नौकरशाही में जल्द हो सुधार
बिहार जैसे राज्यों में जहां संसाधन कम हैं, परंतु आबादी घनी है. वहां नौकरशाही समेत प्रशासनिक तंत्र के विभिन्न स्तर पर मौजूद अक्षमता के घातक परिणाम देखने को मिल सकते हैं.
डॉ शैबाल गुप्ता, सदस्य सचिव, एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट (आद्री), पटना
shaibalgupta@yahoo.co.uk
कोरोना वायरस से उत्पन्न संकट ने बिहार को कई तरह से प्रभावित तो किया ही है, साथ ही सिस्टम में कई स्तर पर व्याप्त गंभीर त्रुटियों को भी उजागर कर दिया है. बिहार जैसे राज्यों में जहां संसाधन कम हैं, परंतु आबादी घनी है. वहां नौकरशाही समेत प्रशासनिक तंत्र के विभिन्न स्तर पर मौजूद अक्षमता के घातक परिणाम देखने को मिल सकते हैं. बिहार की वर्तमान शासन प्रणाली में राजनीतिक नेतृत्व के विचारों और योजनाओं को जमीनी स्तर पर उतारने में शीर्ष नौकरशाहों से लेकर निचले स्तर तक के कर्मचारियों पर निर्भरता काफी अधिक है.
ऐसा संभवतः लोकतांत्रिक व्यवस्था का जमीनी स्तर पर कमजोर होने के कारण भी है. केरल जैसे अन्य राज्यों की तुलना में बिहार में पंचायत स्तर की राजनीतिक व्यवस्था की परिपक्वता कम है. दूसरे तरफ, राजनीतिक पार्टी कैडर्स की शासन व्यवस्था पर पकड़ कम होने के कारण जनता की भी निर्भरता नौकरशाह एवं कर्मचारियों पर काफी बढ़ जाती है. फिर नौकरशाहों पर आधारित प्रशासनिक तंत्र राजनीतिक कैडर्स की जगह ले लेते हैं. ऐसी व्यवस्था में नौकरशाहों की अक्षमता एवं नक्कारापन विकास की राह में सबसे बड़ा रोड़ा बनकर खड़ा दिखता है.
हम बिहार की शासन व्यवस्था में कार्य कर रहे नौकरशाहों के काम करने के तौर-तरीके एवं क्षमता के आधार पर उसे चार प्रकार के समूहों में बांट सकते हैं. पहला एक वह समूह है, जो ईमानदार भी है और काम करने में भी कुशल हैं. हालांकि, इनकी संख्या बहुत ही सीमित है. ऐसे लोगों को सहेज कर रखने की जरूरत है. दूसरे प्रकार के समूह में ऐसे लोग हैं जो ईमानदार तो हैं, परंतु कार्य को संपादित कर पाने में अक्षम हैं. अतः इनकी उपादेयता कम रह जाती है. तीसरा, ऐसे नौकरशाह हैं जो बेईमान तो हैं, परंतु कार्य को संपादित कर देते हैं. वर्तमान में अधिकांशतः जो कार्य होते हुए दिख रहा है, उसमें इस प्रकार के नौकरशाहों की प्रमुख भूमिका होती है.
हम गौर करें, तो ऐसे नौकरशाह अपनी सफलता ऐसे विभागों में अधिक दर्ज करते हैं, जहां कार्य का निष्पादन ठेकेदारों के माध्यम से करवाना होता है. रोचक बात है कि इसमें भी वैसे नौकरशाहों की पूछ बनी रहती है, जो राजनीतिक तंत्र के साथ सामंजस्य बनाने में सफल होते हैं. इन सब समूहों से परे चौथे, ऐसे नौकरशाह हैं, जो बेईमान तो हैं ही, साथ ही हर प्रकार से अक्षम भी हैं. प्रशासनिक तंत्र में जो कुछ थोड़ा-बहुत अच्छा है, इन सबका योगदान उसको भी बर्बाद करने में रहता है. ऐसे ही अक्षम लोग ही यह पूरे सिस्टम को अपनी कार्यशैली से बिल्कुल पंगु बना देते हैं.
वर्तमान में कोरोना संकट के बीच लचर होती राज्य की स्वास्थ्य व्यवस्था और हर साल की भांति इस बार भी आये बाढ़ के कहर ने स्थिति को और भी गंभीर बना दिया है. कोरोना महामारी और बाढ़ संकट के बीच आपदा प्रबंधन में प्रशासनिक व्यवस्था की विफलता से एक बार फिर नौकरशाहों की कार्यप्रणाली की तरफ लोगों का ध्यान आकर्षित हुआ है.
बिहार में प्रशासनिक तंत्र जहां पूरे संकट के दौरान अपनी कागजी खानापूर्ति में अधिक दिख रहा है, वहीं पुलिस तंत्र नियमों के उल्लंघन में जुर्माना वसूली एवं आर्थिक दंड को सफलता के प्रतीक के रूप में देख रही है. राजनीतिक तंत्र और नौकरशाही के बीच समुचित सामंजस्य नहीं होने के कारण जमीनी स्तर पर कार्यों का निष्पादन जटिल हो चुका है. साथ ही जनता और शासन व्यवस्था के बीच जो संवाद राजनीतिक स्तर पर आसानी से हो सकता है, वह नौकरशाही के जाल में उलझ गया है. संभावना यह भी है कि आनेवाले चुनाव में ये सभी मुद्दे प्रमुखता के साथ उठाये जायें.
वर्तमान संकट के बीच प्रस्तावित बिहार विधानसभा चुनाव कई मायने में महत्वपूर्ण है. पंद्रह साल के लालू-राबड़ी शासन के विरोध में उपजे माहौल के साथ आयी नीतीश कुमार के नेतृत्व की सरकार के 15 साल इस बार पूरे हो जायेंगे. सामाजिक जीवन में 30 साल का समय काफी लंबा वक्त होता है. इसमें उठाये गये सरकारी कदम कई पीढ़ियों को प्रभावित करते हैं. इस बार ऐसा प्रतीत होता है कि आनेवाले चुनाव में सत्तापक्ष जहां एक ओर, इस चुनाव को लालू-राबड़ी के शासन बनाम नीतीश के 15 साल के तुलनात्मक शासनकाल की चर्चा को चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश कर रहा है.
वहीं, अन्य विपक्षी दल वर्तमान संकट से जुड़ी परेशानियों समेत नीतीश सरकार के शासन के विभिन्न पहलू को अलग-अलग तरीके से मुद्दा बनाने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसे हालात में अगर हम इस अवधि का सही मूल्यांकन करें, तो यह स्पष्ट है कि कि नीतीश कुमार के शासन काल में कई ऐसे कार्य हुए हैं, जिसने बिहार के विकास को एक दिशा दी है. लेकिन, वहीं नौकरशाही के निकम्मेपन ने राजनीतिक प्रयासों को जमीनी स्तर तक पहुंचने से पहले ही विफल कर दिया. इस साफ तौर पर देखा जा सकता है.
लोकतांत्रिक व्यवस्था में अगर देखा जाये, तो राजनीतिक लोगों का कैरियर नौकरशाहों के तुलना में छोटा तो होता ही है, साथ ही उनकी जनता की जरूरतों के प्रति जवाबदेही की लगातार समीक्षा अलग-अलग स्तरों पर होती रहती है. ऐसे में काम करने की जल्दीबाजी और तत्परता चुनावी प्रक्रिया से चुनकर आये लोगों में नौकरशाहों की तुलना में अधिक रहती है.
अतः जरूरत है कि राजनीतिक तंत्र अपेक्षाकृत सक्षम हो और उसकी निर्भरता बेकार एवं अनुपयोगी नौकरशाही पर कम से कम हो. वर्तमान संकट की अवधि में चुनावी साल का समय होने के कारण बिहार की शासन व्यवस्था में कई पहलुओं के सुधार करने पर विचार करने का एक मौका है. अब राजनीतिक नेतृत्व शासन व्यवस्था में राजनेताओं की तुलना में कार्यरत एवं सेवानिवृत्त नौकरशाहों पर अधिक निर्भर है, ऐसे में नौकरशाही तंत्र को और अधिक सक्षम कैसे बनाया जाये, इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)