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लुग्दी साहित्य को लेकर बदले सोच

लोकप्रिय कला और साहित्य रूप जनसमाज की पैदाइश हैं, आधुनिक उद्योग आधारित संस्कृति आने के पहले हम इस प्रकार के साहित्य रूप की कल्पना नहीं कर सकते. दोहराव और लगातार दोहराव इसका गुण है. इसके जरिये ही यह अपने आपको प्रतिष्ठित करता है. इसी कारण इसमें फार्मूलाबद्धता का प्रवेश होता है.

साहित्य का हमने श्रेणी विभाजन किया हुआ है- साहित्य वह, जिसमें स्वभावत: श्रेष्ठता बोध निहित है, जो स्वघोषित रूप से सबको साथ लेकर सहित भाव से चलता है, सबका प्रतिनिधित्व करता है तथा लुग्दी साहित्य, जो लोकप्रिय तो है, लेकिन रेहड़ी-पटरी का साहित्य है. क्या आज के मास मीडिया के युग में ऐसा विभाजन उचित है? कलात्मक अभिरुचि को संतुष्ट करने वाले अन्य कला रूप घनघोर रूप से मास मीडिया के असर में हैं, तब जनरुचि व अभिजन रुचि का विभाजन करना तथा अभिजन आस्वाद को श्रेष्ठता का वाहक बता कर जनरुचि को खारिज करना, इन दो तरह के आस्वाद और अभिरुचियों में फर्क बनाये रखने पर जोर देना कहां तक संगत है?

मास मीडिया, खास कर टेलीविजन, के आने के साथ ही ब्रिटेन में संस्कृति संबंधी बहस ने संस्कृति के क्षेत्र के इकहरेपन पर सवाल उठाया तथा श्रेष्ठ अभिरुचि के क्षेत्र, जिसमें साहित्य और अन्य कला रूप भी शामिल हैं, और आम जन या कथित निम्न अभिरुचि, जो साधारण जनता, किसान, मजदूर, निम्न वर्ग, बेरोजगार युवाओं में लोकप्रिय रही है, के भेद को अनुचित बताया. यह स्थापित किया कि एक समय में एक से अधिक संस्कृतियां मौजूद होती हैं और कला तथा साहित्य का केवल एक रूप नहीं, विविध रूप मौजूद होता है.

साहित्य और कला रूपों में श्रेष्ठता और हीनता का प्रश्न बेमानी है, क्योंकि श्रेष्ठता का आधार केवल साधन की सुलभता से प्राप्त योग्यता की उपलब्धि नहीं हो सकती. हिंदी में बहुत पहले से लोकप्रिय साहित्य का लेखन आरंभ हो चुका था. चंद्रकांता और चंद्रकांता संतति इसके उदाहरण हैं. साझा संस्कृति की बात करें, तो पारसी थियेटर, तिलस्म-ए-होशरुबा जैसा साहित्य भी मिलेगा, जिसके स्वयं प्रेमचंद दीवाने थे, लेकिन हिंदी साहित्य की कथित जनोन्मुखी, लेकिन सारतः अभिजनवादी धारा, ने वहां से प्राण वायु ग्रहण नहीं किया.

इसके उलट हिंदी लेखकों और आलोचकों की एक धारा इनकी लोकप्रियता से चिंतित रही और इनके दुष्परिणामों से हिंदी के आधुनिक साहित्य को बचाने के लिए सन्नद्ध रही, पर ऐसा करके भी वह लोकप्रिय साहित्य लेखन को रोक न सकी. हिंदी साहित्य की सशक्त और प्रसिद्ध (लोकप्रिय नहीं कहूंगी) रचनाओं के भीतर भी उसकी छाप बनी रही, चाहे वह भारतेंदु की रचना ‘अंधेर नगरी’ हो या रेणु की ‘तीसरी कसम’.

‘प्रसिद्ध’ और ‘लोकप्रिय’ के बीच निर्मित बहुत बड़े फांक की सामाजिक विवेचना करें, तो जाहिर होगा कि यह केवल आस्वाद या अभिरुचि का मामला नहीं, बल्कि सामाजिक विकास की दिशा का मामला भी है. सामाजिक विकास के विषम पूंजीवादी ढांचे ने इस फांक को कम या परिष्कृत करने का कोई व्यापक उपक्रम करने के बजाय जनरुचि को हेय आस्वाद और निकृष्ट अभिरुचि का साबित करना जारी रखा. लोकप्रिय कला और साहित्य रूप जनसमाज की पैदाइश हैं.

आधुनिक उद्योग आधारित संस्कृति आने के पहले हम इस प्रकार के साहित्य रूप की कल्पना नहीं कर सकते. दोहराव और लगातार दोहराव इसका गुण है, इसके जरिये ही यह अपने आपको प्रतिष्ठित करता है. इसी कारण इसमें फार्मूलाबद्धता का प्रवेश होता है. एक नियत पैटर्न पर वह अपने आपको बार-बार दोहराती है. यह फार्मूलाबद्धता स्टीरियोटाइप का निर्माण करती है और लोकप्रिय साहित्य की कुछ रुढ़ियों का जन्म होता है.

हिंदी के लोकप्रिय साहित्य की खूबी यह है कि यह मर्डर, मिस्ट्री, और सॉफ्ट पोर्न के इर्द-गिर्द घूमता है. इसमें रूढ़ चरित्रों, घटनाओं का निर्माण, मनुष्य की आदिम इच्छाओं और भय, मैथुन व हिंसा की भावनाओं का दोहन, अतींद्रिय अस्तित्वों की कल्पना से भय सृष्टि, सामाजिक जीवन में निहित अंधविश्वासों और कुसंस्कारों का दोहन आदि बार-बार दोहराई जानेवाली स्थितियां हैं. इस तरह के लेखन से हिंदी के लोकप्रिय साहित्य ने अपने को एक खास तरह के ‘घेटो’ में बंद कर लिया है. साथ ही, उसकी तरफ ‘शिष्ट’ कहे जाने वाले साहित्य ने भी अपने दरवाजे बंद कर रखे हैं. दोनों के बीच आवा-जाही का क्रम लगभग बंद-सा है.

एक लोकप्रिय है, लाखों की संख्या में बिकता है, साधारण लोग खरीद कर पढ़ते हैं. इनमें कर्नल रंजीत, अनिल मोहन, सुरेंद्र मोहन पाठक, गुलशन नंदा, ओम प्रकाश शर्मा आदि अनेक लेखक शामिल हैं. इनमें भाषा की रवानगी और रवां-दवां शब्दावली है. दूसरा श्रेष्ठता बोध से भरा, शाश्वत कल्याण के भाव से युक्त, शिष्ट (क्लिष्ट) भाषा और पांच सौ कॉपियों के संस्करण तक सीमित है. इन दोनों के बीच आपसदारी का संबंध होना चाहिए.

श्रेष्ठ या निकृष्ट कोई कला नहीं होती, बल्कि प्रमुख कला साहित्य रूप के साथ-साथ अन्य रूप भी चला करते हैं, उसी समाज में मौजूद रहते हैं. सवाल यह है कि श्रेष्ठ कला और साहित्य अपनी जड़ता को कब तोड़ेगा और अन्य लोकप्रिय रूपों द्वारा तैयार बड़े पाठक वर्ग से कब मुखातिब होगा? साहित्य लेखन के दरवाजे केवल कुछ विधा रूपों के लिए निर्धारित रहेंगे, तो अन्य रूप उपेक्षित होंगे. फ्रांस, ब्रिटेन, अमेरिका, इटली आदि देशों में साहित्य और आलोचना में गंभीर हस्तक्षेप करने वाले रचनाकारों ने साहित्य लेखन के लोकप्रिय रूपों को अपनाया है और सफल भी हुए हैं. हिंदी को ऐसे लेखक की तलाश है. (ये लेखिका के निजी विचार हैं.)

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