इस आबोहवा को कैद कर लीजिए

लॉकडाउन में हिमालय की चोटियां दो सौ किमी दूर से भी साफ नजर आ रही हैं. कहीं मोर नाचते दिख रहे हैं, तो कहीं इंद्रधनुष की छटा दिख रही है. इसने जीवनशैली में बदलाव करने को बाध्य किया है.

By Ashutosh Chaturvedi | May 4, 2020 7:33 AM

आशुतोष चतुर्वेदी, प्रधान संपादक, प्रभात खबर

ashutosh.chaturvedi@prabhatkhabar.in

भारत में कोरोना वायरस की वजह से लॉकडाउन जारी है. आवाजाही बंद है. काम-धंधों पर ब्रेक लगा हुआ है. लोग घरों में बंद हैं और लॉकडाउन खुलने का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं, लेकिन कोराना से जुड़ी नकारात्मक खबरों के बीच एक सुखद खबर यह है कि लॉकडाउन के कारण राजधानी दिल्ली समेत देश के सभी शहरों के प्रदूषण में भारी कमी आयी है. जो दशकों से नहीं हुआ था, वह अब होता नजर आ रहा है. अखबारों में तस्वीरें छपीं कि जालंधर से हिमालय की बर्फीली चोटियां नजर आने लगीं हैं. वायु प्रदूषण न होने की वजह से शहर आबोहवा एकदम शुद्ध हो गयी है और जालंधर के बाहरी इलाकों से हिमाचल प्रदेश के धौलाधार पर्वत नजर आने लगे हैं. विशेषज्ञों के अनुसार हवा 30 साल बाद इतनी साफ हुई है कि 200 किलोमीटर दूर स्थित ये पहाड़ जालंधर के लोगों को नजर आने लगे हैं.

दूसरी सुखद खबर उत्तर प्रदेश के सहारनपुर से आयी. वहां भी वर्षों में हवा इतनी शुद्ध नहीं हुई, जितनी लॉकडाउन में हुई है. हवा से प्रदूषण गायब हो गया है और बर्फ से लदी गंगोत्री पर्वत शृंखला दिखाई देने लगी. इन पहाड़ों की सहारनपुर से वायु मार्ग से दूरी लगभग 200 किलोमीटर है. विशेषज्ञ कहते हैं कि यदि मौसम साफ हो और प्रदूषण न हो, तो 20 हजार फीट ऊंची कोई भी शृंखला लगभग तीन सौ किलोमीटर दूरी से नजर आ सकती है. पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी की भी यही कहानी है. जब लोग सुबह उठे, तो उन्हें दुनिया की तीसरी सबसे ऊंची चोटी कंचनजंघा दिखाई दे रही थी. लॉकडाउन के दौरान देश में कहीं मोर नृत्य करते नजर आ रहे हैं, तो कहीं इंद्रधनुष की छटा दिखाई दे रही है.

देश की राजधानी प्रदूषण के कारण बदनाम रही है. वहां सांस लेना भी मुहाल है. सारे उपाय अपनाये गये, पर कोई नुस्खा कारगर साबित नहीं हुआ. दिल्ली के आनंद विहार में 19 फरवरी को प्रदूषण का पीएम 2.5 स्तर 404 आंका गया था, जो बेहद खतरनाक स्थिति है, लेकिन लॉकडाउन के बाद यह स्तर गिर कर 101 पर आ गया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 23 मार्च को पूरे देश में लॉकडाउन का एलान किया था. इसके कुछ हफ्तों बाद ही यह आंकड़ा 374 पर आ गया था. लोगों को वर्षों बाद यह एहसास हुआ है कि साफ हवा क्या होती है और उसमें सांस लेना कितना सुखद होता है. गिरते-गिरते प्रदूषण का स्तर का औसत मात्र 101 रह गया है. यही स्थिति बिहार और झारखंड के अनेक शहरों की है. यही नहीं, लॉकडाउन के दौरान हरिद्वार और कानपुर में गंगा में कल-कल कर निर्मल जल बह रहा है. दिल्ली में नदी से नाला बन चुकी यमुना का जल निर्मल हो गया है. नासा का कहना है कि दुनियाभर में लॉकडाउन के कारण दो दशक में सबसे कम प्रदूषण स्तर दर्ज किया गया है.

इसमें कोई शक नहीं कि प्रदूषण इस देश के लिए गंभीर खतरा है. अगर आपको याद हो, कुछ समय पहले देश की राजधानी दिल्ली की स्थिति इतनी खराब थी कि प्रदूषण के गंभीर स्तर को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट के पैनल ने वहां हेल्थ इमरजेंसी घोषित कर दी थी. दिल्ली एनसीआर में सभी निर्माण गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और दिल्ली सरकार ने सभी स्कूलों को कुछ समय के लिए बंद कर दिया था. दिल्ली और आसपास के लोग प्रदूषण के कारण सांस लेने की तकलीफ, सीने में दर्द और खासी की शिकायत लेकर अस्पताल पहुंच रहे थे. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने लोगों को घर से बाहर न निकलने की सलाह दी थी. प्रदूषण की गंभीर स्थिति गंभीर में सम-विषम कार योजना लागू की करनी पड़ी थी, पर लोग इसे मानने को ही तैयार ही नहीं थे. 2017 में जब सम-विषम योजना लागू की गयी थी, तो 10 हजार गाड़ियों का चालान कटा था, लेकिन इस लॉकडाउन के दौरान सड़कों पर वही गाड़ियां नजर आ रही हैं, जो जरूरी कामकाज और सेवाओं से जुड़ी हैं और प्रदूषण के स्तर में अंतर साफ नजर आ रहा है.

देश में प्रदूषण से मौतें भी रुक गयी हैं. हालांकि स्वच्छ पर्यावरण के फायदों का आकलन मुश्किल है. फिर भी लॉकडाउन ने न केवल जीवनशैली में बदलाव करने को बाध्य किया है, बल्कि जरूरत और उपभोक्तावादी प्रवृत्ति के बीच अंतर करना भी सिखा दिया है. भविष्य में टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल से लोगों के कामकाज का तरीका बदलेगा और आवाजाही घटेगी. इसका सीधा असर प्रदूषण पर पड़ेगा और आबोहवा साफ होगी. प्रदूषण के मामले में बिहार और झारखंड के कई शहरों में भी हालात कोई बहुत बेहतर नहीं रहे हैं. देश के विभिन्न शहरों से प्रदूषण को लेकर पिछले कई वर्षों से लगातार चिंताजनक रिपोर्टें आ रही हैं, लेकिन स्थिति जस-की-तस है. हम इस ओर आंख मूंदे हैं.

समाज में इसे लेकर कोई विमर्श नहीं हो रहा है. सोशल मीडिया पर कोरोना और अन्य विषयों को लेकर रोजाना बेमतलब के ढेरों लतीफे चलते हैं, लेकिन पर्यावरण जागरूकता को लेकर संदेशों का आदान-प्रदान नहीं होता है, जबकि यह मुद्दा हमारे-आपके जीवन से जुड़ा हुआ है. अपने देश में स्वच्छता और प्रदूषण का परिदृश्य वर्षों से निराशाजनक रहा है. इसको लेकर समाज में जैसी चेतना होनी चाहिए, वैसी नहीं है, लेकिन हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहने की स्थिति किसी भी देश के लिए बेहद चिंताजनक हैं. अगर लोग और शासन व्यवस्था ठान ले, तो परिस्थितियों में सुधार लाया जा सकता है.

उत्तर भारत में वायु प्रदूषण का संकट लगातार गहराने का असर लोगों की औसत आयु पर पड़ रहा है. कुछ समय पहले अमेरिका की शोध संस्था एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट ने वायु गुणवत्ता जीवन सूचकांक जारी किया था. इसमें उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में रह रहे लोगों की औसत आयु लगभग सात वर्ष तक कम होने की आशंका जतायी गयी थी. रिपोर्ट के अनुसार, झारखंड के भी कई जिलों में लोगों का जीवनकाल घट रहा है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कुछ समय पहले एक और गंभीर तथ्य की ओर इशारा किया था कि भारत में 34 फीसदी मौत के लिए प्रदूषण जिम्मेदार है.

ये आंकड़े किसी भी देश- समाज के लिए बेहद चिंताजनक हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन का आकलन है कि प्रदूषण के कारण हर साल दुनियाभर में 70 लाख लोगों की मौत हो जाती है, जिसमें 24 लाख लोग भारत के हैं. दरअसल वायु प्रदूषण उत्तरी भारत के लिए एक बड़ी चुनौती है. भारत की आबादी का 40 फीसदी से अधिक हिस्सा इसी में रहता है. संयुक्त राष्ट्र का मानना है कि लोगों को स्वच्छ हवा में सांस लेने का बुनियादी अधिकार है और कोई भी समाज पर्यावरण की अनदेखी नहीं कर सकता है.

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