डॉ संजीव राय, शिक्षाविद्
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आज दो सवाल शिक्षा विमर्श की धुरी बने हुए हैं- छात्रों को कैसे पढ़ाया जाये और क्या पढ़ाया जाये? यह लेख पहले सवाल पर केंद्रित है. ऑनलाइन शिक्षा के पक्षकार इस पद्धति को आसान समाधान बता रहे हैं. इसके विरोधी कमजोर वर्गों के पीछे छूट जाने की चिंता जता रहे हैं. इस बहस में न तो बच्चे शामिल हैं और न ही उनके अभिभावक. क्या यह आवश्यक नहीं है कि सरकारी स्कूल के बच्चों और उनके अभिभावकों से भी राय ली जाये? ऑनलाइन शिक्षा से पहले भी कई ऐसे संवेदनशील मुद्दे रहे हैं, जिन पर अभिभावकों के विचार अलग -अलग रहे हैं. जब देश में कंप्यूटर की शुरुआत हो रही थी,
तब भी कई वर्ग उसका विरोध कर रहे थे. जब हम ऑनलाइन शिक्षण का विरोध अथवा समर्थन कर रहे हैं, तो क्या हमें शिक्षक की भूमिका को बहस के केंद्र में नहीं रखना चाहिए? कोरोना संक्रमण से पहले भी शिक्षा में तकनीक को लेकर प्रयोग होते रहे हैं. आज उनकी सफलताओं और सीमाओं से सीखने की जरूरत है.
शिक्षा में सूचना, संचार और तकनीक के महत्व को स्वीकार करते हुए 1984-85 में कंप्यूटर साक्षरता के लिए एक योजना बनी थी. फिर नयी शिक्षा नीति (1986) में शिक्षा में तकनीक पर बल दिया गया. वर्ष 1998 में सूचना तकनीक और सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट के लिए एक टास्क फोर्स का भी गठन हुआ था. राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान में भी कंप्यूटर शिक्षा शामिल रही. रेडियो माध्यम के लिए ज्ञानवाणी और टीवी के लिए ज्ञान दर्शन की शुरुआत भी कई साल पहले हुई थी. आगामी दिनों में केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय प्रस्तावित नयी शिक्षा नीति के प्रारूप में संशोधन कर सकता है. पूर्व के तकनीक आधारित कार्यक्रमों से जो सीख मिली है, उनके आधार पर समावेशी नीति निर्धारण हो सकता है.
इस वर्ष अप्रैल में केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय ने ‘भारत पढ़े ऑनलाइन’ अभियान के तहत मंत्रालय ने लोगों से ऑनलाइन शिक्षा के लिए सुझाव मांगा था. मंत्रालय ने ‘दीक्षा स्वयम’ की शुरुआत की है. विभिन्न सरकारों द्वारा टीवी पर प्रसारित होनेवाले पाठ भी तैयार किये गये हैं तथा कुछ राज्यों में तकनीक के जरिये पढ़ाई जारी रखने का निर्देश दिया हैं. पर सभी छात्रों के पास न तो कंप्यूटर, लैपटॉप या स्मार्ट फोन है और न ही नियमित डाटा खरीद की क्षमता. यह एक बुनियादी चुनौती है. लेकिन शिक्षा में तकनीक की संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता है.
दरअसल हमें ऐसा मॉडल बनाना होगा, जिससे पीछे छूट रहे छात्रों को सीखने में गति मिले और स्थानीय शिक्षक की भूमिका भी हो. शिक्षक की भूमिका से तकनीक का प्रभावी इस्तेमाल हो सकता है और ‘डिजिटल डिवाइड’ का खतरा भी कम हो सकता है. केंद्र विभिन्न संस्थानों के सहयोग से आवश्यक उपकरण और ऑफलाइन चलनेवाले एप तैयार करा सकता है. तकनीक के रचनात्मक उपयोग का मॉडल अगर नहीं बनता है, तो स्कूलों के बीच भी तकनीकी फासला बढ़ जायेगा.
कोरोना संकट से पहले के कुछ प्रयोग ‘शिक्षा में नवाचार’ के रूप में न सिर्फ दर्ज हुए हैं, बल्कि उन्हें बड़े फलक पर ले जाने की भी बात उठती रही है. ऐसा ही एक प्रयोग मध्य प्रदेश में 2002-03 में शुरू किया गया था, जो कंप्यूटर सीखने और कंप्यूटर की मदद से सीखने पर आधारित है. इसे लेकर ग्रामीण बच्चों में उत्साह देखा गया था. कोरोना से पहले उत्तर प्रदेश के लगभग 3000 प्राथमिक स्कूलों में ‘डिजिटल क्लासरूम’ बने हैं. कुछ वर्ष पूर्व मुझे चंडीगढ़ के एक राजकीय हाई स्कूल में नवाचार देखने का अवसर मिला था, जहां तकनीक के कारण छात्रों के नामांकन के साथ समझदारी भी बढ़ी है.
उत्तर प्रदेश के बांदा में लोकमित्र संस्था के राजेश कुमार ग्रामीण छात्रों के साथ एक प्रयोग कर रहे हैं. बच्चे टैंबलेट का उपयोग भाषा व गणित सीखने में कर रहे हैं. वे किताब भी पढ़ते हैं और रचनात्मक कार्य भी करते हैं. राजेश कुमार कहते हैं- ‘स्कूल के बाहर भी बच्चों को सीखने के कई विकल्प मौजूद हैं. बच्चों के इन अनुभवों से हम भी कुछ नयी बातें सीख सकते हैं.’ बदली परिस्थिति में, इवान इलिच और वयगोत्स्की जैसे विद्वानों के शैक्षिक विमर्श को भी समझने की जरूरत है. छत्तीसगढ़ में ‘विषय मित्र ‘ के रूप में समाज के युवाओं से आह्वान किया जा रहा है कि वे समुदाय में बच्चों को पढ़ायें. गोरखपुर में शिक्षिका अल्पा निगम साधारण फोन और व्हाट्सएप से अभिभावकों एवं बच्चों से जुड़ी हैं.
उत्तराखंड में शिक्षक महेश पुनेठा बच्चों को व्हाट्सप्प से जोड़कर सतत शिक्षण और रचनात्मकता बनाये हुए हैं. ऐसे प्रयोग संकट काल में हमारे लिए बहुत उपयोगी हो सकते हैं. इतनी बहुलतावाले देश में स्कूली शिक्षा को लेकर एक राय नहीं हो सकती है. हमें सरकारी स्कूलों से जुड़े अभिभावकों और छात्रों का विचार जानना होगा. तकनीक का उपयोग लाभदायक है, लेकिन यह सभी शैक्षिक समस्याओं का समाधान नहीं है. मीडिया चिंतक मार्शल मैक्लुहान ने कहा था कि माध्यम ही संदेश है. नये माध्यम अपना संदेश दे रहे हैं. शिक्षक, बच्चे, अभिभावक और तकनीक परस्पर मिलकर सीखने के अनुभव को नयी ऊंचाई दे सकते हैं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)