एक खतरनाक प्रवृत्ति है फिल्मों का बहिष्कार
बहिष्कार का मसला खड़ा करने वाले बहुत कम लोग हैं. इस देश की जड़ें इतनी गहरी हैं कि बहिष्कार की नकारात्मक और हिंसक प्रवृत्ति कोई विशेष प्रभाव लंबे समय के लिए नहीं छोड़ सकती है. ऐसे लोग बॉलीवुड के बारे में रत्ती भर भी नहीं जानते हैं.
रामकुमार सिंह, पटकथा लेखक
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मनोरंजन मनुष्य की बुनियादी जरूरतों में है. कोई भी बॉलीवुड या सिनेमा का लगातार बहिष्कार करता नहीं रह सकता. आप भले सार्वजनिक रूप से बहिष्कार की बात करें, पर आपके मोबाइल या टीवी पर जब फिल्म आयेगी, तब आप उसे देखेंगे. सार्वजनिक रूप से कुछ कहना और व्यक्तिगत रूप से कुछ करना हमारे लिए अक्सर अलग-अलग मामला हो जाते हैं. मेरी राय यह है कि बहिष्कार के नये चलन से बहुत अधिक प्रभावित होने की जरूरत नहीं है. सिनेमा उद्योग से जुड़े होने और एक पेशेवर होने के नाते मुझे लगता है कि हमें अपनी कहानियों पर, कला पर और शिल्प पर काम करने की जरूरत है. हम जो गलतियां करते हैं, वे ये हैं कि हम दक्षिण के सौंदर्यबोध को अपनाने की होड़ में लग जाते हैं. हमें लगता है कि वे फिल्में उधर चल रही हैं, तो इधर भी चलेंगी. दक्षिण भारत में आज जो व्यावसायिक फिल्में बन रही हैं, वे सत्तर के दशक में बॉलीवुड बना चुका है. जो अमिताभ बच्चन का ‘एंग्री यंग मैन’ लुक था, वही आज केजीएफ जैसी फिल्मों का है. हमें अपने सिनेमा और मूल मनोभावों को पकड़ने की जरूरत है.
बॉलीवुड रिमेक बना कर या दूसरे सिनेमा की नकल कर कहीं नहीं पहुंच सकता है. हम दक्षिण का रिमेक बनाते हैं, हॉलीवुड का रिमेक बनाते हैं, हम कोरियाई सिनेमा का रिमेक बनाते हैं. हर दूसरे हफ्ते रिलीज होने वाली फिल्म के बारे में पता चलता है कि यह रिमेक है, तो यह दुखद स्थिति है. इसका मतलब है कि हम अपनी ही कहानियों पर फोकस नहीं कर रहे हैं. बहिष्कार का असर कोई खास नहीं होता, फिल्म खराब होगी, तो नहीं चलेगी. भूलभूलैया भी तो बॉलीवुड की ही फिल्म है, वह तो कामयाब रही. यह समझना होगा कि लोग सिनेमाघरों में जाने से कतरा रहे हैं. उनके पास फिल्में देखने या मनोरंजन करने के वैकल्पिक माध्यम हैं. कोविड महामारी ने इस स्थिति को और आगे बढ़ा दिया है. ऐसे में आपको ऐसी कहानी लानी पड़ेगी, जिसके लिए दर्शक कहे कि वह चार-छह हफ्ते का इंतजार नहीं कर सकता, जब यह फिल्म ओटीटी पर आयेगी और वह सिनेमाघर में जाकर सिनेमा देखे. जब बाहुबली आयी थी, तब एक ट्रेंड बन गया था कि लोग एक-दूसरे से पूछते थे कि आपने बाहुबली देखी या नहीं. तो, बॉलीवुड को सिनेमा में कहानी का जादू रचना होगा और उसे नकल छोड़नी होगी.
यह देश बहुत बड़ा है और यहां अलग-अलग पहचान हैं, समुदाय हैं. बहिष्कार का मसला खड़ा करने वाले बहुत कम लोग हैं. इस देश की जड़ें इतनी गहरी हैं कि बहिष्कार की नकारात्मक और हिंसक प्रवृत्ति कोई विशेष प्रभाव लंबे समय के लिए नहीं छोड़ सकती है. ऐसे लोग बॉलीवुड के बारे में रत्ती भर भी नहीं जानते हैं. वे यह नहीं जानते कि आमिर खान की फिल्म केवल आमिर खान की फिल्म नहीं है. एक सिनेमा के पीछे कम-से-कम ढाई-तीन साल की मेहनत होती है. राजू हिरानी अपनी फिल्म पर पांच-छह साल काम करते हैं. एक फिल्म के निर्माण में बहुत बड़ी संख्या में स्टाफ, टेक्नीशियन, कलाकार आदि शामिल होते हैं. इस उद्योग में पूरे देश से विभिन्न समुदायों और सामाजिक वर्गों के लोग हैं.
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मेरा अपना अनुभव है कि बॉलीवुड में आपकी पहचान आपकी जाति, धर्म या क्षेत्र से नहीं होती. कोई नहीं पूछता कि तुम कहां से आये हो या तुम्हारी जाति क्या है. आपकी पहचान आपके काम से होती है- यह लेखक है, यह गायक है, यह कैमरा कर रहा है. अगर वहां ऐसा भेदभाव होता, तो फिर नवाजुद्दीन सिद्दीकी को तो सड़क पर होना चाहिए था, मेरे जैसे व्यक्ति को किसी लोकल बस में ड्राइवर हो जाना चाहिए था, लेकिन हम अलग-अलग जगहों से आते हैं और हमें प्यार मिलता है.
बहिष्कार करते रहने वालों को यह समझना होगा कि बॉलीवुड कोई चार चेहरों का नाम नहीं है. वे भी एक हिस्सा हैं. जब आप सेट पर होते हैं, तो सभी कामगार की तरह होते हैं और अपना काम कर रहे होते हैं, चाहे वे अमिताभ बच्चन जैसे लोग क्यों न हों. सभी सामूहिक रूप से एक कलाकृति बनाने की कोशिश करते हैं. इन कोशिशों का बेजा अपमान नहीं होना चाहिए. लोगों के हुनर, उनके काम और उनकी जीविका का सम्मान होना चाहिए. यह बहिष्कार का चलन बनावटी है और इसे हवा देने वालों से यह देश नहीं चलता है. अगर किसी को सचमुच ऐसा लगता है कि उसे बॉलीवुड से नफरत है, तो आत्मपरीक्षण करना चाहिए, अपनी मन:स्थिति की समीक्षा करनी चाहिए.
सौ साल से अधिक समय से चला आ रहा सिनेमा तो बंद नहीं होगा. किसी को फिल्म नहीं देखनी है, न देखे, पर उसे सैकड़ों-हजारों लोगों की मेहनत और उम्मीद पर पानी फेरने का कोई हक नहीं है. सिनेमा कलात्मक प्रतिष्ठान होने के साथ उद्योग भी है, जिससे प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से लाखों लोग जुड़े हुए हैं. किसी फिल्म को भावना के नाम पर, किसी संबंधित व्यक्ति के किसी पुराने बयान को आधार बना कर, उसकी पहचान का हवाला देकर फिल्म या फिल्म उद्योग का विरोध करना अनुचित है. यह विरोध समाज में भी नकारात्मक माहौल बनाता है तथा सिनेमा उद्योग के विकास को भी बाधित करता है. ये प्रवृत्ति अधिक नहीं चलेगी, वे भी थक जायेंगे.
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(ये लेखक के निजी विचार हैं.)