राह्मण’ की ग्राहकी जारी रखने से इंकार कर दिया, तो उन्होंने हिंदी की दुर्दशा करने वालों में शामिल होने के लिए उन्हें भी नहीं बख्शा था. फिर भी वे ‘ब्राह्मण’ को ‘उदंत मार्तण्ड’ की (पाठकों व ग्राहकों के अभाव में बंद होने वाली) गति को प्राप्त होने से नहीं बचा पाये, तो पाठकों से अपने ‘अंतिम संभाषण’ में नवाब वाजिद अली शाह के शब्द उधार लेकर लिखा था: दरो-दीवार पै हसरत से नजर करते हैं/ खुश रहो अहले वतन हम तो सफर करते हैं. विडंबना यह कि नियति को उनके इसके बाद के जीवन के सफर को लंबा करना भी गवारा नहीं हुआ. युवावस्था से ही नाना प्रकार के रोगों को झेलते आ रहे उनके शरीर को कमजोर पाकर छह जुलाई, 1894 को आयी मौत ने इस सफर को रोका.
इस छोटी अवधि में ही उन्होंने एक युग को जिया और हिंदी जगत की चेतना के प्रखर अग्रदूत के तौर पर बड़ी भूमिका निभायी. इस भूमिका में नयी पीढ़ी को नयी दृष्टि प्रदान कर स्वतंत्रता संघर्ष की ओर उन्मुख करना भी शामिल था. उनकी रचनाएं उस वक्त की ‘कवि वचन सुधा’, ‘भारत प्रताप’, ‘हिंदी प्रदीप’ एवं ‘हिंदोस्थान’ आदि प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हुआ करती थीं. ‘हिंदोस्थान’ में वे कुछ दिनों तक सहयोगी संपादक भी रहे थे. प्रसंगवश, 1856 में 24 सितंबर को उत्तर प्रदेश के बैसवारा अंचल के उन्नाव जिले के बैजनाथ बेथर गांव निवासी संकठा प्रसाद मिश्र के बेटे के तौर पर जन्मे प्रताप नारायण मिश्र 18-19 साल के ही थे कि उनके सिर से पिता का साया उठ गया था. तदुपरांत औपचारिक स्कूली शिक्षा को निरर्थक समझ उन्होंने उससे अपना पिंड छुड़ा लिया था. पिता अपने रहते चाहते थे कि वे कानपुर में रहकर ज्योतिष का अध्ययन करें. कई स्कूलों में घूमकर भी वे स्कूली शिक्षा के प्रति बहुत समर्पित नहीं हो पाये. अपनी प्रतिभा और स्वाध्याय के बूते उन्होंने न सिर्फ हिंदी, बल्कि उर्दू, फारसी, संस्कृत, अंग्रेजी और बांग्ला का ज्ञान प्राप्त किया. उन्होंने कानपुर को अपनी साहित्यिक सक्रियता का केंद्र बनाया, तो जल्दी ही वह साहित्य का प्रयाग से भी बड़ा केंद्र बन गया. रामलीलाओं में अभिनय व काव्य रचना के अभ्यास के क्रम में वे भारतेंदु हरिश्चंद्र के संपर्क में आये, तो जैसे उन्हीं के होकर हो गये. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)