सीएफ एंड्रयूज : भारत से प्रेम ने जिनको दीनबंधु बनाया, पढ़ें कृष्ण प्रताप सिंह का खास लेख
Charles Freer Andrews Dinabandhu : वर्ष 1919 में 13 अप्रैल को बैसाखी के दिन निर्दयी जनरल डायर ने अमृतसर के जलियांवाला बाग में शांतिपूर्ण सभा में उपस्थित निर्दोष लोगों पर बर्बरतापूर्वक पुलिस फायरिंग करा उनमें अनेक की लाशें बिछा दीं, तो भी एंड्रयूज ने दूसरे गोरे महानुभावों की तरह मौन नहीं साधा. दो टूक शब्दों में उसे जानबूझकर किया गया जघन्य कृत्य करार दिया और उसके लिए न केवल जनरल डायर बल्कि समूचे ब्रिटिश साम्राज्य को दोषी करार दिया.
Charles Freer Andrews Dinabandhu : अत्याचारी ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध लंबे स्वतंत्रता संघर्ष में भारत ने जिन थोड़े से मानवताप्रेमी अंग्रेजों का मुखर समर्थन और सहभागिता पायी, उनमें सीएफ (चार्ल्स फ्रीयर) एंड्रयूज न केवल अग्रगण्य बल्कि सर्वाधिक कृतज्ञता के पात्र हैं. एक बार इस नतीजे पर पहुंच जाने के बाद कि उनके देश के हुक्मरान बेबस भारतीयों को दासता की बेड़ियों में जकड़े रखने के लिए ऐसे धत्करम कर रहे हैं, जिनकी कोई माफी नहीं हो सकती, उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा. न ही संकीर्ण देश प्रेम के शिकार होकर भारतीयों की दुर्दशा के खात्मे के अपने प्रयत्नों में ढील दी.
वर्ष 1919 में 13 अप्रैल को बैसाखी के दिन निर्दयी जनरल डायर ने अमृतसर के जलियांवाला बाग में शांतिपूर्ण सभा में उपस्थित निर्दोष लोगों पर बर्बरतापूर्वक पुलिस फायरिंग करा उनमें अनेक की लाशें बिछा दीं, तो भी एंड्रयूज ने दूसरे गोरे महानुभावों की तरह मौन नहीं साधा. दो टूक शब्दों में उसे जानबूझकर किया गया जघन्य कृत्य करार दिया और उसके लिए न केवल जनरल डायर बल्कि समूचे ब्रिटिश साम्राज्य को दोषी करार दिया. ब्रिटेन के न्यू कैसल में 12 फरवरी, 1871 को पैदा हुए एंड्रयूज ने यूं तो इंग्लैंड के चर्च मंत्रालय के कर्मचारी के रूप में अपने जीवन की शुरुआत की थी, फिर एक कॉलेज के पादरी व व्याख्याता, कैंब्रिज ब्रदरहुड के मिशनरी और समाज सुधारक बने थे. पर मार्च 1904 में शिक्षक बन दिल्ली के सेंट स्टीफन कॉलेज क्या आये, अपनी जीवनधारा ही बदल ली.
पहले स्वतंत्रता सेनानी, समाजसेवी, विचारक व सुधारक के रूप में संघर्षरत गोपालकृष्ण गोखले के संपर्क में आकर उनके मित्र बने, फिर महात्मा गांधी, डॉ भीमराव आंबेडकर, दादा भाई नौरोजी, लाला लाजपत राय, टीबी सप्रू, बनारसीदास चतुर्वेदी और रबींद्रनाथ टैगोर वगैरह के निकटवर्ती बने. अनंतर, वे भारत और भारतवासियों के ही होकर रह गये. वर्ष 1940 में पांच अप्रैल को उन्होंने भारत में ही अंतिम सांस भी ली.
जानकारों के अनुसार, उन्होंने ही महात्मा गांधी को अफ्रीका से लौटकर भारत में स्वतंत्रता का आंदोलन चलाने की प्रेरणा दी थी. वर्ष 1913 में वे उनसे प्रभावित होकर उनके कार्यों में मदद करने डरबन गये थे. चूंकि वे गोपालकृष्ण गोखले के जरिये ही उनके निकट आये थे, जिन्हें वे अपना गुरु मानते थे, इसलिए अधिकारपूर्वक उनको आत्मीयतापूर्वक उनके नाम के पहले हिस्से मोहन से पुकारा करते थे. अलबत्ता, उनके महात्मा रूप में उनकी अनुरक्ति भी अगाध थी और उनके उद्देश्यों में विश्वास भी.
एंड्रयूज को स्वतंत्रता और समाज सुधार के कामों व आंदोलनों में भारतीयों के कंधे से कंधा मिलाकर चलने के लिए तो जाना ही जाता है, फिजी में अत्यंत दारुण परिस्थितियों में काम करने को अभिशप्त भारतीय गिरमिटिया मजदूरों की मुक्ति के प्रयत्नों में बहुविध भागीदारी के लिए भी याद किया जाता है. कम ही लोग जानते हैं कि वे फिजी में उक्त मजदूरों के शुभचिंतक बनकर ही ‘दीनबंधु’ के रूप में प्रसिद्ध हुए थे. गिरमिटिया मजदूरों की मुक्ति के प्रयत्नों के सिलसिले में वे 1915 और 1917 में दो बार फिजी गये.
अलबत्ता, गिरमिटिया मजदूरी के खात्मे के बाद 1936 में फिजी से आमंत्रण मिला तो तीसरी बार भी वे वहां गये. जानकारों के अनुसार, इससे पहले 1916 में पियरसन के साथ उन्होंने गिरमिटिया मजदूरों के बारे में जो रिपोर्ट जारी की थी, वह इस अर्थ में उनकी मुक्ति की राह की मिल का पत्थर साबित हुई थी कि उसने इन मजदूरों की समस्याओं की ओर देश व दुनिया का भरपूर ध्यान खींचा था. हिंदी के यशस्वी साहित्यकार स्मृतिशेष बनारसीदास चतुर्वेदी ने (गिरमिटिया मजदूरों की मुक्ति में जिनका खुद का भी कुछ कम योगदान नहीं रहा) अपने द्वारा ‘फिजी द्वीप में मेरे 21 वर्ष’ शीर्षक से लिखे गये गिरमिटिया मजदूरों के अनपढ़ नेता तोताराम सनाढ्य के संवेदना प्रवण संस्मरणों में तो एंड्रयूज के उक्त मुक्ति प्रयत्नों का जिक्र किया ही है, खुद भी उन्हें गांधी जी के जीवन व आदर्शों से हद दर्जे तक प्रभावित, उनमें अनुरक्त, बेहद सदाशयी और भारत का व अपना मित्र कहकर याद किया है. यह भी लिखा है कि एंड्रयूज ‘फिजी द्वीप में मेरे 21 वर्ष’ का अंग्रेजी में अनुवाद करवाकर अपने साथ फिजी ले गये थे और गिरमिटिया प्रथा के खात्मे के मजदूरों के आंदोलन में उसका भरपूर इस्तेमाल किया था.
काका कालेलकर के अनुसार चतुर्वेदी जी कहा करते थे कि यदि भारत को कृतघ्नता के कीचड़ में लथपथ नहीं होना, तो उसे अपने संघर्ष में एंड्रयूज जैसे अपने विदेशी मित्रों, मनीषियों और मानव सेवकों की भूमिका की कद्र करनी ही होगी. जहां तक चतुर्वेदी जी की बात है, एंड्रयूज के निमंत्रण पर वे कुछ दिनों तक शांति निकेतन में भी रहे थे. वे उनके व्यक्तित्व व कृतित्व पर एक अन्य लेखक के साथ मिलकर एक अंग्रेजी पुस्तक भी लिख गये हैं, जिसकी भूमिका महात्मा गांधी ने लिखी है.