No Detention Policy : केंद्र सरकार ने पांचवीं और आठवीं कक्षा के छात्रों के लिए नो डिटेंशन पॉलिसी को समाप्त कर दिया है. इस निर्णय के बाद अब यदि इन कक्षाओं के कोई भी छात्र वार्षिक परीक्षा में असफल हो जाते हैं, तो उन्हें अगली कक्षा में प्रमोट नहीं किया जायेगा. असफल होने वाले छात्रों को दो महीने के भीतर दोबारा परीक्षा देने का अवसर दिया जायेगा. यदि किसी कारणवश विद्यार्थी दोबारा भी असफल हो जाते हैं, तो उन्हें फिर से पांचवीं या आठवीं- जिसमें वे पहले से पढ़ रह थे- उसी कक्षा में पढ़ना होगा. मेरे विचार से यह निर्णय एकदम सही है और इसकी अत्यधिक आवश्यकता भी थी.
प्रतिवर्ष आने वाले अनेक सर्वेक्षणों में सामने आया है कि हमारे विद्यार्थियों की जो लर्निंग अचीवमेंट है, यानी पढ़ाई के दौरान उन्होंने जो कुछ भी सीखा है, उसकी स्थिति बहुत खराब है. कक्षा पांच का बच्चा दूसरी कक्षा की पुस्तकों को नहीं पढ़ पाता है. यही स्थिति लगभग सभी कक्षा के बच्चों की है. समस्या यह है कि जब ऐसे सर्वेक्षण आते हैं, उस समय इसे लेकर खूब चर्चा होती है, परंतु थोड़े समय बाद सब इसे भूल जाते हैं.
जब यह प्रक्रिया शुरू हुई थी कि आठवीं तक के बच्चों को कोई परीक्षा नहीं देनी होगी, तब इसका उद्देश्य बहुत बड़ा था. सोचा गया था कि सभी लोग अपना काम अच्छी तरह करेंगे. स्कूल समय से लगेंगे. अध्यापक नियमित रूप से स्कूल आयेंगे, वे अनुपस्थित कम रहेंगे, उनकी नियुक्तियां समय से होंगी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. न तो अध्यापक नियमित स्कूल आ रहे हैं, न ही शिक्षकों की नियुक्ति समय पर हो रही है, शिक्षक अनुपस्थित भी रह रहे हैं. ऐसे में शिक्षा का स्तर घटता ही जा रहा है. तो जैसी हमने अपेक्षा की थी शिक्षा को लेकर, जैसा एक अच्छे समाज में होता है- जहां सब कुछ सुचारू रूप से चल रहा होता है- वह अपेक्षा पूरी नहीं हुई. सरकार के इस हालिया निर्णय का लोगों पर, अध्यापकों पर, स्कूलों पर प्रभाव पड़ेगा. साथ ही स्कूलों का भी मूल्यांकन होगा कि उन्होंने क्या किया, कैसे किया, क्यों किया. और यह सब जब होगा, तो निश्चित रूप से अध्यापकों में सतर्कता आयेगी. इस निर्णय के बाद अध्यापक समय से स्कूल आयेंगे और समय पर ही जायेंगे, ऐसी उम्मीद की जा सकती है.
सरकार का यह कदम भी सराहनीय है कि आठवीं कक्षा तक के बच्चों को, जो अपनी कक्षा में पास नहीं होते हैं, उन्हें स्कूल से निकाला नहीं जायेगा. इस देश में वर्षों से ऐसा हो रहा है कि नौवीं कक्षा के बच्चे, जो परीक्षा में अच्छा नहीं कर पाते हैं, उन्हें स्कूल से निकाल दिया जाता है. ऐसे बच्चों को फिर ओपन स्कूल से परीक्षा दिलायी जाती है. दिल्ली समेत देश के अनेक हिस्सों में ऐसा होता है. यह बहुत गलत परंपरा है. असल में स्कूल अपने यहां का परीक्षा परिणाम अच्छा दिखाने के लिए ऐसा करते हैं, पर वे बच्चों के बारे में नहीं सोचते. इस पर तुरंत रोक लगनी चाहिए. मैं चाहता हूं कि सरकार यह घोषणा भी करे कि कोई भी स्कूल कक्षा नौ और दस के भी किसी बच्चे को स्कूल से न निकाले.
किसी भी हाल में, किसी भी कक्षा के विद्यार्थियों को असफल होने के बाद स्कूल से नहीं निकाला जाना चाहिए. बल्कि इसे लेकर एक राष्ट्रीय नीति बननी चाहिए कि किस स्थिति में बच्चे के साथ ऐसा किया जा सकता है. सरकार ने नये सत्र में पांचवीं और आठवीं कक्षा में आने वाले विद्यार्थियों को नयी पुस्तकें दिये जाने से पहले ब्रिज कोर्स करवाने का भी निर्णय लिया है. यह भी अच्छा कदम है. इसका लाभ मिलेगा. एक तो ब्रिज कोर्स के माध्यम से बच्चों का रिवीजन हो जायेगा. दूसरी, उनमें जो कमियां होंगी, वो भी दूर हो जायेंगी. तीसरी बात कि अध्यापक भी इस बात का ध्यान रखेंगे कि बच्चे में सुधार हो रहा है या नहीं.
देखिए, सत्य को स्वीकार करना चाहिए. सरकार ने शिक्षा में जो वस्तुस्थिति अभी है, उसे इस निर्णय के जरिये स्वीकार किया है और निर्णय लिया है कि कक्षा पांच और आठ में परीक्षा होनी चाहिए. इन परीक्षाओं के न होने के कारण बच्चों की तरफ अध्यापक भी ध्यान नहीं देते थे, परिणाम की तरफ ध्यान नहीं देते थे और चीजें धीरे-धीरे आराम से चल रही थीं. सभी सुखी थे. अब थोड़ी सी सतर्कता आयेगी. थोड़ा-सा उत्तरदायित्व बोध बढ़ेगा और विद्यार्थियों को भी लगेगा कि परीक्षा होनी है और उसके लिए उन्हें तैयारी करनी है. इस तरह वे भी पढ़ाई के प्रति गंभीर होंगे. बच्चे कक्षा में पास होकर अगली कक्षा में जाएं, इसके लिए माता-पिता भी अपने बच्चों की पढ़ाई को लेकर गंभीर होंगे और उन पर ध्यान देंगे.
कुल मिलाकर, एक ऐसा वातावरण बनेगा, जहां शिक्षा के महत्व पर चर्चा होगी. यह चर्चा घर में होगी, स्कूल में होगी, अध्यापकों के बीच होगी और विद्यार्थियों के बीच भी होगी. मेरा मानना है कि नो डिटेंशन पॉलिसी का उद्देश्य बहुत अच्छा था, यदि सब कुछ अच्छे ढंग से चल रहा होता. हर व्यक्ति अपना कर्तव्य निभा रहा होता, हर जगह ईमानदारी, सच्चाई होती, उपयुक्त संसाधन उपलब्ध होते. अध्यापक पूरी तरह प्रशिक्षित होते. यह सच है कि स्कूल में भिन्न-भिन्न पृष्ठभूमि से बच्चे आते हैं. दोनों की समझ में, ज्ञान में जो अंतर होता है, उसको समझने की क्षमता यदि अध्यापक में होती, तो यह नीति सफल होती. पर ऐसा नहीं हुआ.
वर्ष 2012 में एक समिति के प्रतिवेदन में भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जेएस वर्मा ने कहा था कि इस देश में दस हजार शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान व्यापार कर रहे हैं और वे डिग्री बेच रहे हैं. यह बेहद गंभीर बात थी, पर इसका अभी भी समाधान नहीं हुआ है. यदि कोई देश अपने अध्यापक को इस तरह प्रशिक्षित कर रहा है, तो वह अपने भविष्य के साथ, अपने विद्यार्थियों के साथ खिलवाड़ कर रहा है. जब जेएस वर्मा ने ऐसा कहा था, तो उसी समय सारे देश को खड़े हो जाना चाहिए था और इसका समाधान निकालना चाहिए था. आज भी देश में अध्यापकों की नियुक्ति सही ढंग से नहीं हो रही है, नियमित नियुक्ति नहीं हो रही है, कम मानदेय पर नियुक्तियां हो रही हैं.
ऐसी स्थिति में नो डिटेंशन जैसी पॉलिसी का कोई औचित्य नहीं रह जाता है. यहां कुछ प्रश्न भी उठते हैं, जिनका उत्तर तलाशना जरूरी है. आखिर ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि प्रतिवर्ष हर राज्य में अध्यापकों के रिटायरमेंट के छह महीने पहले से ही नये अध्यापकों की नियुक्त हो जाए. अध्यापकों की अननियमित नियुक्ति, कम पैसों पर नियुक्ति क्यों होती है? पिछले लगभग 40 वर्षों से शिक्षा के साथ यह जो घोर अन्याय किया गया है, उससे गुणवत्ता प्रभावित हुई है. शिक्षा की गुणवत्ता तभी बनी रह सकती है जब उचित संख्या में प्रशिक्षित अध्यापक हों, और एक निश्चित अनुपात में अध्यापक और छात्र कक्षा में मौजूद हों, तभी शिक्षक प्रत्येक छात्र से बातचीत कर सकेगा, हर बच्चे के बारे में जान सकेगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)