गांवों में कर्जदार ज्यादा
ग्रामीण महिलाओं पर भी कर्ज का बोझ अधिक है. गांवों में एक लाख महिलाओं पर 13,016 महिलाएं कर्ज में डूबी हैं. जबकि शहरों में 10,584 महिलाएं ही कर्जदार पायी गयीं. गांवों में कर्ज बढ़ने का कारण यह है कि वहां शहरी जीवन का अनुकरण होने लगा है, चाहे वह घरेलू जरूरतें हों, बच्चों की शिक्षा हो या फिर खान-पान और पहनावा.
Burden of Debt :वर्ष 2022-23 के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़ों को आधार बनाकर पिछले दिनों सांख्यिकी मंत्रालय द्वारा जारी वार्षिक मॉड्यूलर सर्वेक्षण रिपोर्ट एक बार फिर शहरों की तुलना में गांवों में कर्ज के बढ़े भार के बारे में बताती है. इस रिपोर्ट के मुताबिक, गांवों में प्रति एक लाख लोगों में 18,714 लोग ऐसे हैं, जिन्होंने कर्ज ले रखा है, जबकि शहरों में गांवों से कुछ कम 17,442 लोग कर्जदार हैं.
ग्रामीण महिलाओं पर भी कर्ज का बोझ अधिक है. गांवों में एक लाख महिलाओं पर 13,016 महिलाएं कर्ज में डूबी हैं. जबकि शहरों में 10,584 महिलाएं ही कर्जदार पायी गयीं. गांवों में कर्ज बढ़ने का कारण यह है कि वहां शहरी जीवन का अनुकरण होने लगा है, चाहे वह घरेलू जरूरतें हों, बच्चों की शिक्षा हो या फिर खान-पान और पहनावा. गांव के लोगों के शहरों में कार्यरत होने से ग्रामीणों के लिए कर्ज की उपलब्धता भी आसान हुई है. रिपोर्ट बताती है कि शहरों में स्वास्थ्य और शिक्षा से जुड़ी कई सुविधाएं नि:शुल्क मिल जाती हैं, जबकि गांवों में इनके लिए पैसे देने पड़ते हैं. इसलिए ग्रामीणों को ज्यादा कर्ज लेना पड़ता है.
इससे यह भी पता चलता है कि गांवों का जीवन शहरी जीवन की तुलना में अब भी कितना कठोर है. गांवों से शहरों की तरफ पलायन इसी कारण रुका नहीं, बल्कि अनवरत जारी है. सरसरी तौर पर यह रिपोर्ट चौंकाने वाली भले लगे, लेकिन यह सच्चाई पिछले अनेक वर्षों से जारी है कि शहरों की तुलना में गांवों के लोगों पर कर्ज का बोझ ज्यादा है. वर्ष 2016 में आयी राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की रिपोर्ट के मुताबिक, गांवों में 31.4 फीसदी परिवारों ने कर्ज ले रखा था, जबकि शहरों में 22.4 परिवार कर्ज में डूबे थे. वह आंकड़ा यह भी बताता था कि गांवों में पेशेवर (बैंक) और गैर पेशेवर (साहूकार आदि) संस्थाओं से कर्ज लेने की दर क्रमश: 56 और 44 प्रतिशत थी. जबकि शहरों में ज्यादातर कर्ज बैंकों से लिये गये थे.
वर्ष 2021 में आयी राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) की रिपोर्ट भी बताती थी कि महामारी से पहले 22.4 फीसदी शहरी परिवारों की तुलना में 35 प्रतिशत ग्रामीण परिवार कर्ज में डूबे थे. उस रिपोर्ट ने इस सच्चाई की ओर भी हमारा ध्यान आकृष्ट किया था कि महामारी के दौरान लॉकडाउन लगने पर असंख्य लोग शहरों से गांवों में पहुंचे, तो वे और कर्ज में डूब गये थे. इस तरह की रिपोर्टों के लगातार आने का अर्थ यही है कि ग्रामीण भारत की बेहतरी के लिए अभी और बहुत कुछ किये जाने की जरूरत है.