Birth Centenary : अपनी ही लीक पर चलते रहे समरेश बसु

Birth Centenary : 'आनंदबाजार पत्रिका' ने समरेश बसु को इलाहाबाद के कुंभ मेले में भेजा था. वर्ष 1950 में उसी की पत्रिका 'देश' में धारावाहिक छपे.

By कल्लोल चक्रवर्ती | December 10, 2024 10:37 PM

Birth Centenary : बांग्ला के सबसे लोकप्रिय लेखकों में एक सुरथनाथ, यानी समरेश बसु ने बचपन में लेखक बनने के बारे में नहीं सोचा था. पिता ने पढ़ाई के लिए उद्दंड बेटे को बड़े बेटे के पास नैहाटी भेजा. पर पढ़ाई के बजाय गंगा के विस्तार और चटकलों में नौकरी करते लोगों की जीवन यात्रा ने बालक सुरथनाथ का ध्यान खींचा. बाद में पढ़ाई पूरी किये बगैर अपने से बड़ी परित्यक्ता गौरी से शादी कर वह नैहाटी छोड़कर आतपुर की बस्ती में जाकर बसने को मजबूर हो गये थे. गृहस्थी चलाने के लिए उन्होंने फेरीवाले का काम किया, अंग्रेज साहबों के यहां अंडे पहुंचाये, जूट मिल, ढाकेश्वरी कॉटन मिल और इछापुर राइफल फैक्ट्री में नौकरी की.

उसी दौरान कम्युनिस्ट विचारधारा के प्रति वह आकर्षित हुए. कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबंध लगा, तो उन्हें जेल जाना पड़ा. रिहा होने पर पत्नी ने नौकरी करने से रोका और लिखने के लिए कहा. बेटे नवकुमार बसु ने तब की गरीबी के बारे में लिखा है, ‘उत्तर चौबीस परगना के श्यामनगर और जगद्दल के बीच का इलाका था आतपुर. वहां की बस्ती जैसे इलाके में खपरैल के डेढ़ कमरों में हम छह लोग रहते थे. हम चार भाई-बहन घर के बाहर रहना ही पसंद करते थे, क्योंकि कमरे के उखड़े फर्श पर छोटा-सा स्टूल रखकर बाबा दावात में कलम डुबाकर लिखते थे. कमरे की दूसरी तरफ खुले बरामदे में मां चूल्हे पर रसोई बनाती थी. दो-चार पृष्ठ लिखने के बाद बाबा मां के पास जाते और उन्हें पढ़कर सुनाते थे. मां अपनी राय देती थीं. ‘समरेश बसु ने दो सौ से भी अधिक कहानियां लिखीं. ‘आदाब’ उनकी पहली कहानी थी. उनके उपन्यासों की संख्या सौ से अधिक है.

‘आनंदबाजार पत्रिका’ ने समरेश बसु को इलाहाबाद के कुंभ मेले में भेजा था. वर्ष 1950 में उसी की पत्रिका ‘देश’ में धारावाहिक छपे. उपन्यास ‘अमृतकुंभेर संधाने’ ने उन्हें बांग्ला साहित्य में चर्चित बना दिया. गुलजार ने लिखा है कि ‘देश’ पत्रिका में बिमल राय धारावाहिक ‘अमृतकुंभ’ को गहन उत्सुकता से पढ़ते थे. वर्ष 1977 में प्रकाशित उनके उपन्यास ‘महाकालेर रथेर घोड़ा’ के आदिवासी चरित्र रुहितन कुर्मी को, जो बाद में नक्सल आंदोलन का नेता बन जाता है, विश्लेषकों ने पश्चिम बंगाल के तराई इलाके के नेता जंगल संताल के तौर पर रेखांकित किया. महाभारत की पृष्ठभूमि पर लिखे गये उपन्यास ‘शांब’ पर समरेश बसु को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. आखिरी दिनों में वह दिग्गज मूर्तिकार रामकिंकर बैज पर उपन्यास लिख रहे थे. दूसरे बांग्ला लेखकों की तरह समरेश बसु ने भी बच्चों के लिए लिखा. उनकी जासूसी कहानियों का नायक गोगोल दूसरे जासूसी नायकों से कमतर नहीं है.


समरेश नाम एक दोस्त का दिया हुआ था. लेखन वह उसी नाम से करते थे. फिर उन्हें कालकूट छद्म नाम की जरूरत क्यों पड़ी? कालकूट नाम से लिखे गये भ्रमण वृत्तांत उनकी आध्यात्मिक छटपटाहट और खोज के बारे में बताते हैं. यह छद्म नाम संभवत: इसलिए भी था कि कम्युनिस्ट विचारधारा उन्हें अपने साहित्यिक नाम से आध्यात्मिक जीवन यात्रा की तहों में जाने से रोकती थी. हालांकि अपनी अनेक कहानियों में वाम विचारधारा के अंदर विकसित बुर्जुआ सोच को भी उन्होंने उद्घाटित किया है. उनकी अनेक रचनाओं पर फिल्में बनीं.’अमृतकुंभेर संधाने’ पर बिमल राय ने फिल्म शुरू की थी. पर उनके निधन से फिल्म नहीं बन पायी.

मृणाल सेन की ‘जेनेसिस’ फिल्म तो समरेश बसु की कहानी पर है ही, ‘कैलकेटा-71’ नाम से कोलकाता पर जो तीन फिल्में उन्होंने बनायीं, उनमें से एक उनकी कहानी पर है. गुलजार ने उनकी ‘पथिक’ कहानी पर ‘किताब’, ‘आदाब’ कहानी पर ‘खुदा हाफिज’ और ‘अकाल बसंतो’ पर ‘नमकीन’ फिल्म बनायी. समरेश बसु की ‘पारी’ कहानी पर गौतम घोष ने ‘पार’ जैसी अविस्मरणीय फिल्म बनायी. समरेश बसु उन लेखकों में से थे, जिन्होंने बार-बार अपनी छवि तोड़ी. उनकी शुरुआती रचनाएं कामकाजी वर्ग के लोगों पर है. पर ‘विवर’ और ‘प्रजापति’ लिखकर उन्होंने बताया कि वह लीक पर चलने वाले नहीं हैं.

अश्लीलता के आरोप पर दोनों किताबों पर प्रतिबंध लगा. बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिबंध हटाने का निर्देश दिया. तभी कम्युनिस्ट पार्टी ने समरेश बसु से ऐसी दूरी बनायी कि उनकी मृत्यु के बाद बुद्धदेव भट्टाचार्य ने ‘लेखक की दूसरी मृत्यु’ शीर्षक टिप्पणी लिखकर उन पर कटाक्ष किया था. इसके बावजूद पेशेवर लेखक के रूप में उनका अनुशासन चकित करता था. देर रात तक व्यस्त रहने के बावजूद वह तड़के लिखने बैठ जाते थे और बगैर पारिश्रमिक के नहीं लिखते थे. विपुल मात्रा में लेखन के बावजूद न तो उन्होंने कभी कोई कहानी दोहरायी, न अपने लेखन का स्तर गिरने दिया.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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