धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक ज्ञान का वाहक है चातुर्मास

शतपथ ब्राह्मण ने इसकी व्युत्पत्ति दी है- यव (जौ) अन्न वरुण के लिए है और ये इस कृत्य में खाये जाते हैं. अतः इसका नाम वरुणप्रघास है. यह कृत्य वर्षा ऋतु में आषाढ़ या श्रावण की पूर्णिमा को किया जाता है.

By शास्त्री कोसलेंद्र दास | July 18, 2024 10:08 AM
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वैदिक काल में चातुर्मास नामक यज्ञ होते थे. चातुर्मास को पर्व, अंग या संधि भी कहा जाता है. चातुर्मास प्रति चौथे मास के अंत में किया जाता है. अत: इन्हें ‘चातुर्मास्य’ संज्ञा मिली है. संस्कृत भाषा का ‘चातुर्मास्य’ शब्द ही चातुर्मास और आम बोलचाल में चौमासा हो गया है. आश्वलायन गृह्यसूत्र के अनुसार चातुर्मास तीन हैं- वैश्वदेव, वरुणप्रघास और साकमेध. कुछ लेखकों ने ‘शुनासीरीय’ नाम वाला एक चौथा चातुर्मास भी सम्मिलित किया है. वैश्वदेव फाल्गुन या चैत्र की पूर्णिमा पर, वरुणप्रघास आषाढ की पूर्णिमा तथा साकमेध कार्तिक की पूर्णिमा को किये जाते हैं. इनमें तीन ऋतुओं- वसंत, वर्षा एवं हेमंत के आगमन का निर्देश मिलता है. वास्तव में चातुर्मास ऋतु संबंधी यज्ञ है. शुनासीरीय चातुर्मास के लिए कोई निश्चित तिथि नहीं है. अब प्रायः वर्षा काल का सूचक वरुणप्रघास चातुर्मास ही रह गया है, जिसके आयोजन साधु-महात्माओं द्वारा कहीं-कहीं होते हैं.

‘वरुणप्रघास’ शब्द पुल्लिंग है और सदा बहुवचन में प्रयुक्त होता है. शतपथ ब्राह्मण ने इसकी व्युत्पत्ति दी है- यव (जौ) अन्न वरुण के लिए है और ये इस कृत्य में खाये जाते हैं. अतः इसका नाम वरुणप्रघास है. यह कृत्य वर्षा ऋतु में आषाढ़ या श्रावण की पूर्णिमा को किया जाता है. वरुणप्रघास का तात्पर्य वर्षा के चार महीनों में वरुण देवता को यज्ञ में हव्य अर्पित करने से है. आषाढ़ शुक्ल एकादशी या द्वादशी या पूर्णिमा को या उस दिन, जिस दिन सूर्य कर्क राशि में प्रविष्ट होता है, चातुर्मास व्रत का आरंभ होता है. गरुड़ पुराण ने एकादशी एवं आषाढी पौर्णमासी को चातुर्मास व्रत कहा है. यह चाहे जब शुरू हो, कार्तिक शुक्ल में द्वादशी को समाप्त हो जाता है. चातुर्मास में धार्मिक कृत्यों का संपादन होता था. यायावर संतों की धर्म यात्राएं थम जाती थीं. राजाओं के सैन्य अभियान रुक जाते थे.

यह चातुर्मास काल की महत्ता ही है कि पुरातन काल से चले आ रहे महत्वपूर्ण चार पर्वों में होली को छोड़कर तीन पर्व- रक्षा बंधन, विजयादशमी और दीपावली चातुर्मास की अवधि में ही मनाये जाते हैं. चातुर्मास आध्यात्मिक, दार्शनिक और सामाजिक उत्सव थे. स्मृतियों और धर्मशास्त्र के ग्रंथों से साफ है कि सहस्राब्दियों तक इनकी परंपरा अनवरत चलती रही. कालांतर में चातुर्मास के कृत्यों में परिवर्तन होते गये. पौराणिक काल के चातुर्मास वैदिक काल के चातुर्मास से भिन्न हैं. बारहवीं शती में इस्लामी आक्रांताओं के बाद ये समाप्त से हो गये और इनके स्थान पर अन्य धार्मिक कृत्य किये जाने लगे, जिन पर चातुर्मास की छाया देखी जा सकती है.

आज चातुर्मास उपेक्षित सा है. इसके बारे में घोर अज्ञान है. यह वेदों से शुरू होता है. इसकी शास्त्रीय परंपरा जो भी रही हो, पर आम जन इसे कर्मकांड से अधिक नहीं मानता. इसकी शाखाएं खुद तना बन गयी हैं. हर शाखा ने वृक्ष का रूप ले लिया और मूल मरता चला गया. पर चातुर्मास सार्वभौम तथा सार्वकालिक है. इसी से यह चला आ रहा है. साधु-संत चातुर्मास में वेदांत के अमृत तत्व को लोगों में बांट देते हैं. चातुर्मास एक परंपरा है. वह धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक ज्ञान का वाहक है. उसका इतिहास किसी से मत पूछिए. यह उसी प्रकार सनातन है जैसे सनातन धर्म है. चातुर्मास के उपकरण वे हैं जो परंपरा से चले आ रहे हैं. वे आस्थावान बनने की प्रेरणा देते हैं. मनुष्य होने का मर्म बताते हैं. आनंद की परिभाषा समझाते हैं. देवताओं की कृपा प्राप्ति के लिए और गंभीर पापों के फल से छुटकारा पाने के लिए यज्ञ किये जाते थे. शतपथ ब्राह्मण का कथन है कि अश्वमेध यज्ञ करने से राजा पापमुक्त होते थे.

पाप से मुक्त होने का एक अन्य साधन है- पाप की स्वीकारोक्ति, यानी किये गये पापों का व्यक्ति के मुख से उच्चारण. यह स्वीकारोक्ति वरुणप्रघास चातुर्मास से व्यक्त होती है, जिसमें यजमान को अपने द्वारा किये गये दुराचरणों को सबके सामने बोलना पड़ता था. चातुर्मास के पीछे केवल इच्छापूर्ति की ही भावना मात्र नहीं थी, जैसा यूरोपीय विद्वानों ने कहा है, किंतु पापमोचन की भावना भी निहित थी. सबके समक्ष पाप निवेदन करना पापमोचन का एक साधन माना जाता था. वरुणप्रघास चातुर्मास में पति और पत्नी को उनके द्वारा प्रत्यक्ष रूप से या परोक्ष रूप से यह स्वीकार करने पर कि उसका किसी अन्य स्त्री या पुरुष से शरीर संबंध था, पवित्र मान लिया जाता था और उन्हें पवित्र धार्मिक एवं सामाजिक कृत्यों में भाग लेने की अनुमति मिल जाती थी.

इन ऋतु संबंधी यज्ञों में व्रती को कुछ कृत्यों का त्याग करना होता था, यथा- शैया शयन, मांस, मधु, मैथुन एवं शरीरालंकरण. चातुर्मास में कुछ वस्तुओं के त्याग के फलों के विषय में कृत्यतत्व, व्रतार्क, व्रतप्रकाश एवं अन्य मध्यकालिक निबंधों में मत्स्य पुराण एवं भविष्य पुराण के कुछ वचन पाये जाते हैं. चातुर्मास आने-जाने वाला काल मात्र नहीं है, बल्कि यह हमारी परंपरा और साहित्य में रचा-बसा है.

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