समय की मांग है जातिगत जनगणना
यदि किसी जाति की वास्तविक स्थिति का पता ही नहीं होगा, तो उसके उत्थान हेतु नीति-निर्माण कैसे संभव हो पायेगा! यदि अत्यंत पिछड़ी जातियों की सामाजिक वंचना की समाप्ति के लिए उपाय करने में देरी की गयी, तो उससे असंतोष मुखर होने लगेगा.
पंकज चौरसिया
शोधार्थी
जामिया मिलिया इस्लामिया
आगामी लोकसभा चुनाव से पहले सभी क्षेत्रीय विपक्षी दलों ने जातिगत जनगणना को राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया है. कुछ दिन पहले तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने अपनी पार्टी डीएमके द्वारा आयोजित ‘ऑल इंडिया फेडरेशन फॉर सोशल जस्टिस’ के प्रथम सम्मेलन में फिर विपक्षी एकता की पुरजोर वकालत की तथा कहा कि सामाजिक न्याय प्राप्त करने के लिए संघर्ष करना किसी एक राज्य का मुद्दा नहीं है, सभी राज्यों से जुड़ा मुद्दा है और भारतीय समाज की संरचना से जुड़ा है.
उन्होंने कहा, ‘जहां कहीं भी भेदभाव, बहिष्कार, छुआछूत, गुलामी और अन्याय है, इन जहरों को दूर करने की एकमात्र दवा सामाजिक न्याय है.’ इस सम्मेलन में अशोक गहलोत, हेमंत सोरेन, तेजस्वी यादव, सीताराम येचुरी, अखिलेश यादव और फारूक अब्दुल्ला आदि विपक्षी नेताओं ने हिस्सा लिया और जाति आधारित जनगणना की भी वकालत की.
जातिगत जनगणना को तब और बल मिल गया, जब कर्नाटक की एक चुनावी रैली में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को संबोधित करते हुए कहा, ‘आप ओबीसी की बात करते हैं, 2011 के जातिगत सर्वेक्षण के आंकड़े सार्वजनिक किये जाएं, ताकि अन्य पिछड़ा वर्ग को उचित प्रतिनिधित्व मिल सके तथा अनुसूचित जाति एवं जनजाति समुदायों को उनकी आबादी के अनुपात में आरक्षण दिया जा सके.
यदि आप ऐसा नहीं करते हैं, तो यह ओबीसी का अपमान है.’ कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने प्रधानमंत्री मोदी को लिखे पत्र में कहा, ‘2021 में नियमित दस वर्षीय जनगणना होनी थी, लेकिन यह नहीं हो सकी. हम मांग करते हैं कि इसे तत्काल किया जाए और व्यापक जाति जनगणना को इसका अभिन्न अंग बनाया जाए.’
कांग्रेस को ओबीसी पहचान की लड़ाई तब लड़नी पड़ रही है, जब कुछ दिन पहले एक आपराधिक मानहानि मामले में दो साल की सजा मिलने के बाद राहुल गांधी की लोकसभा की सदस्यता रद्द कर दी गयी और भाजपा ने कांग्रेस और राहुल गांधी को ओबीसी विरोधी कहकर प्रचारित किया. कांग्रेस और राहुल गांधी ने जातिगत जनगणना की मांग उठाकर इस संवेदनशील मसले पर बड़ी राजनीतिक बहस छेड़ दी है और भाजपा के लिए मुश्किल पैदा कर दी है.
जाति आधारित जनगणना की मांग लंबे अरसे से की जा रही है और इसके लिए सबसे ज्यादा सरगर्मी बिहार और उत्तर प्रदेश में रहती है. वर्तमान में जातिगत जनगणना के बड़े नायक बन कर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार उभरे हैं, जहां जनगणना के आंकड़े एकत्र करने का दूसरा दौर जारी है. वर्ष 1931 के बाद कई जाति समूह जनगणना करने वालों से अलग कास्ट स्टेटस की भी मांग करने लगे.
वंश परंपरा का हवाला देते हुए कुछ जातियों के लोग खुद को ब्राह्मण वर्ग में शामिल करने की मांग की, तो कुछ जातियों को क्षत्रिय एवं वैश्य साबित करने के प्रयास होने लगे. यह जाति के आधार पर श्रेष्ठता तय करने का दौर था और आज किसी की जाति पिछड़ेपन की निशानी बन गयी है. मंडल आयोग ने गैर हिंदू समुदायों में भी विद्यमान पिछड़ी जातियों का वर्गीकरण किया है, जिसके कारण उन्हें भी आरक्षण की श्रेणी में शामिल किया था.
आयोग ने अनुमान लगाया कि भारत की कुल आबादी का 52 प्रतिशत ओबीसी वर्ग है. पिछड़े वर्ग के नेता भी मानते हैं कि उनकी आबादी लगभग 60 फीसदी है. यदि जाति आधारित जनगणना हो जायेगी, तो तस्वीर एकदम साफ हो जायेगी. जाति जनगणना से सरकार को विकास योजनाओं का खाका तैयार करने में भी मदद मिलेगी और सभी जातियों को उनकी संख्या के आधार पर सामाजिक न्याय सुनिश्चित किया जा सकेगा.
वर्ष 1931 से अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की गणना होती आ रही है, इसलिए शेष जातियों की गणना भी बहुत जरूरी है ताकि यदि कोई जाति सामाजिक संरचना में वंचना का शिकार है, तो उसे अतिरिक्त अवसर मुहैया कराया जा सके. यदि किसी जाति की वास्तविक स्थिति का पता ही नहीं होगा, तो उसके उत्थान हेतु नीति-निर्माण कैसे संभव हो पायेगा! यदि अत्यंत पिछड़ी जातियों की सामाजिक वंचना की समाप्ति के लिए उपाय करने में देरी की गयी, तो उससे असंतोष मुखर होने लगेगा.
ओबीसी वर्ग यदि सामाजिक वंचना का शिकार है और कहता है कि उसे उसकी आबादी के अनुपात में संसाधन उपलब्ध नहीं कराये जा रहे हैं, तो यह माना जाना चाहिए कि संसाधनों के वितरण में व्यापक असमानता व्याप्त है. ऐसी असमानता को समाप्त कर सामाजिक न्याय व समावेशी विकास संबंधी पहल करना देश के उत्तरोत्तर विकास हेतु अति आवश्यक है, जिसकी शुरुआत वंचितों की गणना करने से होनी चाहिए.
ओबीसी जातियों के मध्य व्याप्त विसंगतियों को दूर करने के लिए इंदिरा साहनी मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्देश दिया था कि ओबीसी वर्ग की सामाजिक, शैक्षिक व आर्थिक स्थिति का समय-समय पर अध्ययन होना चाहिए ताकि सामाजिक, शैक्षिक व आर्थिक आधार पर वंचना से मुक्त हो गयी जातियों को ओबीसी वर्ग से निकालकर अन्य वर्ग में शामिल किया जाए. इससे वंचित जातियों के उत्थान के अवसर भी बढ़ेंगे और ओबीसी वर्ग की विभिन्न जातियों के मध्य व्याप्त विसंगतियों को भी दूर किया जा सकेगा.
इसी क्रम में एनडीए सरकार द्वारा 2017 में गठित जस्टिस रोहिणी आयोग के आंकड़ों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए. आधिकारिक तौर पर इस आयोग की रिपोर्ट अभी प्रकाशित नहीं हो पायी है, लेकिन जानकारों के मुताबिक, इसमें ओबीसी कोटे को चार भागों में बांटने की संस्तुति की गयी है. आंकड़े बताते हैं कि केवल पिछले पांच वर्षों में ओबीसी की 2,633 जातियों में 10 जाति समूहों को कोटे का एक चौथाई लाभ मिला है. एक हजार जाति समूह तो ऐसे भी रहे, जिन्हें इस कोटे से एक प्रतिशत लाभ भी नहीं मिला.
ओबीसी की तमाम जातियां कर्पूरी ठाकुर मॉडल के आधार पर ओबीसी आरक्षण का वर्गीकरण करने की मांग कर रही हैं. देश की आधी आबादी की समस्याओं के समाधान के लिए जातिगत जनगणना का होना आवश्यक है. हमें यह भी समझना होगा कि 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा कोई अंतिम व आदर्श लकीर नहीं है क्योंकि आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण लागू कर उस सीमा को तोड़ा जा चुका है.
अब समय आ गया है कि जातिगत जनगणना हो तथा विभिन्न राज्यों की विविधता और जातियों की भिन्नता को ध्यान में रखकर सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक रूप से कमजोर जातियों के लिए समानुपातिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जाए.