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राज्यों की राजकोषीय मदद करे केंद्र

राज्यों और केंद्र को देश के विकास के लिए एक सामान्य दृष्टिकोण अपनाना होगा. संतुलित विकास के लिए राज्य और केंद्र के बीच अधिक सहयोग और लेन-देन की जरूरत होगी.

अजीत रानाडे, अर्थशास्त्री व सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टिट्यूट

editor@thebillionpress.org

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा प्रसंगवश की गयी टिप्पणी ‘ईश्वर का कृत्य’ के लिए बीता सप्ताह चर्चा में रहा. वे कोविड-19 महामारी का जिक्र कर रही थीं, जो अब भारत समेत दुनिया में आयी अभूतपूर्व मंदी के प्रमुख कारण के रूप में देखा जा रहा है. इस ओर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया कि सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) वृद्धि और निवेश औसत का धीमा होना, निर्यात में ठहराव या बैंकों के बढ़ते खराब ऋण औसत ने इस संकट को बढ़ाया है. महामारी के प्रकोप के पहले भी राजकोषीय तनाव बढ़ रहा था और कर-संग्रह की अपर्याप्तता का दबाव भी दिख रहा था.

वित्त मंत्री ने एक वाणिज्यिक अनुबंध में प्राकृतिक आपदा को ‘ईश्वर के कृत्य’ के रूप में उल्लिखित किया. इस मामले में जो ‘अनुबंध’ है, वह 2017 का एक संसदीय अधिनियम है, जो वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के जरिये कर संग्रह में कमी आने पर केंद्र द्वारा राज्यों को क्षतिपूर्ति की गारंटी देता है. क्षतिपूर्ति खंड कहता है, बीते वर्ष की तुलना में 14 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि से नीचे जानेवाले राजस्व की भरपाई पांच वर्ष तक, यानी 2022 तक, केंद्रीय कोषागार निधि से की जायेगी. महामारी के पहले से जीडीपी वृद्धि के धीमे होते जाने के कारण इस दायित्व के निर्वहन में दिक्कत आ रही थी. मौजूदा वित्त वर्ष में कर पूर्वानुमान व उसके गणित की स्थिति डांवाडोल रहेगी और केंद्रीय राजकोषीय घाटा तेजी से बढ़ेगा.

राज्यों की स्थिति भी ऐसी ही रहेगी. पहले राज्यों के राजस्व घाटे की भरपाई होना निश्चित था, इसलिए वे कम चिंतित थे. लेकिन जीएसटी परिषद् की हालिया बैठक के बाद ऐसा लगता है कि राज्यों के घाटे की भरपाई नहीं हो पायेगी. ऐसा लगता है, जैसे केंद्र महामारी के कारण उत्पन्न इस असाधारण परिस्थितियों का हवाला देते हुए 2017 के अधिनियम के तहत अपने दायित्व का पालन नहीं करेगी. इसीलिए केंद्र ने रिजर्व बैंक या ओपन मार्केट से खुद उधार लेकर राज्यों से घाटे की भरपाई करने को कहा है.

इसमें अनेक तरह की दिक्कतें है. हमारे देश की बनावट अमेरिका से अलग हैं. वहां स्वैच्छिक रूप से प्रांतीय सत्ता एक साथ आयी थीं. जबकि, भारत के राज्य संघ द्वारा निर्मित हैं. केंद्र सरकार नये राज्यों का निर्माण कर सकती है, जैसा पिछले कुछ दशकों में अनेक बार हुआ है. यहां तक कि राज्यों को फिर से केंद्र शासित क्षेत्र में परिवर्तित किया गया है. जम्मू, कश्मीर और लद्दाख के मामले में हमने इसे देखा है.

इस लिहाज से देखें, तो भारत में संघवाद की प्रकृति दूसरे संघ संगठित देशों से अलग है. दूसरी बात यह है कि संविधान स्पष्ट रूप से केंद्र की अनुमति के बिना राज्यों को और अधिक ऋण लेने पर रोक लगाता है. राज्यों को विदेश से भी ऋण लेने की मनाही है. वे डाॅलर में कर्ज नहीं ले सकते हैं, यहां तक कि आज की स्थिति में भी नहीं, जब ब्याज दर लगभग शून्य है.

हाल ही में केरल ने लंदन में सूचीबद्ध रुपया, जिसे ‘मसाला बाॅन्ड्स’ कहा गया, के जरिये कर्ज लिया, तो काफी विवाद हुआ था. राज्यों पर इस रोक का तर्क भलाई के लिए है, एक राज्य के डाॅलर के हिसाब में दिवालिया होने का असर पूरे देश की रेटिंग पर पड़ सकता है. इस तरह की ऋण संकट तबाही को 1980 के दशक में लैटिन अमेरिका में हम देख चुके हैं. इसलिए भारत में पहले से कर्ज में डूबे राज्य को बिना स्पष्ट आज्ञा के रिजर्व बैंक या खुले बाजार से उधार लेने की मनाही है. इसी कारण कुछ राज्य कर्ज लेने के लिए चालें चल रहे हैं, जैसे राज्य के स्वामित्व वाले उद्यमों के नाम पर उधार लेना. इस तरह वे काॅरपोरेट बैलेंट शीट में कर्ज छिपा रहे हैं.

राज्यों की कर्ज राशि नहीं बढ़ने देने का दूसरा कारण है ऋण सेवा क्षमता. जब राज्य बाजार या रिजर्व बैंक के पास कर्ज लेने जायेंगे, तो उन्हें केंद्र की तुलना में कहीं अधिक उच्च ब्याज दर चुकाना होगा. चूंकि उनकी कर स्वायत्ता अत्यधिक प्रतिबंधित है, ऐसे में जीएसटी की बदौलत उनकी चुकौती क्षमता भी घटी है. इस महामारी में भी केंद्र के ऋण और जीडीपी के अनुपात में काफी वृद्धि हुई है, वह पूरी तरह तर्कसंगत है. दरअसल, केंद्र अतिरिक्त राजकोषीय निधि के रकम के लिए एक दीर्घकालिक विशेष कर मुक्त कोविड-19 बाॅन्ड जारी कर सकता है.

डाॅलर निवेशकों को संप्रभु बाॅन्ड बेचने या थोड़ी संख्या में अनिवासी भारतीयों को इसे बेचे जाने की चर्चा है. राज्यों के लिए यह विकल्प उपलब्ध नहीं है. सार्वजनिक उपक्रमों (पीएसयू) के वित्त पोषण को यहां याद किया जा सकता है. भारतीय रेल वित्त निगम या विद्युत वित्त निगम अपने संबंधित संप्रभु समर्थन के कारण बाजार से बहुत कम ब्याज दर पर रकम जुटाने में सक्षम हैं. इस सत्य के बावजूद कि रेलवे या विद्युत संस्थान घाटे में जा रहे हैं, इन दोनों के लिए इस तरह कम कीमत पर धन जुटाना संभव है.

केंद्र द्वारा राज्यों की तरफ से कोविड से संबंधित राजकोषीय धन जुटाने के पीछे भी यही तर्क लागू होता है. तीसरा कारण, राज्यों द्वारा व्यक्तिगत तौर पर उधार लेने पर भी, राष्ट्रीय योगफल में समग्र ऋण की आवश्यकता में कोई अंतर नहीं आयेगा. योगफल में यह समान ही होगा, भले ही केंद्र ने स्वयं कर्ज लिया हो या केंद्र और राज्य द्वारा ऐसा अनेक बार किया गया हो. आप ऋण बाजार या देश को रेटिंग देनेवाले विश्लेषकों को मूर्ख नहीं बना सकते. इसलिए इसे केंद्र की तरफ से कम कीमत पर लेना और राज्यों को इसका लाभ देना ज्यादा सही है.

चौथा और संभवतः सबसे महत्वपूर्ण कारण, यह आपदा ईश्वर का कृत्य है या नहीं, इसके लिए केंद्र एक लिखित और संहिताबद्ध वादे से इंकार नहीं कर सकती है. हम सब एक साथ इस महामारी को झेल रहे हैं. हम सब सहकारी संघवाद के लिए विश्वास और ठोस आधार बनाने की कोशिश में हैं. जीएसटी स्वायत्तता कम करती है, लेकिन यह हमें देशभर में एकीकृत सामान्य आर्थिक बाजार उपलब्ध कराती है. राज्यों और केंद्र को देश के विकास के लिए एक सामान्य दृष्टिकोण अपनाना होगा.

संतुलित विकास के लिए राज्य और केंद्र के बीच अधिक सहयोग और लेन-देन की जरूरत होगी. यही समय है, जब संघीय आस्था और विश्वास की परख होगी. केंद्र को पूरा राजकोषीय बोझ उठाना चाहिए. राज्यों की तुलना में केंद्र के पास वित्तीय संसाधन (जैसे आरबीआइ से पीएसयू शेयर के विरुद्ध ऋण लेना या विदेशों से कर्ज लेना या कोविड बॉन्ड) जुटाने के अनेक विकल्प हैं. यह कहते हुए कि यह महामारी ‘ईश्वर का कृत्य है’, जीएसटी दायित्व के वादे को नहीं तोड़ना चाहिए.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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