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बीएन गोस्वामी: भारतीय कला इतिहास के अनन्य मर्मज्ञ

साठ के दशक में पंजाब यूनिवर्सिटी के ही एक अन्य प्रसिद्ध इतिहासकार जेएस ग्रेवाल के साथ मिलकर बीएन गोस्वामी ने मुगलकालीन ऐतिहासिक दस्तावेजों के संपादन का महत्वपूर्ण काम किया

हमारे बीच से धीरे-धीरे ज्ञान के अभूतपूर्व साधकों की पीढ़ी अब उठती जा रही है. दशकों तक ज्ञान साधना करने वाले ऐसे ही विद्वान थे बीएन गोस्वामी, जिन्हें दुनिया ने मान दिया. भारतीय कला इतिहास के मर्मज्ञ और प्रख्यात कला इतिहासकार बीएन गोस्वामी का बीते 17 नवंबर को निधन हो गया. यह बृजेंदर नाथ गोस्वामी (1933-2023) जैसे साधक विद्वान के लिए ही संभव था कि वे कला में मौन के महत्व को रेखांकित कर सके. नैनसुख और मानकु जैसे चित्रकारों को कला इतिहास की दुनिया में उनका प्राप्य दिलाने के लिए जिस साधना की जरूरत थी, वह गोस्वामी जैसे साधक ही संभव कर सकते थे. अविभाजित पंजाब में पैदा हुए बीएन गोस्वामी ने अमृतसर और पंजाब यूनिवर्सिटी (चंडीगढ़) से उच्च शिक्षा हासिल की. प्रशासनिक सेवा से इतिहास और इतिहास से कला इतिहास की ओर उनके आने में कला और ज्ञान के प्रति उनके गहरे अनुराग ने बड़ी भूमिका निभायी. भारतीय प्रशासनिक सेवा से त्यागपत्र देने के बाद उन्होंने पंजाब यूनिवर्सिटी से कांगड़ा की चित्रकला पर शोध किया और वहीं कला इतिहास के प्राध्यापक नियुक्त हुए.

साठ के दशक में पंजाब यूनिवर्सिटी के ही एक अन्य प्रसिद्ध इतिहासकार जेएस ग्रेवाल के साथ मिलकर बीएन गोस्वामी ने मुगलकालीन ऐतिहासिक दस्तावेजों के संपादन का महत्वपूर्ण काम किया. इसी क्रम में, 1967 में बीएन गोस्वामी ने जेएस ग्रेवाल के साथ ‘द मुगल्स एंड द जोगीज ऑफ जखबर’ का संपादन किया. इसमें पंजाब के जखबर गांव के नाथपंथी योगियों को मुगल शासकों से मिले मदद-ए-म’आश और दूसरे अनुदानों से जुड़े दस्तावेज संकलित थे. जखबर के ये नाथपंथी योगी कनफटा संप्रदाय से संबंधित थे. धीरे-धीरे बीएन गोस्वामी की रुचि कला इतिहास के प्रति हुई और पहाड़ी कला ने तो उनका मन ऐसा मोहा कि उन्होंने अपना समूचा जीवन भारतीय कला के विविध पक्षों को जानने-समझने को अर्पित कर दिया.

आखिर दुनिया ने भी उनकी कला दृष्टि और कला इतिहास संबंधी उनके चिंतन का लोहा माना. अपनी चर्चित पुस्तक ‘द स्पिरिट ऑफ इंडियन पेंटिंग’ में उन्होंने लिखा कि ‘चित्र हमारे सामने अर्थों की बहुस्तरीय दुनिया प्रस्तुत करते हैं. जरूरत इस बात की है कि हम उसके अर्थ वैभव को समग्रता में ग्रहण कर सकें.’ चित्रों को समझने के क्रम में ‘उत्साह’ के भाव, चित्रों की दृश्यात्मकता में खुद को डुबोने और इस तरह चित्रों को पढ़कर आनंदित होने पर उन्होंने जोर दिया. ‘रस’ के साथ ‘आनंद’ के भाव को जोड़ते हुए उन्होंने भारतीय परंपरा में रसिक, रसवंत और रसास्वादन जैसी धारणाओं को भी रेखांकित किया. कलाकार और उसके संरक्षक के अंतर्संबंध, कलाकार के धार्मिक विश्वास, देवत्व और राजत्व के संबंध तथा कला के पीछे दैवीय प्रेरणा की भूमिका, कला की परख और उसके बदलते हुए प्रतिमान जैसे महत्वपूर्ण विषयों को भी विश्लेषित किया.

भारतीय कला के संदर्भ में जहां चित्रकार प्रायः अनाम रहे हैं, वहां कला इतिहासकार के लिए छोटी से छोटी सूचना, तथ्य या जानकारी के महत्व को भी उन्होंने समझा. उन्होंने धीरज, इच्छाशक्ति और कल्पना जैसे गुणों को कला इतिहासकार के लिए बेहद जरूरी माना. आम लोगों में कलाओं के प्रति आस्वाद जगाने के लिए भी वे तत्पर रहे. वर्ष 1995 में ‘द ट्रिब्यून’ के मुख्य संपादक हरि जयसिंह के आग्रह पर उन्होंने कला संबंधी स्तंभ लिखना शुरू किया, जिनमें से कुछ चयनित लेख बाद में ‘कन्वरसेशंस’ शीर्षक से पुस्तक रूप में प्रकाशित हुए. कला से जुड़े विषयों पर आम पाठकों के लिए नियमित रूप से स्तंभ लिखना निश्चय ही चुनौती से भरा काम था, जिसे बीएन गोस्वामी ने बखूबी संभव कर दिखाया.

जुलाई के आखिर में कला इतिहासकार कविता सिंह का निधन हुआ और अब बीएन गोस्वामी का. कविता सिंह बीएन गोस्वामी की ही शिष्या थीं और उनके लेखन और कला संबंधी चिंतन पर बीएन गोस्वामी का गहरा प्रभाव था. कला, साहित्य, इतिहास की दुनिया में समान रूप से आवाजाही करने वाले बीएन गोस्वामी ने अपने जीवन के आखिरी सालों में भारतीय कला में प्रदर्शित बिल्लियों की छवियों पर शानदार काम किया. भारतीय कथा साहित्य में, कलाओं में, कविताओं और लोकोक्तियों में बिल्लियों को कैसे दर्शाया गया, इस पर उन्होंने ‘द इंडियन कैट’ शीर्षक से एक रोचक किताब लिखी. कविताओं में भी उनकी दिलचस्पी रही. अकारण नहीं कि उनके लेखों, व्याख्यानों में आप जगह-जगह रूमी, गालिब, मीर, फैज आदि के उद्धरण पायेंगे. फैज की ये पंक्तियां ज्ञान की दुनिया के प्रति बीएन गोस्वामी की प्रतिबद्धता की ही मानो बानगी देती हैं: ‘हम परवरिश-ए-लौह-ओ-कलम करते रहेंगे/ जो दिल पे गुजरती है रकम करते रहेंगे…’

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