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लुढ़कते रुपये से निपटने की चुनौती

जिस तरह चीन और रूस जैसे देशों ने अंतरराष्ट्रीय व्यापार में अमेरिकी डॉलर के वर्चस्व को तोड़ने की दिशा में सफल कदम बढ़ाये हैं, उसी तरह अब रिजर्व बैंक के निर्णय से भारत की बढ़ती वैश्विक स्वीकार्यता के कारण रुपये को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा के रूप में स्थापित करने में भी मदद मिल सकती है.

हाल में अमेरिका के केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व द्वारा ब्याज दर में इजाफा करने और मौद्रिक नीति को आगे भी सख्त बनाये जाने के संकेत से 28 सितंबर को डॉलर के मुकाबले रुपया रिकॉर्ड निचले स्तर पर लुढ़क कर 81.93 पर पहुंच गया. रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद से रुपये में यह सबसे बड़ी गिरावट है. डॉलर के मुकाबले रुपये की ऐतिहासिक गिरावट के बाद कई भारतीय कंपनियां बचाव के लिए फॉरवर्ड कवर की कवायद में हैं, क्योंकि उन्हें चिंता है कि फेडरल रिजर्व के ताजा संकेत से इसी वर्ष ब्याज दर में और इजाफा हो सकता है, जिससे डॉलर और ज्यादा मजबूत होगा.

रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद अब चीन-ताइवान तनाव और वैश्विक आर्थिक मंदी की आशंकाओं के बीच रुपये की कीमत में बड़ी फिसलन के कारण जहां भारतीय अर्थव्यवस्था की मुश्किलें बढ़ रही हैं, वहीं विकास योजनाएं भी प्रभावित हो रही हैं. विदेशी मुद्रा भंडार 16 सितंबर को दो साल के निचले स्तर पर घट कर 545.65 अरब डॉलर रह गया. इतना ही नहीं, महंगाई से जूझ रहे आम आदमी की चिंताएं बढ़ती हुई दिख रही हैं.

उर्वरक एवं कच्चे तेल के आयात बिल में बढ़ोतरी होगी और अधिकतर आयातित सामान महंगे हो जायेंगे. यद्यपि रुपये की कमजोरी से आइटी, फार्मा, टेक्सटाइल जैसे विभिन्न उत्पादों के निर्यात की संभावनाएं बढ़ी हैं, लेकिन अधिकतर देशों में मंदी की लहर के कारण निर्यात की चुनौती भी दिख रही है. रुपये के कमजोर होने का प्रमुख कारण बाजार में रुपये की तुलना में डॉलर की मांग बहुत ज्यादा हो जाना है.

वर्ष 2022 के शुरू से ही संस्थागत विदेशी निवेशक बार-बार भारतीय बाजारों से पैसा निकालते हुए दिखे हैं. ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि फेडरल रिजर्व द्वारा अमेरिका में ब्याज दरें तेजी से बढ़ायी जा रही हैं. कई विकसित देशों में भी ब्याज दरें बढ़ रही हैं. ऐसे में निवेशक अमेरिका व अन्य विकसित देशों में अपने निवेश को ज्यादा लाभप्रद और सुरक्षित मानते हुए भारत की जगह उन देशों में निवेश को प्राथमिकता भी दे रहे हैं. गौरतलब है कि अभी भी डॉलर सबसे मजबूत मुद्रा है.

दुनिया का करीब 85 फीसदी व्यापार डॉलर की मदद से होता है और 39 फीसदी कर्ज डॉलर में दिये जाते हैं. इसके अलावा, कुल डॉलर का करीब 65 फीसदी उपयोग अमेरिका के बाहर होता है. चूंकि भारत कच्चे तेल की अपनी करीब 80-85 फीसदी जरूरतों के लिए आयात पर निर्भर है, इसलिए रूस-यूक्रेन युद्ध से कच्चे तेल और अन्य वस्तुओं की कीमत में बढ़ोतरी की वजह से भारत द्वारा अधिक डॉलर खर्च करना पड़ रहा है.

कोयला, उर्वरक, वनस्पति तेल, दवाई के कच्चे माल, रसायन आदि का आयात लगातार बढ़ता जा रहा है, ऐसे में डॉलर की जरूरत और बढ़ गयी है. भारत जितना निर्यात करता है, उससे अधिक आयात करता है. इससे देश का व्यापार संतुलन लगातार प्रतिकूल होता जा रहा है. कमजोर होते रुपये की स्थिति से निश्चित ही सरकार और रिजर्व बैंक चिंतित हैं और इस चिंता को दूर करने के लिए यथोचित कदम भी उठा रहे हैं. रिजर्व बैंक के प्रयासों से रुपये की तेज गिरावट को थामने में मदद मिली है.

आरबीआइ ने कहा है कि अब वह रुपये की विनिमय दर में तेज उतार-चढ़ाव की अनुमति नहीं देगा. उसका कहना है कि विदेशी मुद्रा भंडार का उपयुक्त उपयोग इस गिरावट को थामने में किया जायेगा. रिजर्व बैंक ने विदेशी मुद्रा का प्रवाह देश की ओर बढ़ाने और रुपये में गिरावट को थामने, सरकारी बांड में विदेशी निवेश के मानदंड को उदार बनाने तथा कंपनियों के लिए विदेशी उधार सीमा में वृद्धि सहित कई उपायों की घोषणा की है. ऐसे उपायों से विदेशी निवेश पर कुछ अनुकूल असर पड़ा है.

इस समय डॉलर के खर्च में कमी और डॉलर की आवक बढ़ाने के लिए रणनीतिक उपाय जरूरी हैं. अब रुपये में वैश्विक कारोबार बढ़ाने के मौके को भुनाना होगा. रिजर्व बैंक द्वारा भारत और अन्य देशों के बीच व्यापारिक सौदों का निपटान रुपये में करने संबंधी महत्वपूर्ण निर्णय लिया गया है. इससे डॉलर संकट का सामना कर रहे रूस, इंडोनेशिया, श्रीलंका, ईरान, एशिया और अफ्रीका के अनेक देशों के साथ व्यापार के लिए डॉलर के बजाय रुपये में भुगतान को बढ़ावा देने की नयी संभावनाएं दिख रही हैं.

सात सितंबर को वित्त मंत्रालय और सभी हितधारकों की बैठक में निर्धारित किया गया कि बैंकों द्वारा दो व्यापारिक साझेदार देशों की मुद्राओं की विनिमय दर बाजार आधार पर निर्धारित की जायेगी. निर्यातकों को रुपये में व्यापार करने के लिए प्रोत्साहन और नये नियमों को जमीनी स्तर पर लागू करने की रणनीति तैयार की गयी है, जिसे वाणिज्य मंत्रालय और रिजर्व बैंक आपसी तालमेल से लागू करेंगे.

उल्लेखनीय है कि आगामी कुछ ही दिनों में भारत और रूस के बीच द्विपक्षीय कारोबार एक-दूसरे की मुद्राओं में किये जाने की संभावनाएं हैं. इसी तरह भारत अन्य देशों के साथ भी एक-दूसरे की मुद्राओं में भुगतान की व्यवस्था सुनिश्चित करने की डगर पर आगे बढ़ रहा है. इससे रुपये को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लेन-देन के लिए अहम मुद्रा बनाने में मदद मिलेगी. एक ओर इससे जहां व्यापार घाटा कम होगा, वहीं विदेशी मुद्रा भंडार घटने की चिंताएं भी कम होंगी.

निश्चित रूप से रिजर्व बैंक के इस कदम से भारतीय रुपये को अंतरराष्ट्रीय व्यापार में एक वैश्विक मुद्रा के रूप में स्वीकार कराने की दिशा में मदद मिलेगी. जिस तरह चीन और रूस जैसे देशों ने अंतरराष्ट्रीय व्यापार में अमेरिकी डॉलर के वर्चस्व को तोड़ने की दिशा में सफल कदम बढ़ाये हैं, उसी तरह अब रिजर्व बैंक के निर्णय से भारत की बढ़ती वैश्विक स्वीकार्यता के कारण रुपये को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा के रूप में स्थापित करने में भी मदद मिल सकती है.

नि:संदेह, रुपये में अत्यधिक उतार-चढ़ाव न तो निर्यातकों के पक्ष में है और न ही आयातकों के लिए फायदेमंद है. इसलिए व्यापार से फायदा लेने के लिए रुपया निश्चित रूप से स्थिर स्तर पर होना चाहिए. ऐसे में हम उम्मीद करें कि सरकार द्वारा उठाये जा रहे नये रणनीतिक कदमों से जहां प्रवासी भारतीयों से अधिक विदेशी मुद्रा प्राप्त हो सकेगी, वहीं उत्पाद निर्यात और सेवा निर्यात बढ़ने से भी विदेशी मुद्रा की आमद बढ़ेगी.

इन सबके कारण डॉलर की तुलना में रुपया एक बार फिर संतोषजनक स्थिति में पहुंचता हुआ दिख सकेगा. इससे देश की आर्थिक मुश्किलें कम होंगी तथा महंगाई से पैदा हुई पीड़ा भी कम होगी. हमें उम्मीद करनी चाहिए कि जल्दी ही रुपये का मूल्य स्थिर हो सकेगा और विदेशी मुद्रा भंडार में भी बढ़ोतरी होगी.

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