सार्वजनिक जीवन में सादगी की मिसाल थे बुद्धदेव भट्टाचार्य

पश्चिम बंगाल में वंचित वर्गों के सामाजिक एवं आर्थिक पिछड़ेपन को दूर करने के उल्लेखनीय प्रयास उनके द्वारा किये गये. उन्होंने राज्य में अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण को बढ़ाया तथा सच्चर कमिटी और रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्टों के आने के बाद इसमें अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय के एक अहम हिस्से को शामिल करने के प्रावधान किये.

By प्रसेनजीत बोस | August 9, 2024 11:01 AM

Buddhadeb Bhattacharjee : एक दशक से अधिक समय तक पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री तथा ज्योति बसु के नेतृत्व में गठित वाम मोर्चे की पांच में से चार सरकारों में कैबिनेट मंत्री रहे बुद्धदेव भट्टाचार्य ने जिन गुणों का प्रदर्शन किया, वे अब सत्ताधारियों में मुश्किल से मिलते हैं. सार्वजनिक जीवन में वे शुचिता का पर्याय बनकर स्थापित हुए. सत्ता में रहते हुए और जीवन के अंतिम पलों तक एक सामान्य दो कमरे के अपार्टमेंट में उनका निवास रहा. अपनी पीढ़ी के बहुत से लोगों की तरह बुद्धो दा साठ और सत्तर के दशक में छात्र-युवा राजनीति में भागीदारी के जरिये साम्यवादी राजनीति की ओर आकर्षित हुए. वे सीपीएम की युवा इकाई के नेता थे और उनके राजनीतिक गुरु प्रमोद दासगुप्ता थे. वे वाम मोर्चे की पहली सरकार में 1977 में सूचना एवं जनसंपर्क मंत्री के रूप में शामिल हुए. तब उनकी आयु 33 साल थी. वे उन बहुत थोड़े नेताओं में थे, जो 1982 को छोड़कर वाम मोर्चे की सभी सरकारों का हिस्सा रहे. उस वर्ष वे मामूली अंतर से चुनाव हार गये थे.


अपने लंबे सार्वजनिक जीवन में वे हमेशा ईमानदारी और विनम्रता की प्रतिमूर्ति बने रहे. साल 1993 में उन्होंने कुछ गलतियों के विरोध में वाम मोर्चा सरकार से इस्तीफा दे दिया था. ज्योति बसु के मनाने पर कुछ महीने बाद वे फिर से मंत्री बने. उस दौरान बुद्धो दा ने एक बंगाली नाटक लिखा, जिसमें उन मूल्यों के पतन पर विचार किया गया है, जो वाम आंदोलन ने कभी अपनाया था. अपनी पीढ़ी के नेताओं में वे सबसे अधिक साहित्य, कला एवं संस्कृति के परिवेश से जुड़े हुए थे. असंतुष्ट साहित्य से जुड़ाव तथा सोवियत संघ के पतन के अनुभवों कारण ही वे अनेक मार्क्सवादी-लेनिनवादी धारणाओं पर सवाल उठाते थे. उनकी शुचिता और शासन चलाने के अपरंपरागत शैली के कारण उन्हें अपार लोकप्रियता मिली, विशेषकर युवाओं में, जो वाम मोर्चे की सरकारों के दौर में पले-बढ़े थे. बतौर मुख्यमंत्री, उन्होंने अपना पूरा ध्यान बेरोजगारी की समस्या दूर करने पर लगाया, जिसकी वजह से बड़ी तादाद में युवा पलायन के लिए मजबूर हो रहे थे. उन्हें बहुत जनसमर्थन मिला, जिसके कारण 2006 में ऐतिहासिक चुनावी जीत हासिल हुई.


उसके बाद इतिहास ने दूसरा रास्ता अपनाया. औद्योगीकरण की उनकी रणनीति तथा उद्योगों के लिए भूमि अधिग्रहण से व्यापक विवाद पैदा हुआ. पश्चिम बंगाल में 34 साल के वाम मोर्चे के शासन के दौरान पैदा हुए असंतोष ने भी उसमें योगदान दिया. परिणाम यह हुआ कि 2011 में वाम मोर्चे के शासन का अंत हो गया. इस जनादेश को बुद्धो दा ने विनम्रता से स्वीकार किया और कुछ समय के बाद वे सार्वजनिक जीवन से अलग होते गये. बाद में उन्हें स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का भी लगातार सामना करना पड़ा. उनके नेतृत्व की वाम मोर्चे की आखिरी सरकार द्वारा किये गये सही और गलत कामों को लेकर अलग-अलग मत आज तक बरकरार हैं, लेकिन पश्चिम बंगाल की अर्थव्यवस्था के आधुनिकीकरण तथा युवाओं के लिए राज्य के भीतर रोजगार के अच्छे अवसर उपलब्ध कराने का उनका अधूरा सपना अभी भी बेहद प्रासंगिक बना हुआ है.

पश्चिम बंगाल में वंचित वर्गों के सामाजिक एवं आर्थिक पिछड़ेपन को दूर करने के उल्लेखनीय प्रयास उनके द्वारा किये गये. उन्होंने राज्य में अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण को बढ़ाया तथा सच्चर कमिटी और रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्टों के आने के बाद इसमें अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय के एक अहम हिस्से को शामिल करने के प्रावधान किये. इस प्रगतिशील नीति को वाम मोर्चे के बाद सत्ता में आयी तृणमूल कांग्रेस की सरकार ने कानून का रूप दिया. उस कानून को हाल में उच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया है.
दिवंगत बुद्धदेव भट्टाचार्य भारत के धर्मनिरपेक्ष और गणतांत्रिक संवैधानिक व्यवस्था की सुरक्षा के प्रति गहरे रूप से प्रतिबद्ध थे. साल 2019 के लोकसभा चुनाव के समय गंभीर बीमारी के बावजूद उन्होंने पश्चिम बंगाल की जनता से यह निवेदन किया था कि लोग तृणमूल कांग्रेस के कुशासन के गर्म तवे से भाजपा द्वारा लगायी गयी सांप्रदायिक आग में छलांग न लगायें. राज्य की जनता ने 2019, 2021 या 2024 में वह छलांग नहीं लगायी, लेकिन जिस मोर्चे का नेतृत्व बुद्धो दा ने 2011 तक किया, उसके उभार का अभी भी इंतजार है. इस उभार को देखकर वे सबसे अधिक प्रसन्न होते.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

Next Article

Exit mobile version