भाजपा के बढ़ते राजनीतिक प्रभाव
अगर मोदी-शाह का अभियान अबाध चलता रहा, तो भाजपा भारत का नया इंद्रधनुषी कैनवास बनेगी, जिसके शीर्ष पर पूर्ण केसरिया रंग रहेगा.
हर आंदोलन का नियंत्रक, उद्देश्य और आवेग होता है. जब इसकी गति तेज हो जाती है, तो वह कई समानांतर तत्वों काे आकर्षित करता है, प्रभावित करता है. भाजपा का राजनीतिक अभियान ऐसा ही है, जिसने मोदी के शक्तिशाली नेतृत्व के द्वारा भारत में वर्चस्व स्थापित कर लिया है. मोदी इसके विचार और विचारधारा दोनों हैं तथा उनके समकक्ष कोई नहीं है.
उनके आकर्षण और अमित शाह जैसे वफादार सेनापति के दृढ़ निश्चय ने भाजपा को दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बना दिया है, जिसके 16 करोड़ से अधिक सदस्य हैं. उनकी पार्टी में अन्य दलों के लगातार विलय और दूसरे दलों से नेताओं के शामिल होते जाने को लेकर मोदी के प्रशंसक भी अचरज में हैं. कुछ दिन पहले ही अपनी पार्टी में अप्रासंगिक हो चुके कई कांग्रेसी नेता भाजपा में आये हैं.
पुराने केसरिया समर्थक विचारों के घालमेल होने से परेशान हैं, पर भाजपा के सूत्रधारों के लिए नये लोगों का आना खेल के लिए निर्णायक है. उदाहरण के लिए, पंजाब कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सुनील जाखड़, जो मजबूत जाट नेता बलराम जाखड़ के बेटे हैं, को भाजपा में शामिल किया गया है, जहां पार्टी के पास नेतृत्व का अभाव है.
मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे कुछ राज्यों के अलावा क्षेत्रीय स्तर पर भाजपा के पास आकर्षक व प्रभावी नेता नहीं हैं. उसके पास मूल रूप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समर्पित कार्यकर्ता ही हैं. वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित होने के साथ ही मोदी ने दूसरे दलों से लोगों को लाने का पहला चरण शुरू कर दिया क्योंकि भाजपा का प्रभाव कुछ राज्यों तक ही सीमित था.
उन्होंने कई पूर्व मुख्यमंत्रियों, केंद्रीय मंत्रियों, अहम जातिगत नेताओं, गणमान्य लोगों तथा सेवानिवृत्त नौकरशाहों को सम्मान के साथ स्थान दिया. तब से भाजपा में जगह पाने के लिए जीतने की क्षमता होना जरूरी योग्यता है, ठोस विचारधारात्मक प्रतिबद्धता नहीं. पर चयन प्रक्रिया कठिन है. प्रवासी पक्षियों को सामाजिक रूप से प्रासंगिक और आर्थिक तौर पर समृद्ध होना चाहिए, पर उनका असर उनकी भौगोलिक सीमा तक ही सीमित होनी चाहिए.
उनमें अपनी पुरानी पार्टी से योग्य लोगों को खींच लाने तथा पुराने भाजपाइयों व नये लोगों के बीच कड़ी बनने की क्षमता भी होनी चाहिए. इस प्रयोग को असम में शानदार कामयाबी मिली, जहां 2016 के चुनाव से ठीक पहले तेजतर्रार कांग्रेस नेता हेमंत बिस्वा सरमा को भाजपा में शामिल किया गया था.
सरमा के पास संसाधन तो थे ही, पूर्वोत्तर की छोटी पार्टियों से भी उनका जुड़ाव था. उन्होंने अतिवाद और धार्मिक कट्टरपंथ से ग्रस्त पूर्वोत्तर के अधिकतर राज्यों में भाजपा की जीत सुनिश्चित की. केंद्रीय मंत्री बनाने के बाद उन्हें मुख्यमंत्री का पद देकर पुरस्कृत किया गया.
बीते पांच वर्षों में पूर्व कांग्रेसियों को महत्वपूर्ण पद दिये गये हैं. कर्नाटक के मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई संघ की पृष्ठभूमि से नहीं हैं. उन्होंने अपना राजनीतिक करियर जनता दल से शुरू किया था और 2008 में भाजपा में आये थे. अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा खांडू पूर्व कांग्रेसी हैं और उन्होंने 2016 में केसरिया चोला पहना था.
मणिपुर के बीरेन सिंह ने भी अपना राजनीतिक जीवन कांग्रेस में शुरू किया था और वे मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भाजपा में आये. आश्चर्यजनक रूप से भाजपा ने अपने सबसे युवा मुख्यमंत्री बिप्लब देब को हटा कर 69 साल के पूर्व कांग्रेसी माणिक साहा को त्रिपुरा का मुख्यमंत्री बना दिया, जो 2016 में शामिल हुए थे. एडीआर के एक अध्ययन के अनुसार, 2014 से 2021 के बीच भाजपा के 500 संसदीय या विधानसभाई उम्मीदवारों में से 35 प्रतिशत दूसरे दलों से आये थे.
लगभग हर चौथे भाजपा सांसद या विधायक की पृष्ठभूमि कांग्रेसी है. कुछ राज्यों में आधे मंत्री कभी भाजपा के धुर आलोचक थे. भाजपा को मध्य प्रदेश, गुजरात और हिमाचल प्रदेश में सत्ता बचानी होगी, जहां 2024 से पहले चुनाव होने हैं. उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, बिहार, हरियाणा, दिल्ली, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में लगभग सभी लोकसभा सीटें जीत कर पूरा वर्चस्व बना लिया है.
सत्ता समीकरण के हिसाब से दूसरे राज्यों के नुकसान की भरपाई के लिए इंतजाम जरूरी है. विपक्ष शासित पश्चिम बंगाल और ओडिशा में भी 2019 में भाजपा को बड़ी कामयाबी मिली थी. लेकिन पार्टी को उस प्रदर्शन को दुहराने की उम्मीद नहीं है. विपक्ष के आकलन के अनुसार, भाजपा महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, असम, बंगाल, हरियाणा, छत्तीसगढ़, बिहार, कर्नाटक और झारखंड में 75 से 100 सीटें हार सकती है. ऐसे में उसके सामने बहुमत बचाने की चुनौती है.
उसे 2024 में तीसरी मोदी लहर की अपेक्षा है. तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश में सौ से अधिक सीटें हैं, जिनमें भाजपा अधिक से अधिक आधा दर्जन हासिल कर सकती है. इसीलिए तेलंगाना, तमिलनाडु और केरल में सत्ताधारी व क्षेत्रीय दलों को तोड़ने की कोशिश हो रही है. अगले कुछ महीनों के दौरान वह तेलंगाना व आंध्र प्रदेश में तेलंगाना राज्य समिति और वायएसआर कांग्रेस, तमिलनाडु में अन्ना द्रमुक और कर्नाटक में जनता दल (एस) के प्रमुख नेताओं को अपने पाले में लाने का प्रयास कर सकती है.
भाजपा ने महाराष्ट्र में एनसीपी और कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं की सूची बनायी है. राजस्थान में वह सचिन पायलट को अपने पाले में लाना चाहती है, क्योंकि कोई केसरिया नेता जीत सुनिश्चित नहीं कर सकता. छत्तीसगढ़ में भाजपा के पास रमन सिंह का कोई प्रभावी विकल्प नहीं है. वहां वह स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव को लुभाने में लगी है, जो मुख्यमंत्री नहीं बनाये जाने से रुष्ट हैं.
भाजपा के रणनीतिकार मुस्लिम और ईसाई आबादी को छोड़कर शेष 80 प्रतिशत को लामबंद करने के प्रयास में हैं. यह स्पष्ट है कि भाजपा के भौगोलिक विस्तार का मुख्य कारण गांधी परिवार के नेतृत्व में कांग्रेस का सिमटते जाना है. अगर मोदी-शाह का राजनीतिक अभियान अबाध चलता रहा, तो भाजपा भारत का नया इंद्रधनुषी कैनवास बनेगी, जिसके शीर्ष पर पूर्ण केसरिया रंग रहेगा. इसमें दूसरे दलों से नेताओं की भरमार होगी, जिसका नेतृत्व दृढ़ हिंदुत्ववादी दक्षिणपंथी नेता करेंगे.