अगर राजनीतिक दल की आकृति हो, तो उसका चेहरा उसके प्रमुख नेता का, मस्तिष्क केंद्रीय प्रभाव का और धड़ उसके जन-प्रतिनिधियों का होगा. शरीर को सक्रिय और चलायमान रखने वाले पैर व बांहें उसके स्थानीय नेता और जमीनी समर्थक होंगे. चुनाव बाद हुए कर्नाटक भाजपा के परीक्षण से इंगित होता है कि उसके अस्थि-पंजर में दरारें आ गयी हैं.
हालांकि नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने कोई कसर नहीं छोड़ी, पर दमदार क्षेत्रीय नेता की कमी रही. इस कारण भाजपा 224 में से 66 सीटें ही जीत सकी. साल 2019 के लोकसभा चुनाव में वह 170 विधानसभा सीटों पर आगे रही थी, पर इस चुनाव में यह आंकड़ा 65 पर आ गया. इसी अवधि में उसका वोट शेयर भी 52 से घटकर 35 प्रतिशत पर आ गया.
विशेषज्ञ आंकड़ों के आधार पर पूर्वानुमान लगाते हैं, पर सत्ता के खेल में वे गलत साबित होते हैं. कारण स्पष्ट हैं. कर्नाटक में भाजपा की तुलना में कांग्रेस अधिक एकताबद्ध थी. उसके पास जीतने योग्य उम्मीदवार अधिक थे. भाजपा के पास बेच पाने लायक एक ही चीज थी- ब्रांड मोदी.
कर्नाटक की हार इंगित करती है कि मोदी जैसे चक्रवात के साथ फसल उगाने के लिए धरतीपुत्रों का होना कितना महत्वपूर्ण है. स्थानीय बीज के उगते रहने के लिए मिट्टी की ऊपरी परत को पलटते रहना जरूरी है. क्षेत्रीय वास्तविकताओं को राष्ट्रीय आख्यान के साथ उगाने में संतुलित अनुपात होना जरूरी है. साल 2014 की ऐतिहासिक जीत के बाद से राजनीतिक चक्र भाजपा के पक्ष में तेजी से घूमता रहा है.
उसने छत्तीसगढ़, गोवा, गुजरात, हरियाणा, झारखंड, मध्य प्रदेश और राजस्थान में जीत हासिल की. महाराष्ट्र में शिव सेना के साथ गठबंधन में उसकी सरकार रही. साल 2019 तक इसने संदेहास्पद विलय और दल-बदल से लगभग 20 राज्यों में सत्ता पायी. सब कुछ ठीक दिख रहा था और मोदी ने बड़े बहुमत से सत्ता में वापसी की. सहयोगियों के साथ भाजपा का लोकसभा में दो-तिहाई बहुमत है, तो राज्यसभा में उसके लगभग सौ सदस्य हैं.
साल 2014 में इन 10 राज्यों में कांग्रेस का शासन था- आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, असम, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम और उत्तराखंड. आज उसके पास केवल हिमाचल, छत्तीसगढ़, राजस्थान और कर्नाटक हैं. लेकिन कर्नाटक के परिणामों ने राजनीतिक नक्शे को बड़े पैमाने पर बदल दिया है. कभी दो-तिहाई हिस्से पर पसरे केसरिया पदचिह्न सिमट गये हैं. भाजपा अपने बूते 10 राज्यों में और सहयोगियों के साथ तीन राज्यों में सत्तारूढ़ है.
भाजपा का भौगोलिक वर्चस्व मुख्य रूप से छोटे राज्यों, अधिकतर पूर्वोत्तर में, तक सीमित है. बीते पांच वर्षों में वह हरियाणा, मध्य प्रदेश, कर्नाटक या महाराष्ट्र में पूर्ण बहुमत नहीं पा सकी है. नीतीश कुमार के राजद के साथ जाने से उसने बिहार खो दिया. उसके पास उत्तर प्रदेश जैसा महत्वपूर्ण राज्य है. राज्यों के स्तर पर भाजपा का प्रदर्शन 2014 और 2019 के मोदी की जीतों के अनुरूप नहीं रहा है.
देश के लगभग 4200 विधायकों में भाजपा विधायकों की संख्या 2017 के 1358 से घटकर 2023 में 1311 हो गयी. वर्ष 2014 से हुए 56 विधानसभा चुनावों में, कुछ के चुनाव दो या तीन बार भी हुए, भाजपा अपने बूते पर केवल 22 चुनाव जीती है, जबकि छह में गठबंधन में उसकी सरकार है. बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, महाराष्ट्र और हरियाणा के मतदाताओं ने भाजपा को झटका दिया. उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के अलावा भाजपा के पास कोई बड़ा राज्य नहीं है. वर्ष 2024 में कांग्रेस से अधिक आधा दर्जन क्षेत्रीय दल उसके लिए चुनौतीपूर्ण होने वाले हैं.
सफल नेतृत्व का रहस्य सफल उत्तराधिकारी तैयार करने में है. तीसरी पीढ़ी तैयार न कर भाजपा ने गलती की है. साल 1990 से 2004 के बीच आडवाणी-वाजपेयी की टीम ने विचारधारा और जमीनी काम में दक्ष युवाओं की टोली तैयार की थी. नरेंद्र मोदी, प्रमोद महाजन, शिवराज सिंह चौहान, राजनाथ सिंह, कल्याण सिंह, वसुंधरा राजे, उमा भारती, बीएस येदियुरप्पा, मदन लाल खुराना, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, नितिन गडकरी, अनंत कुमार आदि ने सरकार एवं पार्टी में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी.
राष्ट्रीय स्तर के दो नेताओं की अगुवाई में क्षेत्रीय नेताओं के इस समूह ने पार्टी को एक दशक से कम समय में पांच प्रदेशों से पूरे देश में फैला दिया. मोदी 2014 में भाजपा के पहले देशव्यापी प्रधानमंत्री के रूप में उभरे, जिन्होंने पार्टी को दूर-दराज के इलाकों तक पहुंचा दिया. इसमें अमित शाह ने उनका पूरा साथ निभाया. मोदी तूफान ने देशव्यापी जलवायु परिवर्तन कर दिया तथा वे केवल भाजपा ही नहीं, बल्कि अपने-आप में भारत भी बन गये.
शाह ने दुनिया का सबसे बड़ा राजनीतिक संगठन खड़ा कर दिया. प्रयोग करना नियम बन गया. नये बनाये गये खिलाड़ी सरकार और पार्टी में लाये गये. जैसे, वरिष्ठ और जमीनी नेताओं को किनारे कर देवेंद्र फड़नवीस को महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बना दिया गया. भाजपा के सामाजिक आधार को बढ़ाने के लिए कुछ राज्यों में खेल, सिनेमा और कॉरपोरेट क्षेत्र से सिलेब्रिटी पार्टी में लाये गये. जब चुनावी लाभी नहीं हुआ, तो उनकी छुट्टी कर दी गयी. हरियाणा और त्रिपुरा में अपेक्षाकृत अनजान व अनुभवहीन नेता मुख्यमंत्री हुए, कर्नाटक में बसवराज बोम्मई को वरिष्ठ नेताओं पर थोप दिया गया.
केंद्रीय कैबिनेट में अनेक पूर्व नौकरशाह और राजनीतिक फ्रीलांसर हैं. इन नये चेहरों पर बोझ नहीं है, पर ये अपने राज्यों में जीत की गारंटी नहीं दे सकते. इसके दो अपवाद योगी आदित्यनाथ और कांग्रेस से आये हेमंता बिस्वा सरमा हैं. सरमा ने असम में विपक्ष को खत्म कर और पूर्वोत्तर में जीत की रणनीति बनाकर अपने लिए एक भूमिका बना ली है. पर अधिकतर राज्यों में भाजपा के पास मिनी मोदी, छोटा शाह या आकर्षक अटल नहीं है, जो कार्यकर्ताओं में भरोसा पैदा कर सके और वोट जुटा सके.
सत्ता शीघ्र आती है, पर उससे भी शीघ्र चली जाती है. लगभग दो दशक सत्ता में रहने के बाद सबसे चमकदार छवि पर भी मतदाता के ऊब से जंग लग सकती है. कांग्रेस अपने उभार के लिए नयी रणनीति पर चल रही है. भाजपा के पास ताकतवर मोदी ब्रांड है. लेकिन उसकी कोई शाखा नहीं है. डबल इंजिन सरकार के आगे बढ़ने के लिए स्थानीय कमल खिलने जरूरी हैं, ऐसा नयी दिल्ली से प्रायोजित बाहरी लोगों को प्रत्यारोपित कर नहीं किया जा सकता है. भारत के राजनीतिक उद्यान असंतोष की गर्मी में पल्लवित नहीं होते, जबकि उत्तरी सूर्य के कारण गर्म हवाएं चल रही हैं.