आखिरी दम तक वंचितों की आवाज बने रहे अदम गोंडवी
अदम के लिए अपनी शायरी में ईमानदार व जनोन्मुख होना ज्यादा अहम था. वे अपने शुरुआती दौर में ही सामंतों व सवर्णों को दलितों के कठिन जीवन का ताप महसूस कराने के उद्देश्य से ‘चमारों की गली’ शीर्षक मर्मभेदी रचना लिखकर अपने ‘बंधु-बांधवों’ को दुश्मन बना चुके थे.
जनकवि अदम गोंडवी (22 अक्तूबर 1947-18 दिसंबर 2011) को आम तौर पर इस बात के लिए याद किया जाता है कि वे दलित व वंचित तबकों की आवाज बनकर बेबाकी से सत्ता से सवाल पूछते रहे. इसके लिए जरूरी हुआ, तो उन्होंने ‘अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने’ के साथ-साथ ‘अपनों’ को भी नाराज करने से परहेज नहीं किया. कहा जाता है कि गोपालदास ‘नीरज’ ने अपने एक गीत में जो यह लिखा था- ‘जिनका दुख लिखने की खातिर मिली न इतिहासों को स्याही, कानूनों को नाखुश करके मैंने उनकी भरी गवाही’, यह उनसे ज्यादा अदम की जिंदगी पर लागू होता है. अदम का सबसे तल्ख सवाल था- ‘सौ में सत्तर आदमी जब देश में नाशाद है, दिल पे रखकर हाथ कहिये देश क्या आजाद है?’ वे जल्दी ही इस निष्कर्ष पर पहुंच गये थे कि सौ में सत्तर आदमी इसलिए नाशाद हैं क्योंकि जिस रामराज्य का वे सपना देख रहे थे, उसका भेष बदलकर किसी और आंगन में उतार लिया गया है. तब उन्होंने लिखा- ‘काजू भुने पलेट में ह्विस्की गिलास में, उतरा है रामराज विधायक निवास में.’ यह लिखना खुद को भी आईना दिखाना था, क्योंकि ह्विस्की की लत उन्हें भी थी.
दरअसल, उनके कवि का बड़प्पन इसी बात में है कि उसने दारुण परिस्थितियों में भी न अपने सवाल बदले, न ही उन्हें पूछने के अपने उसूल से समझौता किया. यही कारण है कि अदम की प्रश्नाकुलता ने चिराग तले का कोई अंधेरा सृजित नहीं किया. जो महानुभाव उनकी इज्जत करते, अपनी सोहबत में रखते, उनकी दुर्दशा पर रहम करते, और साथ खाते-पीते थे, उनके ‘अंधेरों’ के प्रति भी नरम नहीं, निर्मम रुख ही अपनाया. मिसाल के तौर पर, उत्तर प्रदेश के जिस गोंडा जिले में उनका घर था, वहां के एक ‘सिन्हा’ टाइटल वाले जिलाधिकारी उनके मित्र थे और यह सोचकर अपने स्याह-सफेद की परदेदारी किये बिना उन्हें अपने यहां बैठाते थे कि वे भले आदमी हैं, कवि तो हैं ही. लेकिन अदम ने उनके यहां जो कुछ भी देखा, उसे बेबाकी से लिख दिया- ‘महज तनख्वाह से निपटेंगे क्या नखरे लुगाई के, हजारों रास्ते हैं सिन्हा साहब की कमाई के.’ बेचारे सिन्हा तिलमिला कर रह गये. लेकिन वे उनके इकलौते शिकार नहीं थे. उनके गांव के एक सरपंच ने, जिसका उन पर कई ‘उपकारों’ का दावा था, अपनी पहुंच का बेजा इस्तेमाल कर गांव की एक लाचार वृद्धा की झोपड़ी अपनी चौपाल में मिला ली, तो उन्होंने लिखा- ‘बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गयी, रामसुधी की झोपड़ी सरपंच की चौपाल में.’
अदम के लिए अपनी शायरी में ईमानदार व जनोन्मुख होना ज्यादा अहम था. वे अपने शुरुआती दौर में ही सामंतों व सवर्णों को दलितों के कठिन जीवन का ताप महसूस कराने के उद्देश्य से ‘चमारों की गली’ शीर्षक मर्मभेदी रचना लिखकर अपने ‘बंधु-बांधवों’ को दुश्मन बना चुके थे. बात अधूरी रह जायेगी, अगर 1986 के अदम के उस आगाज का जिक्र न किया जाए, जिसने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध कर दिया. उस साल प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के पचास साल पूरे हुए थे और लखनऊ में हो रहे उसके सम्मेलन में रात को आयोजित कवि सम्मेलन में मुल्कराज आनंद, ताबां, नागार्जुन, त्रिलोचन और कैफी आजमी वगैरह के साथ कई भारतीय व विदेशी भाषाओं के कवि भी उपस्थित थे. सम्मेलन शुरू हुआ और संचालक ने परंपरा के अनुसार वरिष्ठों को पेश करने से पहले, स्थानीय कनिष्ठ कवि यश प्रार्थियों को उपकृत करना शुरू किया, तो काव्य-संसार में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्षरत अदम भी उन्हीं के बीच जा बैठे. वे स्थानीय नहीं थे, पर उन्होंने संचालक से वायदा करा लिया था कि वह वरिष्ठ कवियों से पहले उनका पाठ करा देगा. पर ऐन वक्त पर संचालक अपना वायदा भूल गया और याद दिलाने पर झिड़ककर कह दिया कि अब वक्त नहीं बचा. फिर तरस खाते हुए कहा- चलो, नाम पुकार देता हूं तुम्हारा, पर एक कविता सुनाकर बैठ जाना.
अदम माइक पर पहुंचे, तो किसी उद्दंड श्रोता को कहते सुना- ‘लगता है कि अभी-अभी हल जोतकर आ रहा है!’ वे उसकी बात अनसुनी करके गजल पढ़ना शुरू करते कि कुछ दूसरे श्रोता भी ‘ही-ही-ही-ही’ करने लगे. नजाकत व नफासतपसंद लखनऊ के लोग किसान अदम की देहाती वेशभूषा का मजाक उड़ाने पर उतर आये थे. लेकिन अदम ने अपने आत्मविश्वास को कमजोर नहीं पड़ने दिया और गजल पढ़ना शुरू किया- ‘जितने हरामखोर थे कुर्ब-ओ-जवार में, परधान बनके आ गये अगली कतार में/ जब दस मिनट की पूजा में घंटों गुजार दें, समझो कोई गरीब फंसा है शिकार में.’ फिर तो चमत्कार हो गया! उनका मजाक उड़ा रहे श्रोताओं की संवेदनाएं इस कदर झंकृत हो उठीं कि अदम वही गजल सुनाकर जाने लगे, तो संचालक को उन्हें दोबारा बुलाने को मजबूर कर दिया और फिर भी तृप्त नहीं हुए. संचालक ने समय की कमी का हवाला देकर माफी मांगी और वरिष्ठ कवियों को पेश करना शुरू किया, तो भी नाराजगी जताते रहे. उसके बाद अदम साहित्याकाश में छाये, तो आखिरी सांस तक छाये ही रहे.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)