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भारत में बेरोजगारी की धुंधली तस्वीर

बहुत सारे लोग जो खुद को काम करनेवाला बताते हैं, वे हो सकता है कि कई पार्ट टाइम काम करते हों. फुल टाइम नौकरी नहीं होने को बेरोजगारी समझा जा सकता है, लेकिन वह भ्रामक होगा. ऐसे देश में जहां 90 फीसदी श्रमबल के पास कोई निश्चित नौकरी नहीं हैं.

किसी देश की अर्थव्यवस्था को व्यापक तौर पर प्रभावित करने वाले तीन सबसे अहम माइक्रोइकोनॉमिक्स कारक होते हैं- विदेशी मुद्रा विनिमय दर, मुद्रास्फीति दर और बेरोजगारी दर. रिजर्व बैंक पहले कारक की गणना रोज और सटीक करता है, और इसे व्यवस्थित भी वही करता है. मुद्रास्फीति की दर सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय हर महीने घोषित करता है, जो एक महीने पहले के आंकड़े होते हैं. जैसे नवंबर में अक्तूबर की मुद्रास्फीति का पता चलता है. विदेशी मुद्रा विनिमय दर से उलट, मुद्रास्फीति के आंकड़ों पर सवाल उठाये जा सकते हैं, क्योंकि इसका निर्धारण कई सामग्रियों की कीमतों के औसत से होता है. लेकिन, मुद्रास्फीति के आंकड़े के ही आधार पर ब्याज दर, महंगाई भत्ते और विभिन्न अनुबंधों में खर्चों में वृद्धि का हिसाब होता है. मुद्रास्फीति को नीचे और स्थिर रखना रिजर्व बैंक का काम है. लेकिन, वह सरकारी खर्चों में वृद्धि से उपजी वित्तीय चुनौती से ही जूझता रहता है. पिछले महीने चुनावी माहौल शुरू होते ही राजनीतिक दलों ने मुफ्त सुविधाओं के वादों की झड़ी लगा दी, जिससे सरकारी खजाने पर और बोझ बढ़ेगा और मुद्रास्फीति ऊपर जायेगी. इसकी जवाबदेही न तो रिजर्व बैंक लेगा और न सरकार.

लेकिन अर्थव्यवस्था के तीसरे अहम कारक, यानी बेरोजगारी की तस्वीर साफ नहीं है. पर यह साफ क्यों नहीं है? पहली वजह यह है कि हमारे यहां आधा श्रमबल कृषि से जुड़ा है और उन्हें उद्यमी या स्व-रोजगार करता मान लिया जाता है. एक अनुमान है कि कृषि उत्पाद का 40 फीसदी हिस्सा भूमिहीन मजदूर या छोटे किसानों से आता है, जो दूसरों के खेतों पर मजदूरी करते हैं. इनका रोजगार मौसमी होता है, लेकिन उनके तथाकथित मालिकों के साथ न तो कोई लिखित करार होता है, न कोई सुविधाएं मिलती हैं. बाकी श्रमबल का 80 फीसदी हिस्सा अनौपचारिक या गैर-निबंधित क्षेत्र में काम करता है. इनके पास भी कोई करार नहीं होता. ऐसे बहुत सारे लोग जो खुद को काम करनेवाला बताते हैं, वे हो सकता है कि कई पार्ट टाइम काम करते हों.

फुल टाइम नौकरी नहीं होने को बेरोजगारी समझा जा सकता है, लेकिन वह भ्रामक होगा. ऐसे देश में जहां 90 फीसदी श्रमबल के पास कोई निश्चित नौकरी नहीं हैं, वहां काम की तलाश करते लोग यह कहते मिल जाते हैं कि ‘मुझे नौकरी नहीं काम चाहिए’. औपचारिक क्षेत्र में रोजगार वृद्धि के धीमा होने की वजह पाबंदियों वाले श्रम कानून हैं या फिर इस तरह होती आर्थिक वृद्धि जिसमें श्रम की जगह पूंजी पर जोर ज्यादा होता है. ऐसे में रोजगार के बारे में असल तस्वीर कैसे मिल सकती है? सरकार 2017 से हर तिमाही पर पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस) नाम का एक स्टेटमेंट जारी करती है. इसमें शहरी क्षेत्रों में तीन सूचकों का आकलन दिया जाता है- श्रमिकों की आबादी का अनुपात, श्रमबल की भागीदारी दर और बेरोजगारी दर.

सरकार शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी का वार्षिक आकलन भी जारी करती है. जुलाई में खत्म हुई तिमाही की ताजा रिपोर्ट से ये बातें पता चलती हंै- पिछली पांच तिमाहियों से पुरुषों के लिए श्रमबल की भागीदारी दर 73.5 प्रतिशत पर स्थिर है, और महिलाओं के लिए 18.9 से बढ़कर 21.1 हो गयी है. दूसरी बात, पुरुषों के लिए बेरोजगारी दर 7.1 से घटकर 5.9 प्रतिशत हो गयी है, और महिलाओं के लिए 7.6 से घटकर 6.6 प्रतिशत हो गयी है. ये सुधार सराहनीय है, लेकिन महिलाओं की श्रम में भागीदारी अभी भी काफी कम है. जी-20 देशों में भारत की महिलाओं की श्रम में भागीदारी सबसे कम है. जी-20 देशों में भारत की महिलाओं की श्रम में भागीदारी सबसे कम है. लेकिन, हाल ही में शिक्षा मंत्री के एक बयान के हवाले से आयी एक रिपोर्ट में बताया गया कि 2022-23 में महिलाओं की भागीदारी बढ़ कर 37 प्रतिशत हो गयी है.

यह पीएलएफएस की अप्रैल से जुलाई तक की रिपोर्ट में किये गये दावे से 16 प्रतिशत ज्यादा है, हालांकि इसमें केवल शहरी श्रम का आकलन दिया गया है. ऐसा कहा जा रहा है कि शायद सही गणना नहीं होने से यह संख्या कम आ रही है. या शायद, सवाल गलत पूछे जा रहे हैं. जैसे, यदि कोई महिला घर के किसी व्यवसाय में हाथ बंटाती है और उससे पूछा जाए कि ‘क्या वह काम कर रही है’, तो वह शायद इनकार कर देगी. लेकिन, अगर पूछा जाए कि ‘क्या वह घर में बननेवाले उत्पादों (हस्तकला या कुटीर उद्योग) में हाथ बंटा रही है’, तो शायद उसका जवाब हां होगा. अंतरराष्ट्रीय श्रम कार्यालय ने भी भारत में महिलाओंं के काम के आंकड़े जुटाने के तरीके में सुधार पर सहमति जतायी है. लेकिन, इसके बावजूद 21.1 प्रतिशत और 37 प्रतिशत का अंतर बहुत ज्यादा है. तो, सही कौन है?

यह भ्रम एक निजी कंपनी सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआइइ) के आंकड़ों से और बढ़ जाता है. उनकी पद्धति को लेकर काफी बहस और आलोचना होती रही है. लेकिन, उनके आंकड़ों में बेरोजगारी की स्थिति और गंभीर दिखाई देती है. सीएमआइई ने कुछ राज्यों में युवाओं में बेरोजगारी की दर 37 प्रतिशत तक बतायी है. इस बारे में जानकारी का एक और स्रोत कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (इपीएफओ) से मिलता है, खास तौर पर औपचारिक क्षेत्र के बारे में. ऐसा दावा किया जाता है कि पीएफ की संख्या में वृद्धि का मतलब रोजगार वृद्धि होना है. लेकिन, इसमें केवल उन्हीं कंपनियों के आंकड़े लिये जाते हैं, जहां पीएफ के नियम लागू होते हैं, यानी ऐसे कार्य स्थल जहां 10 से ज्यादा लोग काम करते हैं. ऐसे में अगर कहीं कामगारों की संख्या नौ से बढ़कर 11 हो गयी, तो पीएफ आंकड़े में 11 लोगों के रजिस्ट्रेशन की गिनती होगी, जबकि वास्तविकता में केवल दो लोगों को नयी नौकरियां मिली हैं.

फिर, यदि कोई नौकरी छोड़ दे, तो इपीएफओ उसे गिनती से बाहर नहीं करेगा. रोजगार की सही तस्वीर का अनुमान अंधे लोगों और हाथी वाली कहानी जैसा है. सब कुछ इस पर निर्भर करता है कि इसे किस तरह गिना जा रहा है. पिछले चार सालों में कृषि क्षेत्र में श्रमबल की संख्या 42.5 प्रतिशत से बढ़कर 46.5 प्रतिशत हो गयी, जिसमें बाद में थोड़ी गिरावट आयी. लेकिन, यह चिंता की बात है क्योंकि खेती में पैसा कम है. विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार भी या तो कम हो रहा है या स्थिर है. अर्थव्यवस्था के लिए रोजगार वृद्धि की जरूरत को देखते हुए, सटीक गणना का ऐसा तरीका लाया जाना चाहिए, जिससे रोजगार और बेरोजगारी की विश्वसनीय स्थिति का अंदाजा मिल सके.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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