जन्मशती विशेष : हिंदी व्यंग्य के शीर्ष उपन्यासकार श्रीलाल शुक्ल

Shrilal Shukla : 'राग दरबारी' के साथ 'पहला पड़ाव' और 'बिस्रामपुर का संत' उनके वे महत्वपूर्ण उपन्यास माने जाते हैं जिनमें यथार्थ की क्रूरता जटिलता के साथ मुठभेड़ ही करती दिखाई नहीं देती, बल्कि उपन्यास रूप के प्रति उनके विशेष दृष्टिकोण को भी प्रकट करता है.

By मनोज मोहन | December 31, 2024 9:50 AM
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Shrilal Shukla : श्रीलाल शुक्ल हिंदी के प्रमुख साहित्यकार और आधुनिक हिंदी साहित्य के व्यंग्यकारों में अपना एक विशिष्ट स्थान रखते हैं. इकत्तीस दिसंबर, 1925 को उनका जन्म उस नवाबी धरती पर हुआ, जिसे भारत की तहजीब कहा जाता है. संयोगवश, इसी नवाबी धरती पर पार्किंसन बीमारी से ग्रस्त हो 28 अक्तूबर, 2011 को उनका निधन हुआ. उत्तर प्रदेश प्रशासनिक सेवा के शीर्ष अधिकारी रहे श्रीलाल शुक्ल ने हिंदी व्यंग्य उपन्यासों की परंपरा में अपनी अलग पहचान बनायी. आधुनिक हिंदी साहित्य की कई विधाओं में साहित्य का सृजन किया और साहित्य जगत को ‘राग दरबारी’ जैसी कृति दी. कहा जाता है कि वे हिंदी के पहले लेखक थे जिन्होंने गांव पर गांव की सनातन मोहासक्ति से पूर्णतया मुक्त होकर लिखा. दरअसल, गांव और शहर दोनों का बदरूप वह पहचान लेते थे. वह उसे मिटा नहीं सकते थे, इसलिए उस पर व्यंग्य करते थे.


उनकी कई रचनाओं का भारतीय भाषाओं के साथ-साथ विदेशी भाषाओं में भी अनुवाद हुआ. साहित्य में विशेष योगदान के लिए उन्हें साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ सम्मान समेत कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से पुरस्कृत किया गया. उनके लिखे प्रारंभिक उपन्यास ‘सूनी घाटी का सूरज’ और ‘अज्ञातवास’ रचनाकार के सामाजिक बोध, और सूचनात्मक उत्तरदायित्व दोनों को उजागर करते हैं. इन उपन्यासों की विशिष्टता यह है कि इनमें चरित्रों को स्थिर नहीं माना गया है, बल्कि संधिकाल के अंतर्गत बनने वाले या बनते हुए सामाजिक मानस को ही चरित्रों द्वारा रेखांकित किया गया है. वर्ष 1968 में उनके लिखे उपन्यास ‘राग दरबारी’ के बारे में प्रसिद्ध समाजशास्त्री डॉ श्यामाचरण दुबे का कहना था कि विराट समाजशास्त्रीय कल्पना वाले बीस विद्वान ग्रामीण यथार्थ के बारे में जो नहीं कह सकते, वह इस उपन्यास में श्रीलाल शुक्ल ने कह दिया है.


‘राग दरबारी’ के साथ ‘पहला पड़ाव’ और ‘बिस्रामपुर का संत’ उनके वे महत्वपूर्ण उपन्यास माने जाते हैं जिनमें यथार्थ की क्रूरता जटिलता के साथ मुठभेड़ ही करती दिखाई नहीं देती, बल्कि उपन्यास रूप के प्रति उनके विशेष दृष्टिकोण को भी प्रकट करता है. ऊपर-ऊपर लगता जरूर है कि श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास रूप इतिवृत्त कथन की ही भंगिमा लिये हुए है. वस्तु और चरित्र को प्रस्तुत करने का उनका ढंग सादा और सामान्य है, पर गहरे स्तर पर कहीं-कहीं परिचित रूप का अतिक्रमण भी उनके हिकमत में शामिल है. उनका अंतिम उपन्यास ‘बिस्रामपुर का संत’ पर भूदान आंदोलन पर लिखी गयी पहली महत्वपूर्ण कृति का लेबल न लगा होता, तो अंतर्विरोधों से घिरे एक राजपुरुष, जमींदार और पदलोलुप, कामुक की मानवीय त्रासदी का चरित्र प्रधान पठनीय उपन्यास होता. इसमें सर्वोदय कथा से अधिक उसके नायक के अहं की हत्या है.

कहानीकार के रूप में श्रीलाल शुक्ल हिंदी आलोचना के आगे एक गंभीर समस्या पेश करते हैं. संभवतः इसलिए कि वे न तो नयी कहानी आंदोलन के बीच से उभर कर आये, न प्रगतिशील आंदोलन के बीच से. साठोत्तरी कथा साहित्य के प्रवर्तन का दावा भी उन्होंने कभी किया नहीं. इस तरह साहित्यिक आंदोलन की शिविर बद्धता के चौखटे में वे कभी शामिल नहीं हुए. उनकी कहानियों में मध्य वर्ग का एक ऐसा संसार है, जिसका एनकाउंटर सफल और संपन्न वर्ग से है, जो या तो स्वयं उच्च वर्ग की ओर मुखातिब है, या फिर मध्य वर्ग में रहते हुए स्वयं को अभिशप्त पाता है. यह अभिशप्ति सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक कारणों से है. जीवन का एक विशेष तरह का खुरदुरापन है जिसकी नोकें रह-रह कर चुभती हैं. इन कहानियों में ऊपर जाने के समीकरण हैं, आदर्श का तिरोहण है, और समझौतावादी प्रवृत्तियों का उठान है. बाजार की एक अपरिहार्य भूमिका तो है ही जिसमें मध्य वर्ग एक सशक्त मोहरा है.


सच है कि ‘राग दरबारी’ के कीर्तिमान को चुनौती देने वाला और कोई नहीं, श्रीलाल शुक्ल ही हो सकते थे, आज भी व्यंग्य उपन्यास के शीर्ष पर विराजमान तो है हीं. सभी भाषाओं को मिलाकर दस श्रेष्ठ उपन्यासों की बात होगी, तो ‘राग दरबारी’ को उस सूची से बाहर रखना बेहद मुश्किल होगा. हिंदी के सबसे बड़े व्यंग्यकार परसाई हैं, तो हिंदी व्यंग्य के शीर्ष उपन्यासकार श्रीलाल शुक्ल ही रहेंगे. आज से पच्चीस वर्ष पहले अखिलेश ने अपनी पत्रिका ‘तद्भव’ के प्रवेशांक की भूमिका में कहा था कि श्रीलाल शुक्ल एक ऐसे बड़े लेखक हैं जिसके साहित्य में संसार का तद्भव रूप प्रबल है. उनके यहां भी सामाजिक सरोकार की पक्षधरता है, पर उनकी पक्षधरता के औजार बिल्कुल नये हैं. अंत में उनके लिखे साहित्य से निकली दो सूक्तियां-
‘आदमी के सुखी रहने का मंत्र यह है कि वह पत्नी को प्रेमिका की तरह प्रेम दे और प्रेमिका को पत्नी की तरह विश्वास.’ 2. ‘ज्योतिष और तंत्र अधम विद्या हैं, इनसे दूर रहना चाहिए और मैं दूर रहता हूं.’

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