मुद्रास्फीति की दर अगस्त में घटकर 6.83 प्रतिशत हो गयी, जो पिछले महीने 7.44 प्रतिशत थी. यह अब भी छह प्रतिशत से ऊपर है, जिसे रिजर्व बैंक लक्ष्मण रेखा की तरह मानता है. वर्ष 2016 से मौद्रिक नीति का लक्ष्य मुद्रास्फीति को नियंत्रित करना हो गया. तब से उपभोक्ता मूल्य सूचकांक या सीपीआइ के आधार वाली मुद्रास्फीति को दो से छह प्रतिशत रखने की कोशिश होती है. पिछले 12 महीनों में यह सातवीं बार हुआ है, जब मुद्रास्फीति की मासिक दर छह प्रतिशत से ऊपर चली गयी है. क्या यह रिजर्व बैंक मौद्रिक नीति समिति को परेशान करनेवाली स्थिति नहीं है? उन्हें मुद्रास्फीति को घटाने के लिए बाजार में मुद्रा के प्रवाह को कम करना होगा. लेकिन, उन्होंने ब्याज दर में कोई परिवर्तन नहीं किया है, और उम्मीद कर रहे हैं कि मुद्रास्फीति खुद कम हो जायेगी. आरबीआइ गवर्नर ने भी संकेत दिया है कि अभी कुछ समय तक महंगाई की दर ऊंची बनी रहेगी.
उपभोक्ता मूल्य सूचकांक(सीपीआइ) लगभग 450 अलग-अलग चीजों के औसत मूल्य के आधार पर तय किया जाता है, जो कि शहरी और ग्रामीण उपभोक्ताओं के लिए अलग-अलग होता है. इनमें से लगभग 49 प्रतिशत सामान खाद्य और इससे संबंधित सामग्रियों के होते हैं. इसलिए यदि खाने के सामान महंगे होंगे, तो कुल महंगाई भी ज्यादा होगी. सब्जियों, तिलहन, दालों, दूध और खाद्यान्नों की ऊंची कीमतों की वजह से खाने के सामानों की मुद्रास्फीति 10 प्रतिशत पर पहुंच गयी है. इसे नियंत्रित करने के लिए निर्यात पर पाबंदी या गेहूं, चावल, चीन और प्याज जैसे कृषि उत्पादों के निर्यात पर भारी टैक्स लगाने जैसे उपाय किये गये हैं. इससे निर्यात से लाभ की उम्मीद पाले बैठे किसानों की कमाई पर असर पड़ा है. जैसे, भारत ने वर्ष 2022 में 74 लाख टन उसना चावल का निर्यात किया, लेकिन अभी उस पर 20 प्रतिशत निर्यात शुल्क लगा दिया गया है. भारत दुनिया के 40 प्रतिशत चावल का निर्यात करता है, और निर्यात नियंत्रण के उपायों के कारण दुनियाभर में खाद्यान्न की और भी कमी हो गयी है.
भारत के इस कदम से चीन, फिलीपींस, बांग्लादेश, इंडोनेशिया और नाइजीरिया जैसे आयातक देशों पर असर पड़ा है. फिलीपींस में एक मंत्री को चावल के महंगे होने के कारण इस्तीफा तक देना पड़ सकता है. पर क्या इन उपायों से भारत में चावल सस्ता हुआ है? लगता तो नहीं, क्योंकि शायद टूटे चावलों का इस्तेमाल इथेनॉल के उत्पादन के लिए किया जा रहा है, जिसके निर्यात पर टैक्स लगाया गया है. खाने के सामानों से गाड़ियों के लिए ईंधन बनाना एक विवादास्पद नीति है, खासतौर पर जब दुनियाभर में खाद्यान्न महंगे हैं.
खाद्य एवं कृषि संगठन के चावल की कीमतों का सूचकांक अगस्त में 9.8 प्रतिशत था, और अब वह पिछले 15 वर्षों के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया है. यह महंगाई भारत तक भी पहुंच सकती है. इथेनॉल की नीति डॉलर बचाने की कोशिश है, जिससे कि कच्चा तेल खरीदा जाता है. लेकिन, इसकी कीमत यदि देश में खाद्य सामग्रियों की महंगाई से चुकानी पड़े, तो खाद्यान्नों से ईंधन बनाने की नीति पर सावधानी से विचार किया जाना चाहिए. वैसे, कच्चा तेल भी महंगा हो सकता है. रूस और सऊदी अरब के सप्लाई कम करने से, तेल की कीमत पहले ही 85 डॉलर के ऊपर हो चुकी है. इससे भारत के आयात पर प्रतिकूल असर पड़ता है, और इस बात की संभावना है कि डॉलर की तुलना में रुपये की कीमत घटेगी. इसकी भरपाई केवल सॉफ्टवेयर और आईटी सेवाओं के उम्मीद से अधिक निर्यात से हो सकती है. लेकिन, यह भी इतना सहज नहीं है, क्योंकि सॉफ्टवेयर क्षेत्र में भी सुस्ती आ रही है. वैसे सॉफ्टवेयर उद्योग के संगठन नैसकॉम के अनुसार, मध्य और दीर्घ अवधि में भारत की सॉफ्टवेयर सेवाओं का भविष्य अच्छा प्रतीत होता है.
इन सबके अलावा महंगाई को बढ़ाने में एक बड़ा कारण राजकोषीय घाटे का आकार होता है, जो भारत में बहुत ज्यादा है. इसे काबू में करने के सभी प्रयास नाकाम लग रहे हैं. बेशक, महामारी के समय घाटा बढ़ना ही था, क्योंकि सरकार को मुफ्त भोजन, रियायती कर्ज और बाजार में पैसे के प्रवाह को बनाये रखने के लिए आपात प्रबंध करने पड़े थे. जैसे, पिछले 48 महीनों से जारी मुफ्त खाद्यान्न योजना से सरकारी खजाने पर 4.5 लाख करोड़ रुपये का बोझ पड़ रहा है. इसी तरह, हाल ही में बीएसएनल को उबारने के लिए 1.7 लाख करोड़ रुपये के राहत पैकेज का एलान किया गया. एक संसदीय प्रश्न के उत्तर में बताया गया कि सरकारी क्षेत्र के बैंकों ने पिछले सात सालों में लगभग 15 लाख करोड़ के खराब कर्जों को माफ किया है. भारत की वित्तीय स्थिति जितनी मानी जाती है उससे अधिक गंभीर है. यदि बढ़ते कर्ज के ब्याज को अदा करने में होनेवाले सरकारी खर्च को देखा जाए, तो उस मामले में भारत सभी देशों के औसत से बहुत ऊपर है.
बढ़ते घाटे के कारण ब्याज दर ऊंची बनी रहेगी, जो हाउसिंग, रियल एस्टेट और सभी औद्योगिक परियोजनाओं के लिए फायदे की बात नहीं. भारत ने अपने राजकोषीय घाटे को नियंत्रित करने की बहुत कोशिश की है. वर्ष 2003 में संसद से पारित राजकोषीय दायित्व अधिनियम के तहत राजकोषीय घाटे का जीडीपी के तीन प्रतिशत से ज्यादा होना गैरकानूनी ठहरा दिया गया. लेकिन सच्चाई यह है कि ऐसा एक भी साल नहीं गुजरा, जब भारत ने यह सीमा नहीं लांघी हो. स्थिति ऐसी हो गयी है कि इस कानून को निष्प्रभावी कहा जाने लगा है. महामारी से ठीक पहले इस कानून की समीक्षा हुई थी, लेकिन उसका भी कोई लाभ नहीं होगा, क्योंकि कर्ज और घाटों का स्तर देश की आर्थिक सेहत से कहीं ज्यादा ऊपर है.
यह सच बात है कि किसी कोलाहलपूर्ण और प्रतियोगी लोकतंत्र में विभिन्न समूह और निहित स्वार्थों वाले तत्व खर्चे बढ़ाने की मांग करते रहते हैं. इन सबके ऊपर मुफ्त बांटने का चलन भी लगातार बढ़ता जा रहा है. इसके अलावा, नयी औद्योगिक नीति के तहत उत्पादन पर प्रोत्साहन देनेवाली पीएलआइ स्कीम के अलावा, आयात से सुरक्षा जैसे उपाय अपनाये जा रहे हैं. लेकिन इन सब उपायों से सरकारी कोष पर असर पड़ता है, जिससे मुद्रास्फीति का दबाव बढ़ता है. भारत के लंबे समय से बने राजकोषीय भार को केवल मौद्रिक नीति को सख्त कर नहीं कम किया जा सकता. अब तो लग रहा है कि उसका भी प्रभाव नहीं होता. मुद्रास्फीति से लड़ना भारत के लिए सचमुच एक मुश्किल लड़ाई है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)