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चुनावी तैयारी में कोई ढील नहीं देगी भाजपा

ध्यान रहे कि पिछले चुनाव में 63 फीसदी मत गैर-भाजपा दलों के खाते में गये थे. भाजपा को 2019 के चुनाव में 37 प्रतिशत वोट मिले थे. हालांकि, यह नहीं भूलना चाहिए कि अभी चार-पांच बड़ी पार्टियां किसी भी पाले में नहीं हैं.

भारतीय जनता पार्टी ने जिस तरह से इस सप्ताह एनडीए का पुनर्गठन किया और 38 दलों को गठबंधन में जुटा लिया उससे एक बात स्पष्ट है, कि भाजपा चेतावनी के किसी भी संकेत को बहुत गंभीरता से लेती है. विपक्ष की ओर से पिछले महीने पटना बैठक के बाद एकजुटता की जो कोशिशें हुई हैं, उन्हें भाजपा गंभीरता से ले रही है. भाजपा का अकेले अपने दम पर चुनाव में उतरने का पुराना रवैया अब बदल चुका है.

भाजपा अब जोखिम नहीं लेना चाहती और कोई भी ढील नहीं देना चाहती. वर्ष 2019 के पिछले चुनाव में भाजपा ने अभी तक का सबसे अच्छा प्रदर्शन करते हुए सबसे ज्यादा सीटें हासिल की थी. उत्तर भारत में उसने 90 फीसदी से ज्यादा सीटें हासिल की थी. ऐसे में अगर अगले चुनाव में विपक्ष की एकता की वजह से भाजपा की 60-70 सीटें कम हो जाती हैं तो उनके सामने मुश्किल खड़ी हो सकती है. इसी खतरे को ध्यान में रख वह अपने सहयोगियों को दोबारा जुटा रहे हैं या एनडीए का पुनर्गठन कर रहे हैं या उसका विस्तार कर रहे हैं, ताकि यदि कहीं वे बहुमत के आंकड़े से दूर रह गये तो अपने उन सहयोगियों का सहारा ले सकें.

हालांकि, भाजपा ने जिन 38 दलों को जुटाया है, उनमें ज्यादा पार्टियां बहुत छोटी हैं. मगर उनका महत्व तो होता ही है. जैसे, ओम प्रकाश राजभर की पार्टी सुभासपा है या संजय निषाद की निषाद पार्टी छोटी पार्टियां हैं, लेकिन राजभर और निषाद जैसे छोटे समुदायों का चुनाव में अपने इलाकों में काफी महत्व होता है. प्रधानमंत्री ने दिल्ली की बैठक में एनडीए के बारे में बहुत ही जोर-शोर से बातें की और कहा कि 25 सालों से एनडीए कायम है, और इसी की वजह से उनकी सरकार ने कई काम किये. इस बैठक में प्रधानमंत्री का रुख बिल्कुल अलग था, जिसमें उनका गठबंधन की तरफ झुकाव नजर आया.

एनडीए के सामने अभी सबसे बड़ी चुनौती जमीनी स्तर पर आयेगी. आगे बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि जमीनी स्तर पर लोगों की भावनाएं कितनी बदल रही हैं. महंगाई और बेरोजगारी जैसे वास्तविक मुद्दे चुनाव में कितना असर डालते हैं, और दस साल के बाद क्या कोई सत्ता-विरोधी लहर बन पाती है, यह सब आगे चलकर महत्वपूर्ण होगा. लेकिन यहां यह भी देखना होगा कि विपक्ष के पास क्या ऐसी सांगठनिक क्षमता है जिससे वह इन भावनाओं को मुद्दा बना सके.

क्योंकि, यह ध्यान रखना चाहिए कि उनका मुकाबला एक ऐसे प्रतिद्वंद्वी के साथ है जिसके पास एक लोकप्रिय नेता और एक बहुत ही मजबूत संगठन है. एनडीए के सामने दूसरी बड़ी चुनौती विपक्ष की एकजुटता की होगी. विपक्षी दलों में यदि सीटों के बंटवारे पर सहमति हो जाती है और चुनाव में एनडीए के प्रत्याशी के सामने विपक्ष का केवल एक ही उम्मीदवार खड़ा होता है तो वह कड़ा मुकाबला हो जायेगा. ध्यान रहे कि पिछले चुनाव में 63 फीसदी मत गैर-भाजपा दलों के खाते में गये थे.

भाजपा को 2019 के चुनाव में 37 प्रतिशत वोट मिले थे. हालांकि, यह नहीं भूलना चाहिए कि अभी चार-पांच बड़ी पार्टियां किसी भी पाले में नहीं हैं. इनमें नवीन पटनायक की पार्टी बीजू जनता दल, केसीआर की पार्टी भारत राष्ट्र समिति, जगन मोहन रेड्डी की पार्टी वाइएसआर कांग्रेस और मायावती की बहुजन समाज पार्टी जैसी पार्टियां हैं. यह संभव है कि अंदरखाने भाजपा के साथ इनकी कोई सहमति हो गयी हो, मगर अभी तक ये किसी एक पाले में नहीं गयी हैं.

ये पार्टियां 2024 के चुनाव में जो भी सत्ता में आता दिखेगा, उसके साथ जा सकती हैं. बाकी की सारी पार्टियां एनडीए को चुनौती देने के लिए जुटे विपक्ष का हिस्सा बन चुकी हैं. हालांकि, अभी कुछ भी अंतिम नहीं है. आने वाले दिनों में अक्सर ऐसी खबरें आयेंगी कि किसी पार्टी में टूट हो गयी, तो कुछ पार्टियां एकजुट हो गयीं.

एनडीए और विपक्ष दोनों के लिए अभी सबसे दिलचस्प बिहार हो गया है. वहां नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू में टूट की अटकलें लगायी जा रही हैं. चिराग पासवान को एनडीए में लौटाकर भाजपा ने बड़ा हाथ मारा है. वहीं महाराष्ट्र में एनसीपी में टूट के बाद विपक्ष को झटका जरूर लगा है. लेकिन, चुनाव के समय एनसीपी क्या करेगी यह कहना मुश्किल है. मान लें कि यदि अजित पवार को मुख्यमंत्री नहीं बनाया जाता, तो क्या वह शरद पवार के पास लौट सकते हैं? वहीं यदि पवार को मुख्यमंत्री बना दिया गया, तो क्या एकनाथ शिंदे वापस उद्धव ठाकरे के पास चले जायेंगे?

ये सभी संभावनाएं बरकरार हैं और चुनाव के आस-पास समीकरण बदलेंगे. इसी तरह, पश्चिम बंगाल में भी अभी विपक्ष के सामने सहमति बनाने की चुनौती है. वहां वाम दल और कांग्रेस ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के साथ हो जायेंगे या चुनाव त्रिकोणीय होता है, यह देखना होगा. वहां विपक्ष को शायद अपनी रणनीति पर भी दोबारा सोचना होगा क्योंकि वहां भाजपा के सामने विपक्ष का यदि एक ही उम्मीदवार उतरता है, तो भाजपा अपने-आप प्रदेश की मुख्य विपक्षी पार्टी बन जायेगी.

कर्नाटक भी एक महत्वपूर्ण राज्य है. वहां देवगौड़ा की पार्टी जेडीएस भाजपा के साथ जा सकती है. ऐसे ही उत्तर भारत की वे 190 सीटें भी महत्वपूर्ण हैं, जहां कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधी टक्कर होगी. पिछले चुनाव में भाजपा ने इनमें से ज्यादातर सीटों पर जीत हासिल की थी. अगले चुनाव में वहां कांग्रेस का क्या कायापलट हो सकेगा और क्या वह टक्कर दे पायेगी, यह देखना महत्वपूर्ण होगा.

भारत में पिछले कई चुनाव दो गठबंधनों के बीच हुए हैं, जिनका नेतृत्व दो बड़ी पार्टियां करती रही हैं. यूपीए में कांग्रेस और एनडीए में भाजपा. वर्ष 2024 का चुनाव भी दो गठबंधनों के चुनाव की ओर बढ़ता दिख रहा है. हालांकि, एनडीए और इंडिया में एक बड़ा अंतर है. एनडीए के पास एक लोकप्रिय नेता है और उसके इर्द-गिर्द छोटी पार्टियां हैं. वहीं इंडिया गठबंधन में एक समान प्रभाव वाली पार्टियां हैं.

कांग्रेस एक बड़ी पार्टी जरूर है, लेकिन वह इतनी बड़ी नहीं है कि अन्य दलों से एकदम अलग लगे. ऐसे गठबंधन को चलाना ज्यादा बड़ी चुनौती होगी. मगर अगला चुनाव इन दलों के लिए अस्तित्व की लड़ाई बन सकती है. ऐसे में संभव है कि इस बार वे अलग तरह से बर्ताव करें. नरेंद्र मोदी यदि तीसरी बार सत्ता में आते हैं, तो कुछ दलों के लिए यह जीवन-मरण का प्रश्न बन सकता है. इसलिए आज की तारीख में वे भाजपा को कड़ी टक्कर देने के मूड में नजर आ रहे हैं.

(बातचीत पर आधारित)

(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)

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