जयंती विशेष: सादगी की मूर्ति थे डॉ राजेंद्र प्रसाद, पढ़ें कृष्ण प्रताप सिंह का खास ले

Birth Anniversary Special: राष्ट्रपति भवन में एक दशक से ज्यादा समय बिताने के बावजूद सत्ता की चकाचौंध को उन्होंने अपने पास फटकने नहीं दिया था. उनका अनासक्ति भाव वहां भगवान राम के भाई भरत की याद दिलाता था.

By कृष्ण प्रताप सिंह | December 3, 2024 11:09 AM
an image

Birth Anniversary Special: स्वतंत्र भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने देश के इस सर्वोच्च पद पर रहते हुए एक दशक से ज्यादा का जीवन राष्ट्रपति भवन में गुजारा. लेकिन इतना भर कहने से उनके व्यक्तित्व का परिचय पूरा नहीं होता. सच्चाई यह है कि राष्ट्रपति भवन में रहते हुए भी वह बहुत सचेत रहते थे. इतने सचेत कि सत्ता के चाकचिक्य को अपने पास फटकने नहीं देते थे. एक विश्लेषक के शब्द उधार लेकर कहें, तो उनका अनासक्ति भाव वहां भगवान राम के भाई भरत की याद दिलाता था.

राष्ट्रपति बनने से पहले उन्होंने स्वतंत्रता सेनानी, अधिवक्ता, संविधान सभा व कांग्रेस के अध्यक्ष और पहले केंद्रीय कृषि मंत्री के तौर पर जो महनीय भूमिकाएं निभायीं, अपनी अप्रतिम सादगी से गांधीवादी मूल्यों को अगली पीढ़ियों की प्रेरणा बनाये रखने के जैसे बहुविध जतन किए और राष्ट्रपति भवन छोड़ने के बाद जैसा निर्लिप्त जीवन जिया, वह भी श्री, समृद्धि व ऐश्वर्य के प्रति उनकी अनासक्ति का ही परिचायक है. विडंबना यह कि आज की तारीख में उनकी जयंती (जिसे अधिवक्ता दिवस के रूप में मनाया जाता है) और पुण्यतिथि पर भी उनकी इन भूमिकाओं की सम्यक चर्चा नहीं की जाती. एक परीक्षा में उनके परीक्षक को मजबूर होकर उनकी उत्तर पुस्तिका पर लिखना पड़ा था कि ‘इग्जामिनी इज बेटर दैन इग्जामिनर’. यानी परीक्षार्थी परीक्षक से ज्यादा मेधावी है. युवावस्था में जब वह स्वतंत्रता संघर्ष की ओर अग्रसर होने की सोच रहे थे, तब उनका परिवार कई तरह की मुश्किलों का सामना कर रहा था. इस कारण वह धर्मसंकट में फंस गये थे और समझ नहीं पा रहे थे कि परिवार की मुश्किलें आसान करने में लगें या खुद को स्वतंत्रता संघर्ष में झोंकें. वर्ष 1905 में ऐसी ही मुश्किलों के कारण उन्हें इंडियन सोसाइटी से जुड़ने के गोपाल कृष्ण गोखले के आग्रह पर उनसे हाथ जोड़ लेने पड़े थे. बाद में एक दिन उन्होंने अपना यह धर्मसंकट महात्मा गांधी के समक्ष रखा, तो उन्होंने छूटते ही कहा, ‘तुम्हारा परिवार देश से अलग तो नहीं है. तुम यह समझकर देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ो कि तुम्हारा परिवार ही नहीं, सारा देश मुश्किलों में फंसा है और इस लड़ाई में जो हाल सारे देश का होगा, वही तुम्हारे परिवार का भी होगा.’

फिर उन्होंने पीछे पलटकर नहीं देखा. उन्होंने न सिर्फ एक से अधिक बार कांग्रेस का अध्यक्ष पद संभाला, बल्कि संविधान सभा के भी अध्यक्ष रहे. इस सबका जितना श्रेय उन्हें मिलना चाहिए था, नहीं मिला और संविधान निर्माण के श्रेय में से बड़ा हिस्सा बाबा साहब आंबेडकर के खाते में चला गया, जो उसकी प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे. तो भी वह नींव की ईंट बनकर खुश रहे. स्वतंत्रता संघर्ष में तो उन्होंने एक से बढ़कर एक कष्ट सहे ही, स्वतंत्रता के बाद 1960 के गणतंत्र दिवस से ऐन पहले उनकी बड़ी बहन का देहांत हो गया, तो उनकी अंत्येष्टि में शामिल होने के बजाय गणतंत्र दिवस के जश्न में अपनी भागीदारी को उन्होंने प्राथमिकता दी. राष्ट्रपति बनने के बाद उनके और प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के मतभेद सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन के मामले में, हिंदू कोड बिल के मामले में, राजनीति में धर्म की भूमिका और भारतीय मानस को लेकर दृष्टिकोण के मामले में सार्वजनिक हुए. भी. लेकिन उन्होंने मतभेद को व्यक्तिगत कटुता तक नहीं पहुंचने दिया.

इस गर्मजोशी की एक बानगी तब दिखी थी, जब शीतयुद्ध के दौर में 13 जुलाई, 1955 को पंडित नेहरू तत्कालीन सोवियत संघ और यूरोपीय देशों की यात्रा से वापस लौटे और डॉ राजेंद्र प्रसाद प्रोटोकॉल तोड़ते हुए उनको रिसीव करने एयरपोर्ट पहुंचे थे. दरअसल, वैश्विक मामलों में भारत की भूमिका बड़ी करने की नेहरू की कोशिशों को उस यात्रा में विश्व समुदाय का व्यापक समर्थन मिला था और राजेंद्र बाबू ने उस पर अपनी प्रसन्नता जताने के लिए वह तरीका चुना था. उसके दो ही दिन बाद उन्होंने राष्ट्रपति भवन में एक विशेष भोज का आयोजन किया, जिसमें नेहरू को शांति का अग्रदूत करार देते हुए उन्हें भारत रत्न देने की घोषणा कर दी. उस आयोजन से पहले उन्होंने अपने फैसले को पूरी तरह गुप्त रखा और स्वीकार किया कि प्रधानमंत्री या कैबिनेट की सलाह या सुझाव के बिना नेहरू को यह सम्मान देने का उन्होंने फैसला किया है. उन्होंने उस साल सात सितंबर, 1955 को विशेष रूप से निमंत्रित भद्रजनों की उपस्थिति के बीच एक समारोह में नेहरू के अतिरिक्त दार्शनिक भगवानदास व टेक्नोक्रेट एम विश्वेश्वरैया को भी भारत रत्न से विभूषित किया था. बारह वर्षों तक राष्ट्रपति पद के दायित्व निभाने के बाद 1962 में उन्होंने स्वेच्छा से सार्वजनिक जीवन से अवकाश लेने की घोषणा कर दी. उसी साल उन्हें भी भारत रत्न से सम्मानित किया गया. यों, देशवासियों में उनकी बढ़ती लोकप्रियता ने उससे पहले ही उन्हें उनके चहेते ‘राजेंद्र बाबू’ और ‘देश रत्न’ में बदल दिया था. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

Exit mobile version