एक फरवरी को पेश हुआ बजट वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का पांचवा बजट है तथा 2024 के आम चुनाव से पहले का अंतिम पूर्ण बजट है. ऐसा अनुमान था कि यह पूरी तरह से एक लोकलुभावन बजट होगा और वित्तीय घाटे की किसी सीमा की परवाह नहीं की जायेगी. अच्छी बात यह रही कि ऐसा नहीं हुआ. वित्तीय घाटे को अगले साल के अपेक्षित सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का छह प्रतिशत रखने का लक्ष्य संयमित है, भले ही इसे अधिक रखा जा सकता था.
कई कारणों से वित्तीय अनुशासन रखना बहुत आवश्यक है. जीडीपी और कर्ज का अनुपात पहले ही 90 प्रतिशत हो चुका है. अधिक घाटा होने से अधिक कर्ज की दरकार होती है, जिससे कर्ज का बोझ बढ़ता है. इस बोझ के बढ़ने के साथ कर्ज के ब्याज को चुकाने का दबाव भी बढ़ता है. अगले साल के लिए ब्याज का बोझ 10 लाख करोड़ रुपये का है, जो केंद्र के समूचे पूंजी व्यय के बराबर है.
वास्तव में, घाटे की अधिकांश मात्रा ब्याज देनदारी के कारण है. यह कुछ ऐसा है कि ब्याज का बोझ और घाटा एक-दूसरे को बढ़ाते रहते हैं और इस तरह हम जल्दी ही कर्ज के जाल में फंस सकते हैं, यानी हम केवल ब्याज चुकाने के लिए उधार लेते रहेंगे.
इसलिए पूंजी जुटाना बहुत जरूरी है. उच्च वित्तीय घाटा भविष्य की अजन्मी पीढ़ी के लिए दंड भी है. इसलिए वित्त मंत्री ने आगामी कुछ वर्षों में घाटे को धीरे-धीरे कम करने का वादा किया है. इसके लिए आर्थिक वृद्धि में गति लानी होगी, ताकि कर राजस्व में उल्लेखनीय बढ़ोतरी हो. उस स्थिति में सरकार को उधार पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा.
अत्यधिक वित्तीय विस्तार के बारे में सतर्क रहने का दूसरा कारण यह है कि यह मुद्रास्फीति के नियंत्रण में बाधक है. नगदी की आपूर्ति को संकुचित करने की मौद्रिक नीति के विरुद्ध यह सक्रिय होता है. इस संबंध में वित्तीय संयम और वृद्धि करने वाले वित्तीय विस्तार के माध्यम से इस संबंध में बजट ने अच्छा काम किया है. वृद्धि के लिए वित्त मुहैया कराने का सबसे बड़ा उदाहरण पूंजी व्यय योजना में 33 प्रतिशत की बढ़ोतरी है, जो भविष्य में विकास का आधार है.
यह 10 लाख करोड़ रुपये है और सभी खर्चों का एक-तिहाई हिस्सा है. कृषि क्षेत्र के लिए कर्ज आवंटन बढ़ कर 20 लाख करोड़ रुपये हो जायेगा, जो अब तक सर्वाधिक है. इससे उपज बढ़ाने, कृषि-प्रसंस्करण में मूल्य संवर्धन करने और कृषकों की आय बढ़ाने में भी मदद मिलेगी. साथ ही, 10 करोड़ किसान परिवारों को सीधे नगदी हस्तांतरण की योजना भी जारी रहेगी.
इस कॉलम में पहले कहा जा चुका है कि बजट की एक बड़ी पृष्ठभूमि आय एवं संपत्ति की निरंतर बढ़ती विषमता है. ऐसे में सामाजिक सुरक्षा पर अधिक जोर देना अपेक्षित था, लेकिन ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (एक तरह से बेरोजगारी बीमा, जो भारत में नहीं होता) में बड़ी कटौती निराशाजनक है. राष्ट्रीय स्वास्थ्य एवं शिक्षा मिशनों पर भी कम आवंटन हुआ है. शायद केंद्र सरकार का मानना है कि ये राज्यों के बजट के तहत आते हैं, इसलिए इन्हें राज्यों के जिम्मे दे दिया गया है.
वित्त मंत्री ने सरल बैंक खातों, अनुदानित रसोई गैस सिलेंडर, शौचालय आदि के द्वारा वित्तीय समावेश से हुए प्रभावशाली उपलब्धियों को रेखांकित किया है. सस्ते आवास में उल्लेखनीय विस्तार भी इसी दिशा में है. परिसंपत्ति बनाने के लिए सार्वजनिक खर्च होना इसका अतिरिक्त पहलू है. इस भावना में पूंजी व्यय मद में, विशेषकर सड़क एवं रेल पर, वृद्धि स्वागतयोग्य है. यह बजट का एक-चौथाई हिस्सा है, जो अब तक का सर्वाधिक है. बजट में कृषि उधार के लिए आवंटन में बढ़ोतरी से भी पूंजी संरचना होगी.
बड़ी खबर आयकर की न्यूनतम सीमा बढ़ाना है. चूंकि बीते तीन वर्षों में उच्च मुद्रास्फीति ने वास्तविक क्रयशक्ति को क्षीण कर दिया है, तो अपेक्षा थी कि स्लैब की समीक्षा होगी, लेकिन न्यूनतम स्तर को सात लाख रुपया करने से, जो देश में प्रति व्यक्ति आय का 350 प्रतिशत है (यह उल्लेख वित्त मंत्री ने स्वयं किया है), भारत अपने समक्ष देशों की श्रेणी से बाहर हो गया है. जी-20 समूह का कोई भी सदस्य देश अपने आयकरदाताओं को इतनी बड़ी छूट नहीं नहीं देता.
कुछ वर्ष पहले आर्थिक समीक्षा ने रेखांकित किया था कि भारत में प्रति सौ मतदाताओं में केवल सात लोग करदाता हैं. यह स्थिति विकसित देशों के बिल्कुल उलट है. स्केंडिनेवियाई देशों में यह अनुपात तो लगभग एक-एक का है, यानी हर मतदाता कर देता है. इसलिए कर आधार को बढ़ाना बहुत बड़ी आवश्यकता है, जिसे हर बजट अनदेखा करता प्रतीत होता है. वर्तमान में कुल कराधान में अप्रत्यक्ष करों की हिस्सेदारी 55 प्रतिशत है और इसमें लगातार वृद्धि हो रही है.
यह अनुचित है और इसे सही नहीं ठहराया जा सकता है, क्योंकि वस्तु एवं सेवाकर (जीएसटी) जैसे अप्रत्यक्ष करों की निगरानी और संग्रहण करना आसान होता है. जीएसटी में केंद्र की हिस्सेदारी अब लगभग 10 ट्रिलियन रुपया है और इसके साथ पेट्रोल एवं डीजल पर अधिक शुल्क भी हैं. यह गरीब लोगों पर अतिरिक्त और अनुचित बोझ है. यह बजट लोकलुभावन नहीं है, लेकिन यह निश्चित ही विस्तारवादी है. यह मुद्रास्फीति से संबंधित दबाव बढ़ायेगा, जिससे गरीबों का बोझ और बढ़ेगा.
पूंजी व्यय मद में वृद्धि के अलावा हरित विकास और सतत विकास पर जोर स्वागतयोग्य है. अगले पचास साल में भारत ने अर्थव्यवस्था को शून्य उत्सर्जन के स्तर का संकल्प लिया है. इसलिए जीडीपी को हरित होना ही चाहिए. हाइड्रोजन में एक आदर्श ईंधन बनने की क्षमता है, जो जलने पर स्वच्छ जल वाष्प उत्सर्जित करता है. हर तरह के स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों, जैसे- सौर, पवन, जैव-ईंधन, कृषि कचरा और हाइड्रोजन, को साथ-साथ साधना होगा, ताकि हमारे महत्वाकांक्षी जलवायु लक्ष्य पूरे हो सकें. बजट एक योजना मात्र है.
इसे साकार करना केवल घरेलू कारोबार, उपभोक्ता भावना और राजनीतिक हवा पर ही निर्भर नहीं करता, बल्कि वैश्विक स्थितियां भी अहम हैं. यूक्रेन युद्ध दूसरे साल में प्रवेश कर रहा है और अमेरिका वहां टैंक भेज रहा है. मंदी की आहटों के बावजूद तेल के दामों में उछाल हो सकती है. पश्चिम के साथ चीन तकनीक शीत युद्ध छेड़ रहा है तथा घटते कार्यबल एवं जीरो-कोविड पॉलिसी के असर जैसी नयी चुनौतियों का सामना कर रहा है. यह साल बहुत अनिश्चित है, पर भारत के घरेलू जोर व गति से अर्थव्यवस्था में तेज बढ़त होनी चाहिए. अगर ऐसा होता है, तो सभी बजट लक्ष्य पूरे हो जायेंगे.