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नयी सरकार के पहले बजट से उम्मीदें

पिछले कई बजट में यह देखा जा सकता है कि सरकारें निजी क्षेत्र को आकर्षित करने के लिए निरंतर प्रयासरत रहती हैं.

सभी की निगाहें तीसरी मोदी सरकार द्वारा लाये जा रहे केंद्रीय बजट पर है. ऐसे कयास लगाये जा रहे हैं कि क्या आगामी बजट में एक बार फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व की एकतरफा छाप दिखेगी या गठबंधन की राजनीति का दबाव भी होगा. कयासों का रुख ज्यादातर इस तरफ है कि सरकार निश्चित तौर पर बजट के माध्यम से भारत के आर्थिक विकास को उसी पथ पर और तेजी से बढ़ाने की कोशिश करेगी, जो उसने पिछले दस वर्षों में स्थापित किया है. बजट के माध्यम से सरकारें वित्तीय वर्ष के दौरान देश के आर्थिक विकास को विभिन्न आंकड़ों के माध्यम से प्रस्तावित करने की कोशिश करती हैं.

इसका प्रभाव बहुत गहरा होता है क्योंकि बजट एक रोडमैप है, जिसके अनुसार सरकार अर्थव्यवस्था को संचालित करती है. दो-तीन दशकों से भारतीय अर्थव्यवस्था में बड़े बुनियादी बदलाव हुए हैं और आज वैश्विक स्तर पर भारत की मजबूत छवि है. वैश्वीकरण के इस युग में भारत के लिए अटूट आर्थिक संभावनाएं इसलिए भी लगातार बनी हुई है क्योंकि भारत विश्व की सबसे बड़ी आबादी वाला मुल्क है. हालांकि घरेलू मोर्चे पर इस कारण बेरोजगारी की एक अनवरत समस्या भी है, फिर भी लगातार बढ़ती आर्थिक विकास दर विश्व को आकर्षित करने में सक्षम बनी हुई है.

इस बात का श्रेय मोदी सरकार को जाता है कि उसके नेतृत्व में भारतीय अर्थव्यवस्था जीडीपी के पैमाने पर तेज प्रगति करते हुए वैश्विक दौड़ में पांचवें पायदान पर पहुंची है. विश्व के सभी बड़े आर्थिक संस्थान व रेटिंग एजेंसियां आने वाले कुछ वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था को सात ट्रिलियन डॉलर के मुकाम पर पहुंचते हुए देख रही हैं. तब जापान और जर्मनी भारत से पीछे रह जायेंगे. अगर मोदी सरकार के पिछले दो कार्यकाल की आर्थिक नीतियों का विश्लेषण करें, तो हम पाते हैं कि सरकार का रुख पूंजीगत खर्चों पर बहुत अधिक एकाग्र और सकारात्मक है. आंकड़ों के हिसाब से मनमोहन सिंह सरकार अपने आखिरी दौर में पूंजीगत खर्चों पर बजट का करीब 12 प्रतिशत खर्च कर रही थी, जिसे मोदी सरकार बड़ी तेजी से बढ़ाते हुए 22 प्रतिशत से अधिक कर चुकी है. वित्त वर्ष 2023-24 में आधारभूत सुविधाओं पर हुआ वास्तविक खर्च 18.6 प्रतिशत है और बाकी बचा 3.6 प्रतिशत हिस्सा विभिन्न राज्यों, सार्वजनिक उपक्रमों को वित्तीय ऋण के तौर पर आवंटित किया गया है. इस खर्च के चलते ही अर्थव्यवस्था में तेजी आयी और निजी निवेश का प्रतिशत भी लगातार बढ़ा. इससे जीडीपी की लगातार वृद्धि होती रही है.

यह भी एक हकीकत है कि भारत में युवाओं में बड़े पैमाने पर बेरोजगारी है. रोजगार में बढ़ोतरी हो रही है, पर अवसरों की संख्या उतनी नहीं हो पा रही है कि इस समस्या का ठीक से समाधान हो सके. मोदी सरकार को इस बार आम चुनाव में पूर्ण बहुमत नहीं मिलने का यह एक प्रमुख कारण माना जा रहा है. बजट में इस संदर्भ में प्रावधान होने चाहिए. यह स्थिति भी चिंताजनक है कि निजी क्षेत्र निवेश के बदले सरकार से बहुत अधिक अपेक्षाएं रखता है. उसे निवेश के बदले करों में छूट और वित्तीय सुविधा चाहिए. अब भारतीय अर्थव्यवस्था नब्बे के दशक के उस दौर में नहीं है, जब निजी क्षेत्र की मनमानी बहुत अपेक्षित थी. फिर भी पिछले कई बजट में यह देखा जा सकता है कि सरकारें निजी क्षेत्र को आकर्षित करने के लिए निरंतर प्रयासरत रहती हैं. इसके चलते सरकार का पूर्ण ध्यान ग्रामीण अर्थव्यवस्था, छोटे उपभोक्ता, आम आदमी की बचत, बैंकिंग निवेश पर अधिक ब्याज दर और दिन-प्रतिदिन के उपभोग में आने वाली वस्तुओं के मूल्य में बढ़ोतरी जैसे मसलों पर समुचित रूप में नहीं जा पाता.

यह भी बड़ी अजीब बात है कि आंकड़ों के माध्यम से इस बात को समझाने की कोशिश होती है कि आयकर की दरों में कमी या आयकर की सीमा में बदलाव देश के मात्र एक या दो प्रतिशत लोगों को ही प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित करता है. कई विश्लेषक कहते हैं कि आयकर दरों में बदलाव से समाज के निचले तबके को फायदा नहीं होता है तथा सरकार के राजस्व में भी कमी आ जाती है. आम उपभोग में आने वाली वस्तुओं पर अमूमन 12 और 18 प्रतिशत जीएसटी है, जो आम जन की जेब पर आर्थिक बोझ डालती है. मसलन, एक रेस्टोरेंट में खाना खाने पर राज्य और केंद्र सरकार की जीएसटी दोनों का भुगतान करना पड़ता है, जिससे खर्च 20 प्रतिशत तक बढ़ जाता है.

यह भी देखना है कि आगामी बजट पर प्रधानमंत्री मोदी के उस कथन की छाप होगी या नहीं, जिसमें उन्होंने चीजों को मुफ्त बांटने की नीतियों की तुलना रेवड़ियों से की थी. वर्तमान सरकार गठबंधन की सरकार है. आने वाले महीनों में कुछ महत्वपूर्ण राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं. अनेक क्षेत्रीय दलों का मानना है कि जरूरतमंद लोगों को मुफ्त में चीजें मुहैया कराना उनके सामाजिक विकास के लिए जरूरी है. ऐसे दलों ने अपनी सरकारों की नीतियों में इस समझ को शामिल किया है. कुछ राज्यों द्वारा उन्हें विशेष राज्य के दर्जे या विशेष आर्थिक पैकेज की मांग की जा रही है. सरकार बजट में ऐसी मांगों को कैसे नियोजित करती है, यह भी आकर्षण का एक मुख्य बिंदु होगा.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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